आत्मा एवं शरीर में यदि प्रधानता तथा गौणता की बात करें तो आप किसे क्या कहेंगे? कुछ कहेंगे आत्मा प्रधान है जी! और कुछ इसके उलट शरीर को प्रधान कहेंगे किन्तु इसके पीछे के तर्क क्या होंगे? मैं तो शरीर को गौण ही कहूँगा क्योंकि यह नश्वर है। अस्थि,रक्त और मज्जा का ढांचा मात्र यह शरीर बिना आत्मा के निष्क्रिय है। अब निष्क्रिय वस्तु भला प्रधानता कैसे हासिल कर सकती है!
आत्मा की प्रधानता स्वयं सिद्ध है। तीनों कालों में सदा विद्यमान और अप्रभावित रहने वाला आत्मा कथमपि गौण हो सकेगा! भगवद्गीता के उद्धरण याद कीजिये जिनमें योगेश्वर कृष्ण ने इसे अविनाशी, अजन्मा और निर्विकारी कहकर इसकी शाश्वत सत्ता सिद्ध की है। मजे की बात यह कि जो प्रधान नहीं है (अर्थात् शरीर),उसकी रक्षा,साज-सज्जा तथा चिन्ता में प्राणी कोई कसर नहीं छोड़ता। वह इसको टिकाऊ बनाने की जुगत में इतना व्यस्त है कि आत्मतत्त्व की उसे सुध ही नहीं रही।
शायद प्राणी की शरीर के प्रति चिन्ता उचित है क्योंकि उसे ज्ञात है कि पंचमहाभूतों के सन्निपात से बना यह देह प्रत्येक क्षण परिवर्तनशील है। यदि समय-समय पर इसकी सेवा-सुश्रुषा न की जाएगी तो समय से पहले ही यह देही से स्वयं को अलग कर लेगा। आत्मा का क्या है! वह तो किसी प्रकार की अपेक्षा ही नहीं रखता,जरा-मरण तथा दुःखत्रय का भय उसे नहीं इसलिए प्राणी उसकी ओर से चिन्तामुक्त रहा करता है।
इस प्रकार के तर्कों से तो आत्मा की प्रधानता सिद्ध हो जाती है किन्तु आत्मा का अस्तित्व तभी है, जब वह भौतिक शरीर में रहेगा। उसे किसी न किसी देह की कामना होती है ताकि उसकी भी सक्रियता बनी रहे। देह और देही-ये दोनों एक दूजे पर आश्रित हैं।
✍️ अनुज पण्डित