🍂जब आप अपने आप को किसी धर्म के साथ जोड़ते हैं तो आप खुद को विश्वास करने वाला मान बैठते हैं किन्तु जब आप कहते हैं कि मैं "आध्यात्मिक मार्ग पर हूँ" तो आप स्वयं को जानने की इच्छा रखने वाला,जिज्ञासु कहते हैं। विश्वास,जानने,जिज्ञासा करने तथा खोजने में क्या अंतर है?आप वही खोजते हैं जिसे आप जानते नहीं। खोजने और जानने की प्रकिया में मूल बात यह है कि आपने यह समझ लिया है कि आप अपने जीवन के मूल स्वभाव को नहीं जानते।आपको नहीं ज्ञात कि आप कहाँ से आये हैं?,कौन हैं?,क्या हैं? और कहाँ को जायेंगे? आप जानना चाहते हैं या जानने की कोशिश करते हैं। जब आप "मैं नहीं जानता" कि अवस्था में हैं तब आप किसी के साथ झगड़ा नहीं कर सकते!
कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा है! चाहे कृष्ण हों,जीसस हों,बुद्ध या किसी और ने कहा हो।हो सकता है कि वे सत्य ही कह रहे हों और उनके लिए हमारे भीतर पूरा सम्मान हो! पर आप नहीं जानते,आपने इन्हें देखा नहीं है,आपने इसका अनुभव नहीं किया है।आप पूरी तरह ईमानदार क्यों नहीं हो सकते?आप नहीं जानते।मैं नहीं जानता-में एक जबरदस्त संभावना है-जानने का आधार।जब आप मानते हैं कि आप नहीं जानते तभी जानने की सम्भावनाएँ खुलती हैं।जैसे ही आप इस संभावना को अपने विश्वास से तोड़ देते हैं तो आप जानने की समस्त संभावनाओं को खत्म कर देते हैं।
आप ऊपर देखते हैं,नीचे देखते हैं,पूरब या पश्चिम देखते हैं या आप अपने चारों ओर देखते हैं ,इससे कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू नहीं होती।आध्यात्मिक प्रक्रिया तब शुरू होती है,जब आप अंदर की ओर देखते हैं।जो अंदर है,उसका कोई आयाम नहीं है और बिना आयाम की चीज तक वही पहुँच सकता है जो अपने भीतर बिलकुल ईमानदार हो।आपको दूसरों के लिए ईमानदार होने को नहीं कहा जा रहा है।इसमें बहुत सी समस्याएँ हो सकती हैं।
✍️ अनुज पण्डित
No comments:
Post a Comment