Thursday, October 7, 2021

धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार पर नवरात्रि का महत्त्व

नौ दिन तथा नौ रातों तक मनाया जाने वाला नवरात्र उत्सव कब से मनाया जा रहा है? इसके पीछे  क्या कारण हैं? इन बातों पर चर्चा की जाए तो जो तथ्य उभरकर आते हैं, वे कुछ यों हैं-

त्रेताकाल में जब तत्समय के आतङ्कवादी लङ्कापति रावण से श्री राम का सङ्ग्राम छिड़ा था तो एक बार हुआ ऐसा कि श्री राम को पराजित होना पड़ा। पराजय के कारण राम को अतिशय ग्लानि और चिन्ता सता रही है। अपने स्वामी की ऐसी दशा परमभक्त हनुमान् से देखी न गयी,लिहाज़ा उनका भी चिन्तित होना लाज़िमी था। रावण से पराजित होने का क्या कारण है? इस बात पर चिन्तन चल ही रहा था कि तभी वहाँ परमपिता ब्रह्मा जी प्रकटे और यह बताया कि रावण की विजय का कारण है-उसका देवी-आराधन। अतः हे राम! आप भी एक सौ आठ कमल-पुष्पों से चण्डी की आराधना करें। 

उधर वीर हनुमान् अत्यधिक क्रोध के कारण यह ठान चुके थे कि मेरे रहते मेरे प्रभु चिन्तित रहें, यह मैं सहन नहीं कर सकता। मैं उनकी चिन्ता के कारण को ही समाप्त कर दूँगा। लङ्का और लङ्कापति ही क्या, मैं आज समस्त ब्रह्माण्ड को तहस-नहस कर दूँगा।अतः वे निकल पड़े संसार को नष्ट करने। उनका क्रोध इतना तीव्र था कि किसी के रोके नहीं रुक रहे थे। तब माता पार्वती ने अञ्जना का रूप धारण कर उनका क्रोध शान्त किया। 


शान्त होकर लौटे तो श्रीराम ने उनसे एक सौ आठ कमल-पुष्पों का इंतज़ाम करने को कहा। पुष्प उपलब्ध करवाकर हनुमान् जी ब्राह्मण-बालक के वेश में उस दल में सम्मिलित हो गए जिस दल के साथ रावण भी चण्डी का आराधन कर रहा था। हनुमान् की सेवा से प्रसन्न होकर पुरोहितों ने उनसे वर माँगने को कहा तो हनुमान् ने यह वर माँगा कि हे ऋत्विजों! मैं चाहता हूँ कि रावण के कल्याण हेतु   उच्चारित  किये जा रहे मन्त्र  का एव वर्ण बदल दीजिये, जिससे कि मन्त्र का अर्थ बदल जायेगा। पुरोहितों ने तथास्तु कहकर वैसा ही किया। परिणाम यह हुआ कि चण्डी क्रोधित हो गयीं और रावण की पूजा असफ़ल हुई। 

उधर श्रीराम देवी-मन्त्र का उच्चारण करते हुए एक-एक कमल समर्पित करते जा रहे थे तभी अचानक रावण की मायावी शक्ति से एक पुष्प विलुप्त हो गया। श्रीराम को लगा कि अब तो पूजा अधूरी रह जायेगी! तभी उन्हें स्मरण हुआ कि माता कौशिल्या मुझे राजीवलोचन कहकर पुकारा करती हैं अतः मैं अपनी आँख समर्पित कर दूँ तो एक कमलपुष्प की कमी पूरी हो जाएगी।


राम ने जैसे ही तूणीर से बाण निकालकर अपनी आँख निकालनी चाही,वैसे ही देवी का प्राकट्य हुआ और उन्होंने राम को ऐसा करने  से रोका। राम को विजय का वरदान मिला। तभी से नवरात्र-उत्सव का आरम्भ माना जाता है।
यह तो हुआ धार्मिक कारण। अब बात करते हैं वैज्ञानिक कारण की । आज आवश्यकता है कि हम अपनी मान्यताओं,परम्पराओं एवं पौराणिक कथाओं को वैज्ञानिकता से जोड़कर देखें और इनका महत्त्व नवपीढ़ी को समझायें तभी आज के भौतिकतावादी युग में इनका महत्त्व एवं उपयोगिता समझी जा सकती है।

नवरात्र के पीछे का वैज्ञानिक कारण यह है कि  यह समय ऋतु सन्धि का समय होता है अर्थात् एक ऋतु का गमन और दूसरी का आगमन। इस सन्धिकाल में सङ्क्रामक और महामारी जैसे रोगों की अधिक सम्भावना रहती है, अस्तु हमारे मनीषियों ने नवरात्र के माध्यम से शरीर-तन्त्र को शुद्ध करने का प्रयास किया। शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों की सफाई के लिए सात्त्विक आहार लिया जाता है। व्रत के कारण शरीर,मन, बुद्धि स्वच्छ होते हैं। शुद्धा बुद्धि होगी तभी तो उत्तम विचार उपजेंगे और तभी आप उत्तम कर्मों को करने हेतु उद्यत होंगे। इससे आपकी सच्चरित्रता में वृद्धि होती है।


 सवाल यह उठता है कि इस उत्सव का नाम नवरात्र क्यों पड़ा? नवदिन क्यों नहीं? शिवरात्रि क्यों? शिवदिन क्यों नहीं?  इसका अर्थ यही है कि रात्रि का कोई न कोई रहस्यमयी विशेषता अवश्य है! हमारे पूर्वज मनीषियों को विदित था कि रात्रि में प्रकृति के तमाम अवरोध समाप्त हो जाते हैं आप स्वयं विचार कीजिये कि यदि दिन में आवाज दी जाए तो उसकी पहुँच बहुत दूर तक नहीं होगी किन्तु रात्रिकालीन आवाज दूरगामी होती है।वैज्ञानिक तथ्य यह कहता है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की और रेडियो की तरङ्गों को रोक देता है।ठीक इसी प्रकार दिन में किये गए मन्त्र-जाप की तरङ्गों में रुकावट पैदा होती है,इसीलिए दिन की अपेक्षा रात्रि का महत्त्व अधिक है। मन्त्रों की तरङ्गें, घण्टा एवं शङ्ख की तरङ्गें वातावरण में व्याप्त कीटाणुओं को नष्ट करने में कारगर होती हैं। 

इस प्रकार नवरात्र-उत्सव विजय,उत्साह और शक्ति का प्रतीक है। उत्तम स्वास्थ्य एवं मानसिक शांति प्रदान करने वाला है। व्रत,उपासना,यज्ञादि कर्म करने से सात्त्विकता आती है, कुत्सित विचारों से छुटकारा मिलता है तथा समाज में अपराध एवं अनैतिक घटनाएँ घटित होने की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं।

#फ़ोटो साभार गूगल

                          ✍️ अनुज पण्डित

                       

Sunday, October 3, 2021

द्रोणवध के बाद का एक प्रसङ्ग और कर्ण-अश्वत्थामा विवाद

द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने गुरु द्रोण को बाल पकड़कर घसीटा,उनका शिरच्छेदन करके परलोक भेज दिया। द्रोण का सारथि अश्वसेन भागता हुआ अश्वत्थामा के पास आता है और सारी कहानी बताता है । अश्वत्थामा को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि परशुराम से शिक्षा प्राप्त किये हुए, तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी मेरे पिता अब इस धरती पर नहीं रहे! 


सारथि ने बताया कि सत्यवादी पृथापुत्र युधिष्ठिर ने तीव्र स्वर में कहा कि -'अश्वत्थामा मारा गया'.... शेष वाक्यांश 'हाथी' को दबे स्वर में उच्चारा। युधिष्ठिर की बात पर पूर्ण विश्वास करके आपके तात अस्त्र-शस्त्र छोड़कर अश्रुपात करने लगे। पुत्र-वियोग में वे इतने अधीर हो गए कि उन्हें अपने देह की भी सुध न रही। इसी अवसर का लाभ उठाकर धृष्टद्युम्न ने बेरहमी से उन्हें मृत्यु को सौंप दिया।
अश्वत्थामा पिता की मृत्यु से उपजे शोक को बर्दाश्त न कर सका और स्वयं प्राण छोड़ने की ठान  ली। अश्वसेन और आचार्य कृप उसे समझाते हैं कि आप जैसे प्रचण्ड वीर को इस तरह की कातरता शोभा नहीं देती।  कृपाचार्य खिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं कि निःशस्त्र आचार्य द्रोण की ऐसी दर्दनाक दशा देखने वाले तथा कुरुसभा में द्रौपदी का मानमर्दन देखने वाले तथाकथित शूरवीरों को धिक्कार है। 

केश पकड़कर घसीटने की दो-दो घटनाएँ घटित हो गयीं, जिनमें से पहली का परिणाम तो महाभारत-सङ्ग्राम बनकर सामने ही खड़ा है, अब दूसरी घटना से उपजे,  अश्वत्थामा के क्रोध से इस विनाश को भला कौन बचाएगा!

अश्वत्थामा क्रोध में आकर कहता है-
"उस दुष्ट धृष्टद्युम्न ने , जीते जी मेरे पिता के शिर का स्पर्श नहीं किया बल्कि मेरे शिर पर पैर रखा है।" वह सारथि को रथ लाने का आदेश देता है और कहता है कि उन सबको मौत के मुँह में भेजूँगा जो मेरे पिता की नृशंस हत्या के मूकदर्शक बने रहे। जिस प्रकार सहस्रबाहु द्वारा पिता के शिर का स्पर्श करने के परिणामस्वरूप परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश किया, उसी प्रकार यह अश्वत्थामा भी आज शत्रुओं के शोणित से पितृतर्पण करेगा।

कृपाचार्य उसे समझाते हैं कि निश्चय ही आपमें प्रतिकार लेने की क्षमता है किंतु इस तरह से नहीं। हम सब आपको सेनापति-पद पर सुशोभित करके समरांगण में उतारना चाहते हैं क्योंकि गंगापुत्र और  द्रोणहीन कौरव सेना वास्तव में सेना न हो सकेगी!

अश्वत्थामा मान जाता है और कृप के साथ वहाँ जाता है जहाँ मित्र कर्ण संग दुर्योधन बैठा था। अश्वत्थामा को सान्त्वना प्रदान करते हुए दुर्योधन कहता है कि "मनुष्य अपने स्वभाव को बड़ी कठिनता से छोड़ पाता है, यही कारण है कि शोकान्ध आचार्य द्रोण ने क्षत्रिय धर्मोचित कर्कशता को छोड़कर ब्राह्मण-सुलभ दीनता को अपना लिया।"

इतने में कर्ण बोल पड़ता है कि हे मित्र! वास्तव में बात ऐसी नहीं है बल्कि यह है कि गुरु द्रोण अपने पुत्र को भूपति के पद पर देखना चाहते थे।अब जब उन्होंने सुना कि अश्वत्थामा रहा ही नहीं तो किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मैं शस्त्र-धारण करूँ! बस यही कारण था कि उन्होनें शस्त्र-त्याग कर दिया। दुर्योधन कर्ण की बात पर सहमति देता है। कर्ण आगे कहता है कि बचपन से ही इनके अभिप्राय को द्रुपद जानता था तभी तो अपने राज्य में इन्हें ठहरने नहीं दिया।

कृपाचार्य, अश्वत्थामा को सेनापति बनाये जाने की राय दुर्योधन को देते हैं किंतु दुर्योधन यह कहकर टाल देता है कि यह पद तो अंगराज के लिए निश्चित् किया जा चुका है!  अश्वत्थामा कहता है कि हे कौरवेश्वर! क्या अब भी कुछ विचार करने योग्य रह गया है? आज संसार पाण्डवशून्य तथा केशवहीन हो जाएगा,आज बाहुवीरों की युद्ध कथा समाप्त हो जाएगी।


अश्वत्थामा की इस बात पर कर्ण को हँसी आ जाती है और वह कहता है कि हे द्रोणपुत्र! यह कहना आसान है,कर पाना कठिन। आपके अतिरिक्त और भी वीर कौरवदल में हैं जो यह कर सकते हैं किंतु सम्भव कहाँ हो पा रहा है! अरे मूर्ख! दुःखी व्यक्ति  मात्र आँसू बहा सकता है, युद्ध में कूद नहीं सकता।

कर्ण की इस तीखी बात को सुनकर अश्वत्थामा क्रोध से भर जाता है और प्रत्युत्तर में कहता है-
"अरे नीच! राधा-गर्भ का बोझ!नीच सूत! मैं तुम्हारे जैसा कायर नहीं कि युद्ध छोड़कर भाग आऊँ।मेरे आयुध तेरे आयुधों की तरह गुरुशाप के कारण निस्तेज नहीं।
कर्ण पलटवार करते हुए-
"अरे वाचाट! मैं बलहीन हूँ अथवा बलयुक्त, कम से कम तुम्हारे पिता के समान डरकर आयुधों का परित्याग तो नहीं किया!"

"मैं सूतपुत्र हूँ अथवा जो कुछ भी हूँ..! कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है, पौरुष तो मुझपर ही निर्भर है!"
राधेय और अश्वत्थामा का विवाद इस कदर बढ़ जाता है कि अश्वत्थामा यह चुनौती तक दे डालता है कि रे राधेय! बाहुबल के अभिमान से फूले तेरे शिर पर मैं यह बायाँ पैर मार रहा हूँ,इसे रोककर दिखाओ।
 

कृपाचार्य और दुर्योधन दोनों को पकड़ते हैं और शांत रहने को कहते हैं। कर्ण क्रोध में कहता है कि अरे नीच ब्राह्मण! जाति से तू नितांत अवध्य है किन्तु इस मुझ पर प्रहार करने के उद्देश्य से उठाई हुई तुम्हारी इस लात को तुम खड्ग से कटी हुई,भूमि पर पड़ी देखोगे।


अश्वत्थामा के क्रोध का पारावार चढ़ जाता है और कहता है कि "यदि जाति के कारण मैं अवध्य हूँ तो यह लो,मैं अपना यज्ञोपवीत तोड़ देता हूँ,छोड़ दी मैंने अपनी जाति। अब अर्जुन की तुझे मारने की प्रतिज्ञा झूठी करनी होगी मुझे क्योंकि तेरा वध मेरे हाथों होना सुनिश्चित हो चुका है। अब या तो शस्त्र उठाओ या फिर क्षमा-याचना करो।"

दोनों एक-दूसरे पर प्रहार करने को उद्यत होते हैं किंतु कृपाचार्य और दुर्योधन बीच-बचाव कर देते हैं।

                     ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...