Monday, July 15, 2024

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भजन' भी कहते हैं, इसलिए 'भजना' भी भक्ति ही है। इष्ट के प्रति अनुराग ही भक्ति है। यह नौ प्रकार की कही गयी है। सतयुग में भक्त प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु को नवधा भक्ति का जो उपदेश दिया उसका उल्लेख भागवतमहापुरण में है-

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
             -श्रीमद्भागवतमहापुराण-7/5/23

भक्ति के उक्त नौ प्रकारों में श्रवण किया था राजा परीक्षित ने,कीर्तन शुकदेव जी,स्मरण प्रह्लाद,पादसेवन(चरणों की सेवा) लक्ष्मी,अर्चन राजा पृथु,वन्दन अक्रूर,दास्य हनुमान्,सख्य अर्जुन,तथा आत्मनिवेदन वाली भक्ति राजा बलि ने की थी।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने माँ शबरी को जिस नवधा भक्ति का उपदेश दिया था,वह प्रह्लाद की नवधा भक्ति से भिन्न है, जो इस प्रकार हैं-

प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा।
दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा।

गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि मान।

मन्त्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकाशा।

छठ दम शील बिरति बहु कर्मा।
निरत निरंतर सज्जन धर्मा।

सातवँ सम मोहि जग देखा।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा।

आठौं जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।

-उक्त दोनों नवधा भक्तियाँ  सरल और सुकर हैं। इनमें से यदि कोई एक प्रकार की भक्ति भी मनुष्य करे तो उसका उद्धार सम्भव है। भक्ति के साथ ज्ञान और वैराग्य जुड़े हैं। वस्तुतः ये ज्ञान और वैराग्य, भक्ति के पुत्ररूप हैं जिनका संग पाकर भक्ति और भी पुष्ट हो उठती है किन्तु कलियुग में ज्ञान और वैराग्य की हालत दयनीय है।

                      ✍️ डॉ. अनुज पण्डित

Saturday, June 29, 2024

प्रसन्नता का रहस्य

🍂प्रसन्नता कैसे प्राप्त करें? वास्तव में इस लोक में प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहा है। यह एक आंतरिक खोज है। एक ऐसी आन्तरिक प्रेरणा,जो जन्म से मृत्यु तक मनुष्य की समस्त गतिविधियों के लिए उत्तरदायी है। प्रसन्नता की खोज ही मानव को समस्त भौतिक सुविधाओं की ओर धकेलती है। यह एक ऐसी प्यास है जो कभी नहीं बुझती।इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य भौतिक संसाधन जुटाता फिरता है किन्तु दुःखद है कि जिस प्रसन्नता के लिए वह अहर्निश प्रयत्न करता है,वह उसे कभी नहीं प्राप्त होती।

मनुष्य आख़िर कब इस सत्य को पहचानेगा कि प्रसन्नता,धन-सम्पत्ति या भौतिक संसाधनों से नहीं मिल सकती!सच कहूँ तो प्रसन्नता के चक्कर में हम  अपने भीतर तृष्णा भर रहे हैं तथा चित्त को अशान्त करते हैं। हम उन चीजों को पाने का यत्न करते हैं जो हमारे पास नहीं हैं।हम यह भूल जाते हैं कि संसार के सुखों में भय,पीड़ा,चिंता,अवसाद तथा कुंठा आदि विकार मिश्रित हुआ करते हैं।

स्वामी शिवानन्द सरस्वती कहते हैं कि "हे मानव!तुम उस विशुद्ध आनन्द,अनन्त शांति और प्रसन्नता का अनुभव कर सकते हो,यदि अपने भीतर सुन्दर चिंतन,अनुभव,विचार,कर्म,वाणी,विश्वास तथा आचरण विकसित कर सको।जीवन को अध्यात्म की ओर ले जाकर उसे दिव्य बनाओ।ईश्वर का स्मरण करते हुए जागो। जैसे ही नींद से जागो तो सर्वप्रथम उस अदृश्य, सर्वशक्तिमान् ईश्वर का ध्यान करो।"

यदि हम इस प्रकार ईश्वर का स्मरण करेंगे,उनसे प्रार्थना करेंगे तो हम अपने दैनिक जीवन के संघर्षों का सामना करने हेतु आत्मिक शक्ति प्राप्त कर सकेंगे। प्रार्थना का आत्मा के लिए वही महत्त्व है,जो शरीर के लिए भोजन का। बिस्तर से उठने से पहले ही यह दृढ़ संकल्प करें कि दिनभर कुछ न कुछ अच्छा करेंगे। जब तक कोई दिव्य जीवन जीना  नहीं सीखेगा,उसे भौतिक संसाधन प्रसन्नता नहीं दे सकेंगे।मनुष्य का भविष्य उसके विचारों और कर्मों से बनता है।इसलिए इसी क्षण अपने विचार और मानसिक स्थिति को बदलिए। सत्य का जीवन जिओ, दिव्य जीवन यापन करो तथा सदैव प्रसन्न रहो। प्रभु हमें अच्छा स्वास्थ्य, दीर्घायु,शान्ति, मोक्ष तथा आत्म प्रकाश से पूरित कर देंगे।

    #पढ़ते_पढ़ते                ✍️ डॉ. अनुज पण्डित

Friday, October 27, 2023

वाल्मीकि डाकू नहीं थे,पढ़िये उनकी जयंती पर विशेष लेख

ऋषि कश्यप तथा अदिति के नौवें पुत्र थे वरुण। वरुण का एक विशेषण या अन्य नाम है-'प्रचेतस्'। इन्हीं प्रचेतस् के पुत्र रूप में जन्मे 'रत्नाकर'। प्रचेतस् का पुत्र होने के कारण इन्हें प्राचेतस् भी पुकारा जाता है।रत्नाकर बचपन से ही तपस्वी प्रवृत्ति के थे। एक बार ये ध्यान लगाकर बैठे तो समय का भान ही न रहा। दीर्घकाल तक ध्यानावस्था में बैठे रहने के कारण इनके शरीर को दीमकों ने पूरी तरह ढक लिया। दीमकों को वल्मीक भी कहा जाता है।जब इनका ध्यान टूटा और ये दीमकों की उस बाँबी से बाहर निकले तो "वाल्मीकि" कहलाये। जनश्रुति के अनुसार रत्नाकर के डाकू होने की कथा मुझे मान्य नहीं। ऐसी कथाएँ मनुष्य को प्रेरित करने के उद्देश्य से गढ़ी जाती हैं कि जब एक अपराधी किस्म का व्यक्ति भगवान् का सुमिरन करके महाज्ञानी बन सकता है तो हम क्यों नहीं!

परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से ब्रह्मर्षि नारद इनसे मिले और रामकथा लिखने के लिए प्रेरित किया। ऐसा उल्लेख स्वयं वाल्मीकिरामायण में है। उस समय तक वैदिक संस्कृत का बोलबाला था। लौकिक संस्कृत में कोई भी रचना उस समय तक नहीं हुई थी। स्नान हेतु नदी में गए वाल्मीकि ने देखा कि एक बहेलिए ने मैथुन कार्य में मग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार गिराया। शेष बचा क्रौंच अपने साथी के विरह में शोक प्रकट कर रहा था। वाल्मीकि को यह दृश्य देखकर दुःख हुआ। उस घटना ने वाल्मीकि के हृदय में हलचल मचा दी।उनके हृदय में इतना अधिक शोक उपजा कि वह शोक,श्लोक रूप में प्रस्फुटित हो उठा-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती: समा:।
यत्क्रौञ्च मिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।

इस श्लोक के माध्यम से उन्होनें उस बहेलिए को शाप दिया और इस प्रकार अनुष्टुप छन्द में बद्ध इस श्लोक ने लौकिक काव्य सर्जना का सूत्रपात किया।      इसीलिए वाल्मीकि को आदिकवि की संज्ञा दी गयी तथा इनकी कृति वाल्मीकिरामायण को आदिकाव्य कहा गया। शरदपूर्णिमा तिथि को वाल्मीकि का प्राकट्य दिवस माना जाता है तथा प्रत्येक वर्ष इस तिथि को इनकी जयंती मनायी जाती है। 
नमन,हे आदिकवि!💐
                             ✍️ डॉ. अनुज पण्डित

Monday, August 28, 2023

रक्षाबन्धन का आरम्भ और महत्त्व

🍂सनातन की परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा आचार-विचार में वैदिकता अवश्य परिलक्षित होती है।कोई भी परम्परा एक दिन में नहीं प्रसारित हुई बल्कि इसके लिए वर्षों का समय लगा। हमारे त्योहार जो हमें एकता के सूत्र में पिरोते हैं,वे अत्यंत प्राचीन काल से मनाये जाते रहे हैं।

 इनके पीछे न केवल ऐतिहासिक कारण बल्कि वैदिक और पौराणिक कारण भी उत्तरदायी हैं। बात करें रक्षाबन्धन की तो इसके पीछे भी वैदिक कारण है।हिन्दू एवं जैन मतावलम्बियों द्वारा स्वीकार्य प्रेम एवं सुरक्षा का यह त्योहार सबसे पहले तब अस्तित्व में आया जब देवासुर संग्राम छिड़ा था। देवताओं की शक्ति आसुरिक शक्तियों के सम्मुख कमतर पड़ने लगी थी।यह देखकर देवराज इंद्र चिन्तित हो गए तथा उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से प्रार्थना की कि गुरुदेव! अब आप ही कुछ कीजिये ताकि हम देवगण असुरों से विजय प्राप्त कर सकें। 

तब देवगुरु ने सावन माह की पूर्णिमा को आक के रेशों का रक्षासूत्र बनाकर देवराज की कलाई पर बाँध दिया और आश्वासन दिया कि यह रक्षासूत्र तुम्हारी रक्षा करेगा और विजय प्राप्त कराएगा। इस प्रकार मानव संस्कृति में  प्रथम रक्षासूत्र बाँधने वाले देवगुरु बृहस्पति हुए।तभी से सुरक्षा की कामना से यह रक्षासूत्र बाँधने का प्रचलन आरम्भ हुआ। पौराणिक कथा कहती है कि भगवान् विष्णु ने अपने वामन अवतार में राजा बलि के हाथ में रक्षासूत्र बाँधकर उसे वचनबद्ध किया था। इस प्रकार यह रक्षासूत्र सङ्कल्प का प्रतीक भी माना जाता है । मध्य इतिहास में भी पढ़ने को मिलता है कि मेवाड़ को बहादुरशाह से बचाने के लिए चित्तौड़गढ़ की रानी कर्णावती ने मुगल शासक हुमायूँ को राखी भेजी थी। 

यह रक्षासूत्र किसी को भी बाँधा जा सकता है किन्तु  भाई-बहन के त्योहार के रूप में अधिक प्रचलित है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई में राखी बाँधकर उसे अपनी सुरक्षा के लिए वचन बद्ध करती है। एक प्रकार से इस बात का भी द्योतक है कि इस दिन रक्षा सूत्र बाँधकर हम अपने किसी उद्देश्य की प्राप्ति का संकल्प लेते हैं। आजकल विभिन्न प्रकार की राखियाँ बाजार में उपलब्ध हैं,आप अपनी पसन्द की राखी ले सकते हैं किन्तु एक होती है वैदिक राखी जिसके पीछे थोड़ा सा वैज्ञानिक कारण छिपा है। दूर्वा, केसर,चावल,चंदन,हल्दी और सरसों को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर एक पीले रंग के रेशमी कपड़े में बाँध लें और इसकी सिलाई कर दें।इसके बाद इसे मौली या कलावे में  पिरो दें। इस प्रकार आपकी वैदिक राखी तैयार हो जाएगी। इसमें मौजूद पदार्थ आपको संक्रामक बीमारियों से बचायेंगे। 

राखी या रक्षासूत्र बाँधते समय इस मंत्र का उच्चारण करना भी शुभ होता है-🍂
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।। 
इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि जिस रक्षासूत्र से महाबली राजा बलि को वचनबद्ध कर दिया,वही रक्षा सूत्र मैं आपको बाँधता/बाँधती हूँ। यह रक्षासूत्र सदैव आपको अपने संकल्प का स्मरण कराता रहे तथा कभी टूटे नहीं।    
                       ✍️ डॉ. अनुज पण्डित

फ़ोटो साभार गूगल

Saturday, August 26, 2023

वेदों में सूर्य (Solar)


वेदों में सूर्य और सौर-ऊर्जा से सम्बन्धित विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है।यथा-सूर्य का महत्त्व,अनेक सूर्य,सूर्य की शक्ति का आधार,सूर्य और चराचर का सम्बन्ध,सौर ऊर्जा के विविध चमत्कार आदि का वर्णन। सूर्य जगत् की आत्मा है। सूर्य से ही इस धरा का जीवन है। यह सर्वमान्य तथ्य है। वैदिक काल में भी सूर्य को समस्त जगत् का कर्त्ता स्वीकार किया जाता रहा है।सौरमण्डल का यह अति विशिष्ट ग्रह है जो चराचर जगत् को ऊर्जा प्रदान करता है। यह सौरमण्डल के समस्त ग्रहों-उपग्रहों का नियन्ता भी है।समूचा सौरमण्डल इसी से ऊर्जित हुआ करता है।यही अपने आकर्षण से पृथ्वी आदि ग्रहों को रोके हुए है। इसी से संसार को जीवनी शक्ति मिलती है इसीलिए इसे आत्मा कहा गया है।

यजुर्वेद में चक्षो: सूर्योsजायत कहकर सूर्य को ईश्वर का नेत्र कहा गया है।ऋग्वेद के एक मन्त्र में उल्लेख है कि नानासूर्या: और सप्तादित्या: अर्थात् सूर्य अनेक हैं।सात सूर्य से आशय ज्ञात होता है कि सात सौरमण्डल हैं।
    "सप्त दिशो नाना सूर्या:।देवा आदित्या ये सप्त।"
                  -ऋग्वेद-9.114.3
अथर्ववेद का कहना है कि केंद्रीय सूर्य कश्यप है।ये सात सूर्य उसके अंग हैं।तैत्तिरीय आरण्यक (1.7.1)में इन सप्त सूर्यों के उल्लिखित  हैं-आरोग, भ्राज,पटर, पतंग,स्वर्णर,जयोतिषीमान् और विभास।
 "कश्यप...यस्मिन् अर्पिता: सप्त साकम्।"
                -अथर्ववेद-13.3.10
अथर्ववेद (14.1.2)में वर्णित है कि सूर्य की ऊर्जा का स्रोत सोम अर्थात् हाइड्रोजन है-"सोमेन आदित्या बलिन:।" यजुर्वेद में इसे दूसरे रूप में प्रस्तुत किया गया है।मन्त्र का कथन है कि सूर्य में ये दो तत्त्व मिलते हैं-
1.अपां रसम् जल का सारभाग है,जो ऊर्जा के रूप में है।उद्वयस् शब्द ऊर्जारूप या गैसरूप अर्थ का बोधक है।जल का यह सारभाग हाइड्रोजन है। हाइड्रोजन के 'अपां रस:' इस पारिभाषिक शब्द का प्रयोग हुआ है।
2.'अपां रसस्य यो रस:' का अर्थ है-जल के सारभाग का सारभाग। जल का सारभाग हाइड्रोजन है और उसका सारभाग हीलियम है।मन्त्र में 'सूर्ये सन्तं समाहितम्' के द्वारा स्पष्ट किया गया कि ये दोनों तत्त्व सूर्य में विद्यमान हैं। 

आधुनिक विज्ञान के अनुसार सूर्य में 90% हाइड्रोजन है,8%हीलियम और 2% अन्य द्रव्य।सूर्य की सतह का तापमान छ: हजार डिग्री सेंटीग्रेड है।इस आंतरिक ताप के कारण हाइड्रोजन,हीलियम में परिवर्तित हो जाता है।इसे थर्मो न्यूक्लियर रीएक्शन्स कहा जाता है। तो जिन तथाकथित विद्वानों को यह लगता है कि वेद अप्रमाणिक हैं,उनमें वैज्ञानिकता का अभाव है,वे वेदों का गहन अध्ययन करें। देश के प्रतिष्ठित संस्थान इसरो चीफ ने यदि वेदों का हवाला दिया है तो उस पर विश्वास करने की जरूरत है,उससे सीख लेने की जरूरत है। सरकार का भी यह दायित्व है कि संस्कृत विषय को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाए तथा ज्ञान-विज्ञान की अक्षय निधि वेदों का प्रचार-प्रसार किया जाए ताकि भारत की आधुनिक पीढ़ी इस अपरिचित सत्य से परिचित हो कि भारत के ऋषि-मनीषियों ने वर्षों की मेहनत से वेदरूपी ज्ञान हमें सौंपा था। 
                       ✍️ डॉ. अनुज पण्डित

Sunday, June 11, 2023

उपनिषद्-चर्चा-भाग-9 ( मुण्डकोपनिषद्)

अथर्ववेद से सम्बन्धित यह उपनिषद् दो दो खण्डों के तीन मुक्तकों में विभाजित है ।पदार्थ, ब्रह्मविद्या तथा आत्मा-परमात्मा इसके वर्ण्य विषय हैं।इसमें ऋषि अंगिरा तथा उनके शिष्य शौनक का संवाद दिखाया गया है।जगत्कर्ता ब्रह्मा,अथर्वा, अंगी  सत्यवह तथा अंगिरा की "ब्रह्मविद्या" की आचार्य परम्परा थी । शौनक ने जिज्ञासा की कि किस तत्त्व के जान लेने पर सबकुछ अवगत हो जाया करता है?इस जिज्ञासा के शमन हेतु अंगिरा ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। विद्या के दो भेद परा और अपरा करने के बाद अपरा को वेद-वेदाङ्ग से जोड़ा तथा परा को को उस ज्ञान से जोड़ा जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है-"तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद:सामवेदोsथर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।"

इस उपनिषद् में परमात्मा द्वारा अपने अंदर से विश्वनिर्माण का वर्णन है। उदाहरण स्वरूप कहा गया -"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्न: पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।" अर्थात् एक पेड़ पर दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी बैठे हैं।एक फल को खा रहा है,दूसरा उसे खाता देख रहा है। यहाँ पेड़ प्रकृति है जिसे एक पक्षी भोग रहा है,उसे आत्मा के समान माना गया है और दूसरा जो खाते हुये देख रहा है उसे परमात्मा के समान माना गया है,जो भोग तो नहीं करता किन्तु देखता रहता है ।

इसी उपनिषद् का मंत्र "सत्यमेव जयते" भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है ।पूरा मंत्र इस प्रकार है-

सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयान:।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।

"जयते"प्रयोग व्याकरणिक दृष्टि से अशुद्ध है।"सत्यमेव जयति" ही शुद्ध रूप है।

ब्रह्मा ने जो ब्रह्मविद्या अथर्वा ऋषि को दी,वही ब्रह्मविद्या अथर्वा ने अङ्गी ऋषि को ट्रान्सफर कर दी,अङ्गी ने सत्यवह को और सत्यवह ने अङ्गिरा ऋषि को प्रदान की ।एक ऋषि हुए-शौनक जो एक विशाल विश्वविद्यालय के कुलपति हुआ करते थे। पुराणों के अनुसार उनके ऋषिकुल में अट्ठासी हजार ऋषि हुआ करते थे। उन सबने अङ्गिरा ऋषि से निवेदन किया कि भगवन्! वह कौन-सा परमतत्त्व है जिसके जान लेने पर सब जान लिया जाता है! तब अङ्गिरा बोले कि मनुष्य को जानने के लिए दो विद्याएँ हैं-,परा और अपरा।

जिसके द्वारा परब्रह्म अविनाशी परमात्मा का तत्त्वज्ञान होता है,वह परा विद्या है। उसका वर्णन वेदों में है। इतना अंश छोड़कर  अन्य समस्त वेद और वेदाङ्गों को अपरा विद्या के अन्तर्गत रखा गया है।जिसके द्वारा लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों तथा उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त हो,वह अपरा विद्या है । समस्त ऋषि बोले कि अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर है कैसा? तो अङ्गिरा ने बताया कि वे परमेश्वर ज्ञानेंद्रियों द्वारा ज्ञेय नहीं हैं और न ही कर्मेन्द्रियों द्वारा पकड़ में आते।वे गोत्र आदि उपाधियों से रहित हैं,वर्ण,रंग,आकृति से भी रहित हैं। अत्यंत सूक्ष्म,व्यापक,अन्तरात्मा रूप से सबमें फैले हुए हैं। वे कभी नाश को प्राप्त नहीं होते, सर्वथा नित्य भी हैं। वे समस्त प्राणियों के कारण हैं तथा सर्वत्र व्याप्त हैं।

◆वे परमेश्वर समस्त प्राणियों के कारण कैसे हैं,समस्त जगत् उनसे किस प्रकार उत्पन्न होता है?

अङ्गिरा ने उत्तर में पहले  समझाया कि जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट में स्थित जाले को बाहर निकालकर फैलाती है और फिर उसे निगल जाती है,उसी प्रकार वह परब्रह्म अपने भीतर सूक्ष्म रूप से लीन हैं और प्रलयकाल में पुनः उसे अपने में लीन कर लेते हैं। यही बात भगवद्गीता(अध्याय-९,श्लोक-७)  में कही गयी है-

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तादि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।

दूसरे उदाहरण के द्वारा यह बात समझायी कि जिस प्रकार पृथ्वी में अन्न, तृण, वृक्ष,लता आदि ओषधियों के बीज पड़ते हैं,उसी प्रकार भिन्न-भिन्न भेदों वाली ओषधियाँ वहाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उसी प्रकार जीवों के कर्म रूप बीजों के अनुसार ही भगवान् उनको भिन्न-भिन्न योनियों में पैदा किया करते हैं। अर्थात् उनमें किसी भी प्रकार की विषमता और निर्दयता का दोष नहीं रहता।

                               ✍️ अनुज पण्डित
                               

फ़िल्म आदिपुरुष

🍂आदिकाव्य रामायण के बाद जितने भी महाकाव्य लिखे गये, वे सब तो कहीं न कहीं कथानक की दृष्टि से रास आते हैं। कोई न कोई नवीन दृष्टिकोण समक्ष आता है। कहीं न कहीं राम की मर्यादा को भी मण्डित करते नजर आते हैं किंतु रामानन्द सागर निर्मित धारावाहिक रामायण के पूर्व और उत्तरवर्ती जितने भी रामपरक  धारावाहिक,फिल्म्स और वेबसीरीज आयीं,सब की सब फिसड्डी हैं।रामानन्द सागर ने जनमानस में रामायण की कहानी,दृश्य और पात्रों को इस तरह पैवस्त कर दिया है कि अब कोई रामपरक दृश्य नहीं सुहाता।

आदिपुरुष के टीजर को लेकर पहले ही काफ़ी निराशा देखने को मिली है। जनमानस के लिए कहीं से भी कथानक,दृश्य और पात्रों का कॉस्ट्यूम फिट बैठते नजर नहीं आते। तकनीकी प्रयोग ने इस  फ़िल्म को रामकथा कम,कार्टूनिस्ट अधिक बना दिया है। न तो पात्रों के परिधान उपयुक्त हैं ,न ही संवाद और न ही वह सौम्यता दिखती है जो एक मर्यादित और सौम्य राम की विशेषता है ।हनुमान् को देखकर रंचमात्र भी वह भाव नहीं उठता जो दारा सिंह को देखकर उठता है। 

ढाई-तीन मिनट के ट्रेलर में मैं प्रभास के चेहरे पर वह स्मित मुस्कान तलाश रहा था जो अरुण गोविल ने दी। वनवासी राम लक्ष्मण और सीता कहीं पर भी वल्कल वस्त्र पहने नहीं दिखते। परिधान देखकर लगता है कि पात्रों को चर्मवस्त्र पहना दिया गया है! सनातन से जुड़े किस्से,कहानियाँ सामने आनी चाहिए किन्तु वे अच्छी प्रकार संस्कारित तो हों! मुझे नहीं लगता कि जिन लोग ने रामानन्द सागर की रामायण का रसपान किया है,उन्हें यह फ़िल्म एक कार्टून से अधिक कुछ लगेगी! हाँ, नई पीढ़ी अवश्य राम कथा से सम्बंधित इस फ़िल्म के मुताबिक धारणा बना लेगी।
                  ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...