Wednesday, April 19, 2023

सीता स्वयम्बर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

आख़िर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा देने में क्यों बिलम्ब किया ? जनक का परिताप, लक्ष्मण का क्रोध क्यों वे देखे जा रहे थे?क्या कोई और शूरवीर अपना बाहुबल आजमाने को शेष रह गया था या फिर कोई और बात थी जो मात्र विश्वामित्र ही जानते थे? इन्हीं समस्त जिज्ञासाओं के समाधान हेतु पढ़िये मेरा यह लेख👇

आइये, आपको मिथिलानरेश के उस दरबार में ले चलता हूँ,जहाँ सिया के स्वयम्बर  का आयोजन था, जहाँ देश-विदेश से बाहुबली,महाबली नरेश,युवराज तथा नर वेश में देवता,राक्षस,यक्ष तथा अन्य प्रजाति के लोग पधारे थे। जब स्वयम्बर की शर्त इतनी विशेष और जटिल हो तो भला प्रतिभागी सामान्य कैसे हो सकते हैं! शर्त स्वरूप भंग किया जाने वाला कोदण्ड कोई साधारण धनुष नहीं बल्कि साक्षात् महादेव का धनुष "पिनाक" था।  उस धनुष को भंग करना तो दूर की बात,उसे उसकी जगह से हिला-डुला पाना भी टेढ़ी खीर थी।

उस दरबार की शोभा अयोध्या  के दो राजकुमार प्रभु राम और अनुज लक्ष्मण भी अपने गुरु विश्वामित्र-संग बढ़ा रहे थे। विश्वामित्र भले ही मन ही मन जानते रहे हों कि राजकुमारी वैदेही को अंततः मेरा शिष्य राम ही वरेगा किन्तु यकीन मानिए उनके सिवाय और किसी को अंदेशा तक भी नहीं था कि  यह साँवला सजीला नवयुवक कोई साधारण राजकुमार नहीं बल्कि स्वयं अखिल ब्रह्माण्ड का नायक है। हाँ, राम यह बात अवश्य जानते थे कि सिया आखिर में राम की ही होगी,क्योंकि ईश्वर से भला कौन सी बात छिपी है!

समस्त भूपतियों ने बारी-बारी से अपना बाहुबल  आजमाया,यहाँ तक कि हजारों की संख्या में भी सबने मिलकर जोर आजमाया किन्तु शिव-धनुष मानो हिमालय पर्वत की भाँति अडिग था! जनकपुर की महारानी सुनयना सहित मिथिलापति की आँखों से निराशा के मेघ बरसने लगे, सिया भी तनिक उदास  हुईं,जबकि उनका प्रेम और विश्वास मन ही मन अपने जनम-जनम के साथी राम के प्रति था। सीता यह सोचकर उदास हुईं कि मेरे राम तो मात्र यहाँ दर्शक बनकर आये हैं,धनुष-भंग प्रतियोगिता में उन्हें अवसर मिलेगा भी या नहीं क्योंकि सबकी दृष्टि में वे हैं तो बालक ही! फिर भी सीता की  डबडबायी आँखों में एक विश्वास तैर रहा था।

सभा मे सन्नाटा पसर गया, षड्विकारों से रहित विदेहराज को भी अपार क्रोध चढ़ा। उन्होनें दरबार में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की ओर नजर घुमाकर,वीरप्रसूता पृथ्वी को वीरविहीन तक कह डाला! अब सब यह मान बैठे थे कि सीता के योग्य कोई पुरुष है ही नहीं। उन्हें क्या पता कि इसी सभा में पुरुषोत्तम राम भी बैठे हैं। बाकी राजा तालाब हैं तो राम समुद्र और सीता जैसी महानदी समुद्र को छोड़कर भला कहाँ मिलेगी!

मिथिलापति ने अपनी शर्त तोड़ दी। यदि राजर्षि कौशिकनन्दन और उनके साथ आये हुए अयोध्या के दोनों राजकुमारों को छोड़कर बात करें तो लगभग समस्त प्रतिभागियों के शिर लज्जा से झुके हुए थे। अब गौर करने वाली बात यह है कि विश्वामित्र ने राम को धनुष भंग की आज्ञा उस समय क्यों नहीं दी,जब विदेहराज समस्त राजाओं,राजकुमारों और शूरवीरों को धिक्कार रहे थे! तब भी नहीं जब उन्होंने पृथ्वी को वीरों से विहीन तक  कह दिया! जनक और सुनयना की आँखों से उमड़ते हुए समुद्र में अविश्वास और निराशा के ज्वार-भाटा भी विश्वामित्र देख रहे थे, फिर भी मन्द मुस्कान लिए हुए वे चुप रहे! 

लक्ष्मण ने अपने क्रोध से जनक के सिंहासन समेत समूची सभा को हिला दिया और यह भी कह गए कि यदि मुझे आज्ञा मिले तो मैं गेंद की भाँति इस धरती को हवा में उछाल दूँ फिर भी विश्वामित्र ने शान्त वत्स! शान्त! के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा! आख़िर विश्वामित्र किसलिए राम को आज्ञा देने में विलम्ब कर रहे थे! क्या उन्हें किसी की प्रतीक्षा थी या विदेहराज के धैर्य की अभी और परीक्षा लेनी थी!  क्या अभी कोई और वीर अपनी भुजाओं का बल आजमाने हेतु शेष रह गया था! इन्हीं जिज्ञासाओं के ज़वाब मैं दूँगा अगली पोस्ट पर। मैं कुछ नया तर्क रखने का यत्न करूँगा। शायद आप सबको पसन्द आये! तब तक आप लोग विचार करें कि आख़िर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा देने में एक लम्बा समय क्यों लिया!

मानसकार लिखते हैं-"विस्वामित्र समय सुभ जानी।बोले अति सनेहमय बानी।।उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।" -इन  चौपाइयों को पढ़कर आपके मस्तिष्क में भी प्रश्न कौंध गया होगा कि विश्वामित्र को कैसे पता कि अब धनुषभंग करने का  शुभ समय है! इसका जवाब हो सकता है कि विश्वामित्र नक्षत्र और मुहूर्त के ज्ञाता थे लेकिन जब समस्त प्रतिभागी अपना बाहुबल आजमा रहे थे,तब क्या समय अशुभ था!  बाबा तुलसी आगे फिर लिखते हैं -"लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े।काहुँ न लखा देखु सब ठाढ़े।।" अर्थात् श्री राम ने धनुष को कब हाथ में लिया,कब प्रत्यंचा चढ़ायी और कब तोड़ दिया,यह किसी ने नहीं देखा। राम  फुर्तीले हो सकते हैं किन्तु विश्वामित्र और राम को इतनी क्या जल्दी थी कि पल भर में धनुष को भंग कर दिया! 


विश्वामित्र ने जब राम को आज्ञा दी तो कहा कि हे राम! तुरन्त उठो,तुरन्त जाओ और तुरन्त ही धनुष को तोड़ दो। एक पल की भी देर मत करना। 
यदि विश्वामित्र को इतनी ही जल्दी थी तो अब तक जनक का परिताप क्यों सुन रहे थे! जब समस्त प्रतिभागी विफल हो चुके थे तो  राघव को थोड़ा भौकाल जमाते हुए,चारों तरफ निहारकर इत्मीनान से धनुष भंग करना चाहिए! ताकि सभा  में उपस्थित जन आनन्द उठा पाते! कुछ तो था जो केवल और केवल विश्वामित्र ही जानते थे,अन्यथा जनक और सुनयना को इतनी देर तक आँसू नहीं बहाने पड़ते और न ही लक्ष्मण क्रोधित होकर अपनी ऊर्जा क्षीण करते!

इधर मिथिला में सिया का स्वयम्बर रचाया जा रहा है और उधर सिंहलद्वीप में शिव का जिद्दी भक्त रावण अपनी शैय्या से उठकर बैठ गया। उसे यह चिंता खाये जा रही थी कि राम धनुष तोड़ देंगे और मैं नहीं चाहता कि यह धनुषभंग मेरी जीवनलीला समाप्त करने का सूत्रपात करे। अब चूँकि काल और शनि को रावण बंधक बनाकर रखता था,सो उसकी शैय्या के पास ही रहते थे। दोनों ने पूछा-"क्या बात है लंकापति!आप परेशान क्यों हैं?" रावण ने पूरी बात बतायी तो उन दोनों ने कहा-"आप इसकी चिंता तो छोड़ ही दीजिये। हमारे रहते धनुषभंग कोई नहीं कर सकता। "

सबसे भारी ग्रह शनि ने कहा कि "मैं जाकर उस शिवधनुष में बैठ जाऊँगा, फिर कोई भी उस धनुष को हिला तक न सकेगा।" इतने में काल ने कहा कि "यदि कोई धनुष तोड़ भी दिया तो मैं तत्काल किसी न किसी बहाने से उसका काल बन जाऊँगा और उसकी मृत्यु हो जाएगी।" जनक की सभा में सजे धनुष पर शनि का भार और ऊपर मँडराते हुए काल को विश्वामित्र भलीभाँति देख पा रहे थे,इसीलिए वे राम को आज्ञा देने में विलम्ब कर रहे थे। जब समस्त भूपतियों ने अपना बाहुबल दिखा लिया,जनक निराश होकर शर्त तोड़ चुके तब शनि और काल ने समझा कि अब हमारा काम ख़त्म। अब कोई शेष नहीं बचा,जो आकर धनुष भंग करने की कवायद करेगा,सो हम दोनों को चलना चाहिए।

जैसे ही शनि ने धनुष से अपना प्रभाव अलग किया, वैसे ही विश्वामित्र ने तत्काल राम को आज्ञा दी कि हे राम!उठो,जाओ और तुरन्त धनुष भंग करो क्योंकि उन्हें आशंका थी कि यह शनि पुनः धनुष पर अपना प्रभाव जमा सकता है। इसीलिए बाबा तुलसी कहते हैं कि राम को धनुष उठाते और भंग करते हुए पल भर का भी समय नहीं लगा।


ज्यों ही राघव ने धनुष को प्रणाम किया,शनि शीघ्रता से पलटा किन्तु शनि के पुनः प्रभाव जमाने से पहले राम ने बड़ी फुर्ती से उसके दो टुकड़े कर दिए थे। अब शनि घबराया और काल से कहा कि मेरा काम तो यहीं तक था,अब तुम अपना प्रभाव दिखाओ। तब काल ने महेंद्र पर्वत पर तपस्या कर रहे परशुराम को प्रेरित किया और वे धनुष भंग करने वाले का साक्षात् काल बनकर आये थे किंतु राम को पहचानने के बाद उनका क्रोध शांत हो गया। 
              ✍️ अनुज पण्डित

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