Sunday, June 11, 2023

उपनिषद्-चर्चा-भाग-9 ( मुण्डकोपनिषद्)

अथर्ववेद से सम्बन्धित यह उपनिषद् दो दो खण्डों के तीन मुक्तकों में विभाजित है ।पदार्थ, ब्रह्मविद्या तथा आत्मा-परमात्मा इसके वर्ण्य विषय हैं।इसमें ऋषि अंगिरा तथा उनके शिष्य शौनक का संवाद दिखाया गया है।जगत्कर्ता ब्रह्मा,अथर्वा, अंगी  सत्यवह तथा अंगिरा की "ब्रह्मविद्या" की आचार्य परम्परा थी । शौनक ने जिज्ञासा की कि किस तत्त्व के जान लेने पर सबकुछ अवगत हो जाया करता है?इस जिज्ञासा के शमन हेतु अंगिरा ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। विद्या के दो भेद परा और अपरा करने के बाद अपरा को वेद-वेदाङ्ग से जोड़ा तथा परा को को उस ज्ञान से जोड़ा जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है-"तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद:सामवेदोsथर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।"

इस उपनिषद् में परमात्मा द्वारा अपने अंदर से विश्वनिर्माण का वर्णन है। उदाहरण स्वरूप कहा गया -"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्न: पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।" अर्थात् एक पेड़ पर दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी बैठे हैं।एक फल को खा रहा है,दूसरा उसे खाता देख रहा है। यहाँ पेड़ प्रकृति है जिसे एक पक्षी भोग रहा है,उसे आत्मा के समान माना गया है और दूसरा जो खाते हुये देख रहा है उसे परमात्मा के समान माना गया है,जो भोग तो नहीं करता किन्तु देखता रहता है ।

इसी उपनिषद् का मंत्र "सत्यमेव जयते" भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है ।पूरा मंत्र इस प्रकार है-

सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयान:।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।

"जयते"प्रयोग व्याकरणिक दृष्टि से अशुद्ध है।"सत्यमेव जयति" ही शुद्ध रूप है।

ब्रह्मा ने जो ब्रह्मविद्या अथर्वा ऋषि को दी,वही ब्रह्मविद्या अथर्वा ने अङ्गी ऋषि को ट्रान्सफर कर दी,अङ्गी ने सत्यवह को और सत्यवह ने अङ्गिरा ऋषि को प्रदान की ।एक ऋषि हुए-शौनक जो एक विशाल विश्वविद्यालय के कुलपति हुआ करते थे। पुराणों के अनुसार उनके ऋषिकुल में अट्ठासी हजार ऋषि हुआ करते थे। उन सबने अङ्गिरा ऋषि से निवेदन किया कि भगवन्! वह कौन-सा परमतत्त्व है जिसके जान लेने पर सब जान लिया जाता है! तब अङ्गिरा बोले कि मनुष्य को जानने के लिए दो विद्याएँ हैं-,परा और अपरा।

जिसके द्वारा परब्रह्म अविनाशी परमात्मा का तत्त्वज्ञान होता है,वह परा विद्या है। उसका वर्णन वेदों में है। इतना अंश छोड़कर  अन्य समस्त वेद और वेदाङ्गों को अपरा विद्या के अन्तर्गत रखा गया है।जिसके द्वारा लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों तथा उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त हो,वह अपरा विद्या है । समस्त ऋषि बोले कि अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर है कैसा? तो अङ्गिरा ने बताया कि वे परमेश्वर ज्ञानेंद्रियों द्वारा ज्ञेय नहीं हैं और न ही कर्मेन्द्रियों द्वारा पकड़ में आते।वे गोत्र आदि उपाधियों से रहित हैं,वर्ण,रंग,आकृति से भी रहित हैं। अत्यंत सूक्ष्म,व्यापक,अन्तरात्मा रूप से सबमें फैले हुए हैं। वे कभी नाश को प्राप्त नहीं होते, सर्वथा नित्य भी हैं। वे समस्त प्राणियों के कारण हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हैं।

◆वे परमेश्वर समस्त प्राणियों के कारण कैसे हैं,समस्त जगत् उनसे किस प्रकार उत्पन्न होता है?

अङ्गिरा ने उत्तर में पहले  समझाया कि जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट में स्थित जाले को बाहर निकालकर फैलाती है और फिर उसे निगल जाती है,उसी प्रकार वह परब्रह्म अपने भीतर सूक्ष्म रूप से लीन हैं और प्रलयकाल में पुनः उसे अपने में लीन कर लेते हैं। यही बात भगवद्गीता(अध्याय-९,श्लोक-७)  में कही गयी है-

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तादि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।

दूसरे उदाहरण के द्वारा यह बात समझायी कि जिस प्रकार पृथ्वी में अन्न, तृण, वृक्ष,लता आदि ओषधियों के बीज पड़ते हैं,उसी प्रकार भिन्न-भिन्न भेदों वाली ओषधियाँ वहाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उसी प्रकार जीवों के कर्म रूप बीजों के अनुसार ही भगवान् उनको भिन्न-भिन्न योनियों में पैदा किया करते हैं। अर्थात् उनमें किसी भी प्रकार की विषमता और निर्दयता का दोष नहीं रहता।

                               ✍️ अनुज पण्डित
                               

फ़िल्म आदिपुरुष

🍂आदिकाव्य रामायण के बाद जितने भी महाकाव्य लिखे गये, वे सब तो कहीं न कहीं कथानक की दृष्टि से रास आते हैं। कोई न कोई नवीन दृष्टिकोण समक्ष आता है। कहीं न कहीं राम की मर्यादा को भी मण्डित करते नजर आते हैं किंतु रामानन्द सागर निर्मित धारावाहिक रामायण के पूर्व और उत्तरवर्ती जितने भी रामपरक  धारावाहिक,फिल्म्स और वेबसीरीज आयीं,सब की सब फिसड्डी हैं।रामानन्द सागर ने जनमानस में रामायण की कहानी,दृश्य और पात्रों को इस तरह पैवस्त कर दिया है कि अब कोई रामपरक दृश्य नहीं सुहाता।

आदिपुरुष के टीजर को लेकर पहले ही काफ़ी निराशा देखने को मिली है। जनमानस के लिए कहीं से भी कथानक,दृश्य और पात्रों का कॉस्ट्यूम फिट बैठते नजर नहीं आते। तकनीकी प्रयोग ने इस  फ़िल्म को रामकथा कम,कार्टूनिस्ट अधिक बना दिया है। न तो पात्रों के परिधान उपयुक्त हैं ,न ही संवाद और न ही वह सौम्यता दिखती है जो एक मर्यादित और सौम्य राम की विशेषता है ।हनुमान् को देखकर रंचमात्र भी वह भाव नहीं उठता जो दारा सिंह को देखकर उठता है। 

ढाई-तीन मिनट के ट्रेलर में मैं प्रभास के चेहरे पर वह स्मित मुस्कान तलाश रहा था जो अरुण गोविल ने दी। वनवासी राम लक्ष्मण और सीता कहीं पर भी वल्कल वस्त्र पहने नहीं दिखते। परिधान देखकर लगता है कि पात्रों को चर्मवस्त्र पहना दिया गया है! सनातन से जुड़े किस्से,कहानियाँ सामने आनी चाहिए किन्तु वे अच्छी प्रकार संस्कारित तो हों! मुझे नहीं लगता कि जिन लोग ने रामानन्द सागर की रामायण का रसपान किया है,उन्हें यह फ़िल्म एक कार्टून से अधिक कुछ लगेगी! हाँ, नई पीढ़ी अवश्य राम कथा से सम्बंधित इस फ़िल्म के मुताबिक धारणा बना लेगी।
                  ✍️ अनुज पण्डित

धर्म एवं अध्यात्म

🍂जब आप अपने आप को किसी धर्म के साथ जोड़ते हैं तो आप खुद को विश्वास करने वाला मान बैठते हैं किन्तु जब आप कहते हैं कि मैं "आध्यात्मिक मार्ग पर हूँ" तो आप स्वयं को जानने की इच्छा रखने वाला,जिज्ञासु कहते हैं। विश्वास,जानने,जिज्ञासा करने तथा खोजने में क्या अंतर है?आप वही खोजते हैं जिसे आप जानते नहीं। खोजने और जानने की प्रकिया में मूल बात यह है कि आपने यह समझ लिया है कि आप अपने जीवन के मूल स्वभाव को नहीं जानते।आपको नहीं ज्ञात कि आप कहाँ से आये हैं?,कौन हैं?,क्या हैं? और कहाँ को जायेंगे? आप जानना चाहते हैं या जानने की कोशिश करते हैं। जब आप "मैं नहीं जानता" कि अवस्था में हैं तब आप किसी के साथ झगड़ा नहीं कर सकते!

कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा है! चाहे कृष्ण हों,जीसस हों,बुद्ध या किसी और ने कहा हो।हो सकता है कि वे सत्य ही कह रहे हों और उनके लिए हमारे भीतर पूरा सम्मान हो! पर आप नहीं जानते,आपने इन्हें देखा नहीं है,आपने इसका अनुभव नहीं किया है।आप पूरी तरह ईमानदार क्यों नहीं हो सकते?आप नहीं जानते।मैं नहीं जानता-में एक जबरदस्त संभावना है-जानने का आधार।जब आप मानते हैं कि आप नहीं जानते तभी जानने की सम्भावनाएँ खुलती हैं।जैसे ही आप इस संभावना को अपने विश्वास से तोड़ देते हैं तो आप जानने की समस्त संभावनाओं को खत्म कर देते हैं।
                     
आप ऊपर देखते हैं,नीचे देखते हैं,पूरब या पश्चिम देखते हैं या आप अपने चारों ओर देखते हैं ,इससे कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू नहीं होती।आध्यात्मिक प्रक्रिया तब शुरू होती है,जब आप अंदर की ओर देखते हैं।जो अंदर है,उसका कोई आयाम नहीं है और बिना आयाम की चीज तक वही पहुँच सकता है जो अपने  भीतर बिलकुल ईमानदार हो।आपको दूसरों के लिए ईमानदार होने को नहीं कहा जा रहा है।इसमें बहुत सी समस्याएँ हो सकती हैं।
                     ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...