🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भजन' भी कहते हैं, इसलिए 'भजना' भी भक्ति ही है। इष्ट के प्रति अनुराग ही भक्ति है। यह नौ प्रकार की कही गयी है। सतयुग में भक्त प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु को नवधा भक्ति का जो उपदेश दिया उसका उल्लेख भागवतमहापुरण में है-
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
भक्ति के उक्त नौ प्रकारों में श्रवण किया था राजा परीक्षित ने,कीर्तन शुकदेव जी,स्मरण प्रह्लाद,पादसेवन(चरणों की सेवा) लक्ष्मी,अर्चन राजा पृथु,वन्दन अक्रूर,दास्य हनुमान्,सख्य अर्जुन,तथा आत्मनिवेदन वाली भक्ति राजा बलि ने की थी।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने माँ शबरी को जिस नवधा भक्ति का उपदेश दिया था,वह प्रह्लाद की नवधा भक्ति से भिन्न है, जो इस प्रकार हैं-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा।
दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि मान।
मन्त्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
छठ दम शील बिरति बहु कर्मा।
निरत निरंतर सज्जन धर्मा।
सातवँ सम मोहि जग देखा।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा।
आठौं जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।
-उक्त दोनों नवधा भक्तियाँ सरल और सुकर हैं। इनमें से यदि कोई एक प्रकार की भक्ति भी मनुष्य करे तो उसका उद्धार सम्भव है। भक्ति के साथ ज्ञान और वैराग्य जुड़े हैं। वस्तुतः ये ज्ञान और वैराग्य, भक्ति के पुत्ररूप हैं जिनका संग पाकर भक्ति और भी पुष्ट हो उठती है किन्तु कलियुग में ज्ञान और वैराग्य की हालत दयनीय है।
✍️ डॉ. अनुज पण्डित