होलिका दहन की धार्मिक एवं पौराणिक मान्यता को एक पल के लिए नकार भी दोगे लेकिन क्या उसकी वैज्ञानिकता से मुँह बिचका सकोगे?
बिल्कुल भी नहीं। हमारे उत्सव,रीतियाँ एवं परम्पराएँ किसी एक समुदाय या पंथ विशेष के कल्याण हेतु नहीं हैं अपितु विश्वकल्याण एवं एक स्वस्थ समाज को मजबूती प्रदान करने हेतु कटिबद्ध हैं। बेशक आप हिरण्यकशिपु, होलिका एवं प्रह्लाद आदि पात्रों को कपोलकल्पित मानकर नजरअन्दाज कर दीजिये किन्तु तनिक होलिका दहन की वैज्ञानिक प्रामाणिकता पर ध्यान देंगे तो स्वयं हो बोल पड़ेंगे कि वाह! कितना महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी उत्सव है!
उत्सव...सदा से ही मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। दुःख,अवसाद,कुण्ठा, चिंताओं तथा नीरस जीवन से कुछ समय तक स्वयं को मुक्त रखने हेतु मनुष्य सदा उत्सवधर्मी रहा है। शिशिर की विदाई के पश्चात् ऋतुराज के कदम रखते ही वातावरण अँगड़ाई लेता है तथा विशेष परिवर्तन से युक्त होकर हमें अपने प्रभाव से अवगत कराता है। ऋतु परिवर्तन के इस काल में थकान,सुस्ती,उनींद तथा आलस्य का अनुभव होता है। साथ ही इस मौसम में वातावरण में बैक्टीरिया हावी हो जाते हैं,फलस्वरूप संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
होलिका दहन तथा उसमें डाले गए गुग्गुल,राई तथा कर्पूर आदि पदार्थों के प्रभाव से वातावरण के तापमान में बढ़त होती है जिसके कारण संक्रामक बीमारियों का प्रभाव अत्यधिक न्यून हो जाया करता है। जीव विज्ञानियों ने भी दावा किया है कि शुद्ध रूप में अबीर या गुलाल आदि जब साफ पानी के साथ त्वचा पर पड़ता है तो शरीर का आयनमण्डल मजबूत होता है तथा शरीर को ताजगी का अनुभव होता है। आपने देखा होगा कि हमारा लोकगीत फगुआ तानकर ऊँचे स्वर में गाया जाता है! ऐसा इसलिए ताकि शरीर से आलस,सुस्ती आदि विकार फुर्र हो जायें और एक नई स्फूर्ति एवं चेतना का संचार हो।
मैंने कहीं पढ़ा था- "पश्चिमी फिजिशियन भी यह कहते हैं कि शरीर में रंगों की कमी हमें कई तरह की बीमारियों की ओर धकेलती है।"
उक्त बातों के अतिरिक्त यह पर्व स्वच्छता का भी प्रतीक है,मच्छर,धूल तथा कीटाणुओं का सफाया करके हम स्वस्थ जीवन का आनन्द तो लेते ही हैं!
✍️ अनुज पण्डित
श्रेष्ठ जानकारी ज्येष्ठ..
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