शिक्षा एक ऐसा साधन है जिसके सहारे युवा पीढ़ी अपना तथा अपने राष्ट्र का भविष्य सँवार सकती है। कहा जाता है कि बालक एक नवांकुर की तरह होता है, उसमें जिस प्रकार का खाद-पानी डाला जायेगा उसी प्रकार के परिवर्तन देखने को मिलेंगे।अस्तु शिक्षा का स्वरूप कैसा हो?-इस पर उचित विचार करना परमावश्यक है,क्योंकि आज जैसी शिक्षा बालक को प्रदान की जायेगी तदनुसार ही देश की भावी निर्मिति का स्वरूप होगा।
मनुष्य की तीनों स्थितियों (भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक ) के अनुरूप ही प्रत्येक बालक को शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये किन्तु विडम्बना यह है कि सम्प्रति मात्र और मात्र भौतिक शिक्षा पर ही ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है।
दुनिया में शांति हेतु प्रयास करने वाले लब्ध-नोबेल पुरस्कार नेल्सन मण्डेला ने शिक्षा के महत्त्व पर जोर देते हुये कहा कि - "दुनिया में सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार 'शिक्षा' है, जो दुनिया को परिवर्तित कर सकती है।"
यदि उद्देश्यपरक शिक्षा बालक को प्रदान की जायेगी तो यही शिक्षा उसके कलम की ताकत बनेगी जिसके माध्यम से वह बालक समाज में प्रतिष्ठित होता हुआ समय के साथ अपने कर्त्तयों और अधिकारों के प्रति सजग होकर पूरे विश्व में एक सकारात्मक परिवर्तन कर सकता है।
आज देश में उद्देश्यहीन और राजनीतिक दलदल में फँसकर युवा जिस प्रकार अपना भविष्य बिगाड़ रहे हैं, उसे देखकर अफ़सोस होता है । आत्मश्लाघा और झूठी परप्रशंसा से मदान्ध होकर भारत के अधिकांश युवा अपने कर्तव्यों से दूर समाज के उन दिखावटी लोगों के पिछलग्गू बनकर दौड़ रहे हैं ,जो निजी स्वार्थ के ख़ातिर इन भटके हुये युवाओं का उपयोग करते हैं।
विभिन्न संगठनों की क्रियाविधि एवं नारेबाजी करने में मशगूल इन युवाओं को अपनी खाली जेब तथा अपने परिवार की जिम्मेदारी का तनिक भी ख्याल नहीं रहता ।वो यह भूल जाते हैं कि समाज सेवा तब सार्थक होती है, जब हम अपनी निजी जिम्मेदारियों का भी निर्वहन बखूबी कर लेते हों
आज बहुतेरे युवाओं की की कमजोर नस यह है कि वे अध्ययन-चिंतन से विमुख मात्र और मात्र व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी से मिलने वाले खोखले ज्ञान पर अभिमान करते नजर आ रहे हैं। सोशल मीडिया पर मिलने वाली शिक्षा इन युवाओं को भ्रमित और तथ्यहीन बनाने के लिये पर्याप्त है। इसीलिये उचित शिक्षा और विवेक की महती आवश्यकता है ताकि अफ़वाहों के वशीभूत न होकर युवा आपस में परस्पर विचारों की जंग करने से बचें।
विभिन्न संगठनों से जुड़कर मानवहित के लिये कार्य करना बुरी बात नहीं किन्तु इसके लिये अपनी शिक्षा को अधूरी छोड़ देना, अधिकारों तथा कर्त्तव्यों से भलीभाँति परिचित न होना ,संस्कारों की बलि चढ़ाते हुये खुद को समाजसेवी कहना शोभनीय नहीं।सर्वप्रथम विचारों को मजबूत करना होगा तथा एक प्रभावी और चारित्रिक व्यक्तित्व का निर्माण करना होगा तब जाकर कहीं किसी संगठन से जुड़कर मानवहित की बात सोचनी और करनी चाहिये।
प्रत्येक युवा को ऐसी शिक्षा और चिंतन की जरूरत है जो उसके जीवन में सकरात्कमता को स्थान देने में सहायक हों तथा मानव-जीवन में सन्तुलन बनाने हेतु कारगर हों ।युवाओं को यह बात मन-मस्तिष्क में बैठानी ही होगी कि आज दुनिया में जो संकट, विद्वेष,भ्रष्टाचार,अराजकता, आतंकवाद,भूख,हिंसा तथा बीमारी जैसी समस्याएँ व्याप्त हैं उनसे निजात पाने हेतु सदा ईमानदारी से प्रतिबद्ध रहेंगे ताकि सारी दुनिया में एकता एवं शांति की स्थापना हो सके।
प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ.जगदीश गाँधी ने अपने लेख 'शिक्षा कैसी हो?' -में उद्देश्यपरक शिक्षा का हवाला देते हुये कहा है कि -''उद्देश्यपूर्ण शिक्षा के माध्यम से हमें सारे विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना हेतु विश्व के प्रत्येक बच्चे को विश्व-नागरिक बनाना है।" उन्हें समझाना है कि निजी कार्यों,राष्ट्रकार्यों में ही न लगे रहें बल्कि मानव जाति के उत्थान हेतु भी सोचना पड़ेगा।
इस प्रकार अभिभावकों ,शिक्षकों के अतिरिक्त सरकार को भी यह चाहिये बालक को उद्देश्यपरक,प्रभावी, चिंतनशील तथा सकारात्मक शिक्षा प्रदान करने के हरसम्भव प्रयत्न करे।
✍️अनुजपण्डित