Tuesday, February 23, 2021

घने जंगल में विराजमान माँ आनन्दी धाम से जुड़ी कहानी अत्यंत रोचक है।

🍂चित्रकूट के बीहड़ में मरवरिया पहाड़ पर विराजमान यह प्रतिमा माँ आनन्दी का है।इसका इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना मैहर की शक्तिपीठ माँ शारदा का। विचित्र आकृति वाली पत्थर की यह प्रतिमा दरअसल सीधी नहीं बल्कि उल्टी स्थिति में है।


 इसके पीछे की कहानी बुजुर्ग जन इस तरह से सुनाते हैं कि बहुत पहले यह प्रतिमा पहाड़ की अत्यधिक ऊँचाई पर स्थापित थी। एक वृद्ध महिला इनके दर्शन करने इतने ऊपर तक चढ़ कर जाती थी तो थक जाती थी लिहाज़ा उसने देवी आनन्दी से विनती की कि हे माता! आप तनिक और नीचे आकर विराजित हो जाइए ताकि मैं आसानी से आपके दर्शन करने आ सकूँ।

 आकाशवाणी द्वारा उस महिला को कहा गया कि तुम आगे-आगे चलो,मैं तुम्हारे पीछे आती रहूँगी किन्तु ध्यान रहे कि जहाँ पर तुम पीछे मुड़कर देख लोगी, मैं वहीं उसी जगह स्थापित हो जाऊँगी। कुछ दूर आने के बाद उत्सुकतावश उस महिला ने पीछे मुड़कर देख ही लिया,अस्तु माता आनन्दी वहीं उसी स्थिति में उल्टा (यानि सिर नीचे,पैर ऊपर)स्थापित हो गयीं। 

क्षेत्रीय लोगों की इतनी आस्था है इन पर कि आये दिन खासकर नवरात्रों में यहाँ भक्तों का सैलाब उमड़ता है, कीर्तन-भजन और भण्डारे का आयोजन होता है। इस क्षेत्र में डकैतों के आतंक के बाद भी भक्तों की आस्था और मान्यता में कोई कमी देखने को नहीं मिलती।  मरवरिया के पहाड़ की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ से पहले ग्रेनाइट, अभ्रक और चूना निकाले जाते थे। 

आनन्दी माता नाम से और भी कई मंदिर देखने-सुनने को मिलते हैं किंतु यह आनन्दी धाम घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों पर स्थापित है। बचपन के दिनों में जब मैं गाँव में रहता था तो दोनों तूर की नवरात्रों में मित्रों की टोली के साथ रात को 2 बजे ही निकल पड़ता था माता को जल चढ़ाने। गाँव की सीमा से बाहर एक तालाब पड़ता था तो वहीं हम सब खूब देर तक नहाते और तब आगे बढ़ते थे।

 तब बचपना था तो समझ के साथ-साथ भय की भी कमी थी। मुझे आज भी याद है जब एक बार रात को 3 बजे जंगल के बीच से होता हुआ अकेले मैं इस विश्वास में मन्दिर तक पहुँच गया कि फला मित्र आगे-आगे जा रहा है। उस समय मोबाइल आदि की पहुँच गाँव तक नहीं हो पायी थी कि कॉल करके मित्र की स्थिति का पता लगा सकता! 

जब मैं मन्दिर पहुँचा तो मन्दिर के पुजारी सो रहे थे।मैंने उन्हें जगाया तो उन्होंने कहा कि तुम इतनी रात को अकेले क्यों आ गए। मैंने कहा मुझे जल चढ़ाना है तो पुजारी जी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। पहले मैं जल चढ़ाता हूँ उसके बाद अन्य लोग। बेचारे रात को तीन बजे लगभग तीन सौ सीढियाँ उतरकर गये नहाने और आकर जल चढाये तब जाकर मेरा नम्बर आया। आज भी जब मैं माता के दर्शन करने जाता हूँ तो पुजारी जी कहते हैं कि यार तुमने मुझे रात को तीन बजे नहाने के लिए मजबूर किया था,मुझे अभी तक याद है।ऐसा कहकर खुश होते हैं।

मैं आज भी सोचता हूँ कि आस्था और विश्वास में कितनी ताकत होती है कि एक बारह साल का बालक बिना भय खाये,घने जंगल के बीच से ,जंगली जीवों और डकैतों से होने वाले खतरे से अनजान रहकर कैसे अपने इष्ट के पास तक सकुशल पहुँच गया! उस समय का जंगल भी काफ़ी हद तक समृद्ध था,हिरन-स्याही,नीलगाय,भालू और वनरोझ आदि का रास्ते पर मिलना सामान्य बात थी। आज जंगल उजड़ चुके हैं, जंगली जीव विलुप्त से हो गए हैं तथा पहाड़ों का कद छोटा होता चला जा रहा है, बहुकीमती पेड़ कटकर ट्रेनों, डग्गों आदि में लदकर शहरों  की ओर भाग रहे हैं।   क्षेत्र की आदिवासी जनता बहुत हद तक अपने रोजगार हेतु इन्हीं जंगलों पर ही निर्भर है। यह चिंता का विषय है कि धीरे-धीरे जंगलों की खूबसूरती पर ग्रहण लग रहा है।

✍️ अनुज पण्डित

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