Wednesday, December 22, 2021

क्या सच में स्वभाव को बदलना असम्भव है?

निसर्ग,प्रकृति और स्वभाव - ये लगभग एक दूसरे के पर्याय हैं। पानी का स्वभाव  है-शीतलता, अग्नि का उष्णता और मधु का मधुरता। 

स्वभाव सहज होता है, प्राकृतिक होता है। कोई चाहकर भी इसे बदल नहीं सकता। यदि कोई व्यक्ति स्वभाव से ही क्रोधी है तो वह सदा क्रोध ही करेगा। जैसे- महर्षि दुर्वासा निसर्गत: क्रोधी थे। वे भले ही प्रयास करते रहे हों कि क्रोध न करें किन्तु रोक नहीं पाते थे।
ऐसा ही स्वभाव था लंकाधिपति रावण का। वह स्वयं ज्ञानी था,सबकुछ समझता था किंतु किसी के समक्ष न झुकना उसका मूल स्वभाव था। नाना माल्यवान उसे बहुत समझाते थे कि श्रीराम से बैर त्याग दो किन्तु रावण उनकी एक न सुनता था। एक दिन माल्यवान ने कहा कि-
"लंकेश! तुम इतने विद्वान् और समझदार होकर भी मेरी सिखावन को नहीं मानते! जबकि तुम ख़ुद भी जानते हो कि मैं ठीक कह रहा हूँ!"

इस पर रावण ने कहा कि-
"नानाश्री! मैं जानता हूँ कि आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, आपकी बात मेरे हित में है किंतु मैं क्या करूँ? मैं अपने स्वभाव से मजबूर हूँ और मेरा स्वभाव यह है कि भले ही मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जायें किन्तु मैं किसी के सामने झुकूँगा नहीं।"

द्विधा भज्येयमप्येवं न नमेयं तु कस्यचित् ।

एष मे सहजो दोष: स्वभावो दुरतिक्रम:।।

                                - वा. रा.-6/36/11

रावण कहता है कि यह मेरा स्वाभाविक दोष है और स्वभाव को परिवर्तित नहीं किया जा सकता।


इसका एक दृष्टांत और भी सुनने को मिलता है कि कोई सन्त थे। उन्होंने देखा कि एक बिच्छू नदी में गिर गया है।वे उसे बचाने के उद्देश्य से निकालते हैं किंतु बिच्छू उन्हें डंक मार देता है, जिससे उनके हाथ से छूटकर बिच्छू पुनः पानी में गिर जाता है। उन्होंने बार-बार बिच्छू को बचाना चाहा किन्तु बिच्छू बार-बार उन्हें डंक मार देता। यह देखकर उनके शिष्य ने पूछा कि गुरुदेव! वह आपको बार-बार डंक मार रहा है फिर भी आप उसे बचाना क्यों चाहते हैं?

इस पर सन्त ने कहा कि-"बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और मेरा स्वभाव है बचाना। हम दोनों अपना-अपना कार्य कर रहे हैं।"



स्वभाव हम हमारा गुण बन जाये तो हमें उच्चता देता है किंतु रावण की तरह दोष बन जाये तो हानि ही करवाएगा।
                         ✍️ अनुज पण्डित

Monday, December 6, 2021

डॉ.मण्डलीक को मिला संस्कृत का 'विविध पुरस्कार'

संस्कृत-जगत् के मूर्धन्य विद्वान्,ज्योतिष रत्नाकर,निखिल भारतीय संस्कृत परिषद् के अध्यक्ष,आदरणीय गुरुदेव डॉ.अभिषेक कुमार त्रिपाठी 'मण्डलीक' जी किसी परिचय के मोहताज नहीं। 

प्रयागराज की पावन धरा पर पिछले दो दशकों से आप संस्कृत की सेवा करते हुए विभिन्न प्रतियोगी छात्रों को अपने ज्ञान से अभिसिंचित कर रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप आपके पढ़ाये हुए छात्र देश-प्रदेश के विभिन्न शैक्षणिक एवं प्रशासनिक पदों पर प्रतिष्ठित हैं।

संस्कृत के प्रति आपकी निष्ठा और रचनात्मकता की प्रशंसा करते हुए "उत्तर प्रदेश संस्कृतसंस्थान, लखनऊ" की विद्वत्सभा ने आपको, आपकी मौलिक कृति "स्त्रीप्रत्ययप्रयोगविमर्श" के लिए विविध-पुरस्कार  के अन्तर्गत  एकादश सहस्र रुपये का पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया है। इस महती उपलब्धि हेतु आपको अनन्त बधाईयाँ।


ध्यातव्य है कि आप वर्तमान में सरस्वती परमानंद सिन्हा इंटर कॉलेज, सरस्वतीपुर, प्रयागराज में प्रधानाचार्य पद पर सुशोभित हैं।

आपकी अन्य पुस्तकें जैसे-समासप्रयोगसमुच्चय, चिन्तनसरणि तथा दूतवाक्यम् आदि भी प्रकशित हो कर संस्कृत प्रेमियों को लाभान्वित कर रही हैं।

                                 ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...