देश के सबसे बड़े बोर्ड यूपी बोर्ड में लाखों की सङ्ख्या में छात्र-छात्राओं का हिन्दी जैसे विषय में यूँ ढेर हो जाना महदाश्चर्य और लाज़िमी दोनों है।
एक ओर भूत और वर्तमान सरकारों ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर इसकी गुणवत्ता को रौंदा है, तो दूसरी ओर देश-विदेश में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव ने विद्यार्थियों का मन हिन्दी से हटाया है।
जो विद्यार्थी अन्य विषयों में अच्छे अंक प्राप्त कर सकता है वह "हिन्दी" विषय में भी अच्छा प्रदर्शन कर सकता है क्योंकि हिन्दी तो छुटपन से ही उसके साथ-साथ गमन कर रही है! किन्तु हिन्दी के प्रति छात्रों की बढ़ती उदासीनता और समाज में हो रहा हिन्दी का पतन मुख्य कारक बन गये ।
वैसे भी, जब अध्यापक को ही शुद्ध वर्तनी और मात्रात्मक त्रुटियों से कोई लेना-देना नहीं है तो बेचारे छात्र-छात्राओं का क्या दोष?
बहुतेरे लेखक ऐसे हैं जो लम्बा-लम्बा लिखेंगे जिस में वर्तनी दोष का आधिक्य होगा, पत्रकार शब्दों की ऐसी-तैसी करेंगे और विश्वस्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला होगा तो कैसे पनपेगी मातृभाषा, कैसे गम्भीरता से लेंगे विद्यार्थी हिन्दी को, और कैसे घटेगी यूपी बोर्ड में हिन्दी में अनुत्तीर्ण छात्र-छात्राओं की सङ्ख्या?
और तो और यदि किसी को अशुद्ध वर्तनी हेतु टोंक दो तो वह आपको या तो अपना चपरपेली वाला रूप दिखा देगा या अमित्र कर देगा, या वाक्युद्ध कर लेगा या तो यह कहकर अपना बचाव कर लेगा कि- "भावनाओं को समझो।"
काश! मूल्यांकनकर्त्ता भावनाओं को समझता, प्राथमिक स्तर से ही बच्चों को हिन्दी का महत्त्व समझाकर उसे वर्तनी दोषों के प्रति सचेत किया जाता, समाज यह समझ सकता कि यदि पढ़े-लिखे लोग ही अशुद्ध शब्द-प्रयोग करेंगे तो उनमें और अनपढ व्यक्ति में अंतर ही क्या रह जायेगा! तो शायद हिन्दी की यह दुर्गति न होती और गतवर्ष ग्यारह लाख एवं इस साल आठ लाख विद्यार्थी हिन्दी जैसे विषय में मात न खाते!
माना कि अंग्रेजी के सापेक्ष हिन्दी की छवि धूमिल है किन्तु अनिवार्य प्रश्नपत्र के रूप में सम्मिलित होने और बचपन से ही हमारे सुकर्मों-कुकर्मों में सहायिका होने के नाते "हिन्दी" पर अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
बाकी विषयों की तरह हिन्दी को भी गम्भीरता से लिया जाये ताकि 'मातृभाषा' मात्र 'भाषा' और तमाशा बनकर न रह जाये!
✍️अनुजपण्डित
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