🍂भारतीय सभ्यता के धरोहर उपनिषदों के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आख़िर ऐसी कौन सी आफ़त आन पड़ी थी कि उपनिषदों को रच डाला गया। इस बात का पता लगाने हेतु आपको ले चलता हूँ वैदिक युग में जहाँ न दुःख था,न अवसाद और न ही मानसिक असंतुष्टि।
वैदिक काल के लोगों का जीवन अत्यंत खुशहाल,मनोरंजक और चिंतामुक्त था। यूँ कह लीजिए कि वैदिक युग सांसारिक सुखों के उपभोग का युग था। भावनाओं का आधिक्य,भोलापन,निश्चिंतता और स्वभाव में अल्हड़पन उस समय के लोगों का मानो जीवनध्येय था। प्रकृति अपने सभी रंगों से सुसज्जित पूर्ण यौवन पर थी। उस प्रकृति को देखकर लोगों के मन में आनन्द का संचार स्वत: उमड़ने लगता था और लोग खुशी से नाचते-झूमते थे।
प्रकृति की मनोहारिता को निहारकर अन्तस् में जो आनन्द उमड़ता वही शब्द बनकर प्रस्फुटित होने लगा। इन शब्दों को लोगों ने स्तुति,प्रशंसागीत और काव्यरचनाओं में ढाला। इन गीतों में ईश्वर के प्रति यह प्रार्थना थी कि हम सभी जीव खुशी-खुशी सौ वर्ष तक जियें,हमारा आनन्द कभी क्षीण न होने पाए। इन गीतों के माध्यम से स्वर्ग जाने की इच्छा और वहाँ सुखपूर्वक रहने की कामना करते हुए लोगों ने विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अनेक यज्ञ-अनुष्ठान किये। अनुष्ठान द्वारा वे देवताओं से अपनी खुशहाली एवं सुख-समृद्धि की याचना करते थे। ये देवता कोई और नहीं बल्कि प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों के संवाहक और नियंत्रक ही थे।
जब प्रकृति करवट लेती थी तो विपदाओं का अंबार लग जाता था। इन्हीं विपदाओं से निपटने हेतु लोगों ने प्रकृति के देवताओं को प्रसन्न किया ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे और मानवजीवन खतरे में न आये!
आज भी वही हो रहा है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और विभिन्न संक्रामक रोगों ने हमें घेर लिया है। आज भी प्रकृति के देवताओं अग्नि,मरुत,पृथ्वी,वरुण आदि का महत्त्व समझना अत्यधिक आवश्यक है। प्रकृति से प्रेम करने की जरूरत है तथा जीवन को प्रकृति के साथ चलाने की जरूरत है। ये गीत और स्तुतियाँ ऋचाओं में तब्दील हो गए और तैयार हो गया दुनिया का सबसे पहला ग्रन्थ वेद।
दुःख,संताप और चिंता से रहित वैदिक युग के लोगों की जीवनशैली लम्बे समय तक अनवरत चलती रही किन्तु आखिर ऐसा कबतक चलता! हमेशा तो एक जैसी स्थिति रहती नहीं! अब लोगों के मन में कुछ प्रश्न उपजने लगे।जैसे- इस व्यवस्थित प्रकृति का संचालक कौन है? सृष्टि का निर्माता कौन है? हम कौन हैं और अंत में यह संसार कहाँ जाएगा? इस तरह के प्रश्नों ने लोगों के दिमाग को झकझोरा तो लोगों ने इनका जवाब पाने के लिए अपने मस्तिष्क पर जोर डाला कुछ लोगों की चिन्तनशैली में व्यापकता आयी। ऐसा करने से वे जीवनचक्र को धीरे-धीरे समझने लगे और यह कल्पना करने लगे कि क्या जीवन में सिर्फ सुख ही सुख है? दुःख का कोई स्थान नहीं? तब उनके मन ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं है।
जीवन सुख और दुःख दोनों स्थितियों का नाम है। लोगों के मन में जो भी प्रश्न आते उनका जवाब सिर्फ "न" ही आता। बस इसी "न" से शुरुआत हुई उपनिषदों की।
✍️ अनुज पण्डित
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