Monday, November 30, 2020

आख़िर क्यों हो रहे हैं जंगली जीव बेदख़ल?

🍂प्रत्येक वर्ष दोनों तूर की नवरात्रों में नवमी तिथि को   कुल देवता  "बरमबाबा" की पुजाई करने माँ के साथ गाँव जाता हूँ। जिस अश्वथ-वृक्ष में  कुलदेवता वास करते हैं वह वृक्ष गाँव के बाहर हर्राता है। उसी के समानांतर   रसाल का एक विशाल वृक्ष भी है।

इस साल की पुजाई करने जब हम दोनों गये तो देवस्थान का दृश्य देखकर दंग रह गए।  लगभग एक शतक बंदरों को  इस पेड़ से उस पेड़ पर कूद-फाँद करते देखकर घबराहट हुई और असहजता भी। इतने सारे बंदरों के बीच कुलदेवता को पूड़ी-खखरिया,खिचरी, नारियल,पान-बताशा,घी-गुड़ आदि पूजन सामग्री अर्पित करना कत्तई खतरे से खाली नहीं था।

कुछ देर तक वहीं दूर खड़े होकर सोच-बिसूर में डूबे रहे कि आख़िर कौन-सी जुगत भिड़ायी जाए जिससे निर्विघ्न पूजा-सम्पन्न हो सके क्योंकि बगैर पूजा किये लौटना भी नियम विरुद्ध ही था! 

अंततः मैंने वहीं पास के खेत से दो खूँटे उखाड़े और अपनी लंबाई से दो गुना बेशरम की लाठी तोड़ी।इसके अतिरिक्त आस-पास छिटके पड़े पत्थर-मिट्टी के धेले इकट्ठे करके चल दिये बरम बाबा की पुजाई करने! 

माँ को मैंने कहा कि आप विश्वामित्र की भाँति निर्भय होकर पूजन कीजिये ,मैं भगवान् राम की तरह बेशरम की लाठी को चारों ओर लगातार घुमाकर सुरक्षा-घेरा बनाये रखूँगा। माँ ने आधे मन से स्वीकृति प्रदान कर पूजन आरम्भ कर दिया। पंद्रह मिनट लगातार लाठी घुमाना, बीच-बीच में खूँटा-प्रहार और धेले फेंककर मारना जिम में मशीन भाँजने से कहीं ज्यादा कठिन करतब था।


पूजन तो निर्बाध सम्पन्न हो गया किन्तु मेरे द्वारा बंदर को फेंककर मारे गए धेलों में से एक  कुटिल धेला बंदरों से संधि करके माँ के सिर पर आ गिरा। कुलदेवता की कृपा से माँ को गहरी चोट तो नहीं लगी किन्तु मेरे मस्तिष्क में फ़ौरन एक प्रश्न दौड़ने लगा। वह यह कि कहीं कुलदेवता यह अद्भुत् दृश्य देखकर नाराज तो नहीं होंगे कि माँ पूजन कर रही है और बेटा मुझपर खूँटा-पत्थर बरसा रहा है!
मैंने सकुचाते हुए कुलदेवता से क्षमायाचना की और अपनी मजबूरी प्रकट की। उसी समय मैंने यह महसूस किया कि आख़िर इस साल इस वृक्ष और गाँव के भीतर बंदरों ने अपनी धाक क्यों जमाई! कारण रूप यही बात समझ आई कि  जंगलों को साफ़ कर दिया गया,पहाड़ों को खोदकर सपाट कर दिया गया तो बेचारे ये बंदर आख़िर जाएँ तो जाएँ कहाँ! 

जंगल के ठेकेदारों ने,तथाकथित हरिजनों ने जंगल की तेरही कर दिया। आये दिन डग्गा में लदकर सागौन,शीशम,खैर,कसही जैसे विशाल और कीमती पेड़ों को लोगों ने अपने घरों के दरवाजे,खिड़कियों और बिस्तर में तब्दील कर दिया। रोजगार के नाम पर हर दिन जंगलों से लकड़ियाँ कटकर ट्रेन में सवार होकर शहरों की ओर भागती हैं।निजी भौतिकसुख के वशीभूत हुए लोगों को  जंगली जीवों की तनिक भी चिंता न रही कि आख़िर इनका आशियाना उजाड़कर हम अपना आशियाना सजायेंगे तो ये जीव कहाँ जायेंगे और क्या खायेंगे!


जिस जंगल  में कभी दिन में भी रात का एहसास हुआ करता था,उस जंगल की भूमि को आज निचाट धूप छू रही है। जंगली जीवों के लिए कोई  छप्पन भोग की व्यवस्था तो है नहीं! वे जंगली फलों पर ही तो आश्रित रहते हैं! ऐसे में जब जंगल चाट लिए गए तो गाँव-शहरों की ओर पलायन करना लाज़िमी ही है! अभी तो सिर्फ बन्दरों ने धावा बोला है, कुछ दिनों में अन्य जंगली जीव भी गाँव की ओर रुख करेंगे। 

वह तो आभार प्रकट कीजिये पूर्वजों का जिन्होंने पीपल,बरगद, नीम जैसे  वृक्षों में ईश्वर का वास बताकर अगली पीढ़ी को सचेत किया कि कि वृक्षों का संरक्षण करना बहुत आवश्यक है। चरक,सुश्रुत आदि विद्वानों ने प्रत्येक वृक्ष,वनस्पति और घास को औषधीय-गुणों से लैस बताकर बड़ा उपकार किया फिर भी आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए आज की पीढ़ी और सरकारों को जंगलों,पहाड़ों,वृक्षों,नदियों आदि के संरक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं।


भौतिकता की होड़ में,रिश्वतखोरी के गर्त में और निजी स्वार्थ में मानव इस तरह डूब चुका है कि उसे जंगलों के न होने से पड़ने वाले घातक प्रभावों का ख्याल तक न रहा!

#फ़ोटो_साभार_गूगल

                  ✍️ अनुज पण्डित

2 comments:

  1. प्रकृति से अथाह प्रेम करने की जरुरत, हमें जानना होगा कि हम प्रकृति से ही गई

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  2. जी,रोहित जी!धन्यवाद💕

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