Thursday, March 4, 2021

कन्यादान का वास्तविक अर्थ और महत्त्व

हिन्दू विवाह-पद्धति में  विवाह की समस्त रस्मों में से एक विशेष रस्म 'कन्यादान' भी है। ऐसी सामाजिक मान्यता है कि बिना कन्यादान किये माता-पिता को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। 

मेरा मानना है कि कन्यादान के पीछे इस तरह की मान्यता को गढ़ने की खास वजह इसलिए है,ताकि कोई भी माँ-बाप बेटियों को बोझ न समझे, ताकि हर घर में कम से एक बेटी की कामना लोगों के दिल में रहे। यह मान्यता बेटियों का मान-सम्मान ही बढ़ाती है न कि  उन्हें उपेक्षित करती! इसीलिए जिस दम्पति की गोद  बेटी से वंचित रहती है, वे अपने सगे-सम्बन्धियों की बेटियों का कन्यादान कर अपने जीवन को धन्य समझते हैं।


मॉडर्न पीढ़ी के कुछ तथाकथित दिमागदार और फेमिनिस्ट कन्यादान को यह कहकर खारिज कर देते हैं कि कन्या कोई दान की वस्तु नहीं। उनका यह कहना अनुचित नहीं किन्तु उन्हें कन्यादान का सटीक और वास्तविक अर्थ ज्ञात ही नहीं है। और बिना ठोस तथ्यों के आधार पर किसी भी रस्म या परम्परा का विरोध करना महज मूढ़ता ही है।

वास्तव में कन्यादान शब्द का अर्थ "कन्या का दान" नहीं बल्कि "कन्या के लिए दान" है। जिन लोगों को संस्कृत व्याकरण और समास का ज्ञान होगा, वे इसका विग्रह "कन्यायै दानम्" ही करेंगे,जिसका अर्थ होगा-"कन्या के लिए दान।" 


दरअसल कन्या विदा करने के समय पिता अपनी बेटी के लिए सहयोग रूप में जो धन-धान्य आदि सामग्री प्रदान करता है उसी को कन्यादान कहा जाता है इसीलिए जब कोई दम्पति किसी दूसरे की बेटी का कन्यादान करता है तो उस बेटी के विवाह का समस्त खर्च भी वहन करता है। यदि कन्यादान का अर्थ कन्या का दान समझेंगे तो कोई दूसरे की बेटी का दान कैसे कर सकता है? दान तो अपनी निजी संपत्ति या वस्तु का किया जाता है! इसलिए स्पष्ट है कि कन्या के लिए दिए गए भेंट-स्वरूप धन का ही मुख्य नाम कन्यादान है।

अथर्ववेद 1/14 प्रथम काण्ड में चार सूक्त विवाह से सम्बंधित मिलते हैं जिनमें से एक सूक्त में पिता अपने दामाद से कहता है कि-" हे राजन्! यह कन्या मैं तुम्हारे कुल को पवित्र करने हेतु सौंप रहा हूँ।" सौंपी गयी प्रत्येक वस्तु का अर्थ दान करना नहीं होता। 

दान शब्द का अर्थ बेशक देना-प्रदान करना होता है किंतु देने का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। एक दान वह है जिसमें दान की गई वस्तु पर देने वाले का कोई अधिकार नहीं रह जाता। जैसे ब्राह्मण को गाय दान में दे दी जाए तो देने वाले का कोई अधिकार गाय पर नहीं रहता किन्तु यदि धोबी  को कपड़े दान किये जायें अर्थात् दे दिए जाएँ तो धोबी आपको कपड़ों को धुलकर वापस करेगा न कि अपना अधिकार समझकर जब्त कर लेगा। 


इसी तरह बेटी भी विवाह के बाद माता-पिता और स्वजनों से जुड़ी रहती है, उसका आना-जाना बना रहता है, पिता पक्ष यथावसर बेटी के सुख-दुःख में खड़े भी होते हैं। यदि बेटी का दान कर दिया जाता तो किसी का अधिकार उस पर नहीं रहता। ससुराल पक्ष वाले जो चाहें सो करें किन्तु वास्तव में कन्या का दान नहीं बल्कि कन्या के लिए दान किया जाता है।

आपस्तम्ब सूत्र में भी लिखा है कि- "यथादानं क्रयविक्रयधर्माश्चापत्यस्य न विद्यते।"-अर्थात् संतान का क्रय-विक्रय करने की नसीहत शास्त्र नहीं देते। 


सनद रहे कन्या के लिए दिया जाने वाला धन दहेज की श्रेणी में नहीं आता। दहेज वह है जिसकी माँग वरपक्ष ,वधूपक्ष से करता है। स्वेच्छा से बेटी के सहयोगार्थ अपनी खुशी से एक पिता जो दान करता है, दरअसल वह ही कन्यादान है न कि दहेज। 

इस प्रकार जरूरत है दान शब्द के अर्थ और उसका प्रयोग जानने की। सनातन की कोई भी परम्परा या रस्म इतनी कच्ची नहीं कि जो चाहे उसे तोड़-मरोड़ कर समाज में प्रस्तुत करके उसका उपहास या विरोध करता फिरे!  समाज ने,शास्त्रों ने बेटा और बेटी को समान महत्त्व प्रदान किये हैं। यदि पुत्र ,पिता को नरक से बचाता है तो पुत्री  उसे मोक्ष  दिलाती है।

✍️ अनुज पण्डित

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