Thursday, October 22, 2020

चरित्र का हत्यारा कौन?

 ■कहा जाता है कि मानव का चरित्र ही सबसे बड़ा धन है। "वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च।अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।"-अर्थात् चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए, धन तो आता-जाता रहता है।यदि धन नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट नहीं हुआ किन्तु यदि चरित्रनाश हो गया तो सबकुछ नष्ट हो जाता है। 

"चरित्र" शब्द अपने आप में पर्याप्त अर्थ बयाँ करता है।यह इतना अधिक उज्ज्वल है कि इसमें यदि रंचमात्र भी दाग लग जाये तो दूर से ही इसका दाग दिखायी पड़ने लगता है, इसलिए अत्यधिक  जतन करने पड़ते हैं कि इस पर कोई दाग-धब्बा न लगने पाये।


चरित्र का निर्माण सर्वप्रथम परिवार में आरम्भ होता है, जिसके निर्माता माँ-बाप होते हैं।शिशु तो कोमल तने की तरह होता है, उसे जिस दिशा में मोड़ देंगे उसी ओर वह जीवनयात्रा प्रारम्भ कर देगा ।यद्यपि पारिवारिक परवरिश अल्पकालिक ही होती है किन्तु होती अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिशुकाल सम्पूर्ण जीवनरूपी मकान की नींव होती है।यदि नींव मजबूत बनायी जाएगी तो मकान लम्बे समय तक स्थिर रहेगा ।
             फोटो साभार गूगल

यदि हम वर्तमानयुग से थोड़ा सा पीछे जाकर देखें तो ज्ञात होता है कि निःसन्देह उस जमाने में भौतिकता और मनोरंजन के वैज्ञानिक उपकरणों का अभाव था परन्तु तमाम ऐसे साधन थे जिनका प्रयोग लोग अपनी आवश्यकतानुसार करते थे। ज्यादातर लोग धार्मिक होते थे जिसके चलते धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, नीतिपरक बातें सीखना, चार आश्रमों की व्यवस्था तथा सामाजिक रीति रिवाजों पर लोग विशेष रुचि रखते थे लिहाजा उनका मन इन्हीं सब चीजों से ओतप्रोत रहता था।अध्ययन मष्तिष्क का भोजन है और अन्न शरीर का। 

हमारे पूर्वज भलीभांति जानते थे कि जिस प्रकार का भोजन मन और शरीर को दिया जाएगा, तदनुसार व्यक्ति आचरण करेगा और ऊर्जा प्राप्त करेगा।


आधुनिक युग वैज्ञानिक आविष्कार का युग है जिसमें मनोरंजन और भौतिकता के बहुत से साधन  हैं। ये साधन मनुष्यजाति की आवश्यकता और सुख-सुविधा के  लिए निर्मित हुये किन्तु मनुष्य ने इनका अनुचित प्रयोग करना शुरु कर दिया जिसके चलते तमाम मानसिक व सामाजिक विकृतियाँ पनप गयीं।आज लगभग प्रत्येक अभिभावक बच्चे को बाल्यकाल से ही मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर ,सिनेमा आदि की आदत डलवाने लगते हैं। इन संसाधनों का यदि सदुपयोग किया जाए तो अनेक कार्यों को करने में बड़ी सुगमता होती है किंतु यदि दुरुपयोग किया गया तो कई बड़े नुकसान होते हैं।
                फोटो साभार गूगल

सिनेमा जगत् और विभिन्न प्रकार के अनुपयोगी दृश्य-श्रव्य धारावाहिक बच्चों के मन में गहरा असर डालते हैं।आजकल छोटी-छोटी चीजों का विज्ञापन करने के लिए कामुक गतिविधियों का सहारा खुलेआम लिया जा रहा है, जिसके चलते बच्चों का मन उस विशेष कार्य को करने हेतु उद्यत होता है जिसका परिणाम टिक टॉक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक आदि सोशल साइट्स पर देखा जा सकता है ।

आजकल किशोर होने से पहले ही लड़के-लड़कियाँ  वासना की गिरफ्त में आते दिखाई दे रहे हैं।यदि बच्चों की असल गतिविधियाँ देखनी हों तो उनके अभिभावक उनकी सोशल प्रोफाइल पर झाँकें तो पता चलेगा कि उनका बेटा औऱ उनकी बेटी क्या सीख रहे हैं और क्या पसन्द करते हैं!उम्र के साथ इच्छाएँ भी बढ़ती हैं और हिम्मत भी जिसके आगोश में आकर नवयुवक-युवतियाँ शारिरिक दुष्कर्म, भागकर शादी करना, हत्या, लूट-पाट आदि कुकर्मों को अंजाम देने लगते हैं।इन सबके असल उत्तरदायी अभिभावक और भौतिक पर्यावरण हैं। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को धार्मिक कार्यों व धार्मिक ग्रन्थों के प्रति प्रोत्साहित नहीं करता,बहुधा अभिभावक तो बच्चों के साथ समय तक नहीं बिताते।सब के सब आधुनिकता की होड़ में समाज की देखा-सुनी पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते फिर रहे हैं।

                 फ़ोटो साभार गूगल

अब परिवार, रिश्तेदार, समाज औऱ देश इनमें से कोई भी अछूता नहीं है जहाँ पर ये कलुषित मानसकिता के बच्चे गन्दी निगाह न डालते हों! आज समाज में चरित्र मर चुका है, बचा है तो मात्र फैशन, पाश्चात्य-अनुकरण औऱ बची है बदतर सोच जिसके प्रभाव में आकर देश के भीतर ही लोग हिंसात्मक रवैया अपना रहे हैं, भाईचारे को जड़ से उखाड़ रहे हैं तथा बलात्कारी बनकर कुल और देश की अस्मिता पर कालिख पोत रहे हैं। कभी-कभी तो महसूस होता है कि लौट चलना चाहिए हम सबको अपने पुरखों के सिद्धांतों की ओर जहाँ पर प्रत्येक कार्य तय समय और समुचित व्यवस्था पर आधारित था।चरित्र दोष का विशेष कारण विलम्ब से हो रहा विवाह भी है ।

जब बाल विवाह की परम्परा थी तब बलात्कार आदि कामुक घटनाएँ न के बराबर होती थीं क्योंकि जब तक बच्चों के अंदर काम प्रवृत्ति पनपती थी तब तक उनका विवाह हो चुका होता था,लिहाजा इधर-उधर मुँह मारने की आदत नहीं बनती थी।

                 फोटो साभार गूगल

संप्रति विभिन्न पदों पर आसीन व्यक्ति यहाँ तक कि शिक्षक भी वासना के वशीभूत रहते हैं जो अवसर पाते ही  घटना को अंजाम दे देते हैं।इसके पीछे उनकी परवरिश और संस्कार तो कारण हैं ही साथ ही सबसे बड़ा कारण है -मानसिकता।भले ही परवरिश में खोट रह गयी हो किन्तु एक योग्य पद पर आसीन होने के बाद व्यक्ति को स्वयं पर नियंत्रण रखकर अपनी मानसिकता स्वच्छ बनानी चाहिए ताकि उसका अनुसरण करने वाले भी चरित्रवान व्यक्ति बन सकें!
                   फोटो साभार गूगल

समाज के प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे प्रत्येक कार्य का विरोध करना चाहिए जो बच्चों का चारित्रिक व नैतिक पतन करते हों,,फ़िर चाहे वो मनोरंजन के अनुचित साधन हों, टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापन और विभिन्न धारावाहिक हों, सिनेमा जगत् हो, या पशुता को जन्म देनी वाली शिक्षा हो। हमें यानी अभिभावक को, समाज को और सरकार को सबको जिम्मेदारी लेनी होगी कि अपने बच्चों की परवरिश उचित तरीक़े से करके उनमें उत्तम संस्कार भरें ।

बच्चों के हाथ पर मोबाइल नहीं बल्कि गीता, रामायण, हितोपदेश ,नैतिक शिक्षा आदि की चारित्रिक व ज्ञानपरक पुस्तकें पकड़ायें ताकि एक स्वस्थ और आदर्श मष्तिष्क का निर्माण हो सके अन्यथा बच्चों के चरित्र हन्ता हम ही सिद्ध होंगे। 

                 ✍️अनुजपण्डित
                    

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