Wednesday, November 4, 2020

आख़िर क्यों लग रहा है जंगलों की ख़ूबसूरती पर ग्रहण!

जंगलों, पहाड़ों एवं झरनों की खूबसूरती तब तक है, जब तक इनके वास्तविक या प्राकृतिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़ न की जाए! 


घने बीहड़ों, चोटियों एवं दुर्गम स्थानों पर अवस्थित ऐतिहासिक धरोहरें पर्यटन की धारा से जुड़कर सुगम और विकसित तो हो जाती हैं किंतु हकीकत यह है कि उनकी मूल भौगोलिक स्थिति विकृत हो जाती है। 

बहुधा देखने को मिल जाता है कि  जंगल को चीरकर  चिकनी सड़कें बना दी जाती हैं जिससे कि  आवागमन सरल हो सके!  सच कहें तो सबसे ज्यादा वही जंगल चाटे गये हैं जिनके बीच से ऐसी चिकनी सड़कें बनाई जाती हैं।


जलप्रपातों, झरनों एवं गुफाओं का आधुनिक तकनीकों द्वारा भौतिक रूप से सौन्दर्यीकरण कर दिया जाता है ताकि पर्यटकों की संख्या में बाढ़ आ जाये साथ ही स्थानीय लोगों को आय के स्रोत उपलब्ध हो जायें परन्तु पर्यटन के नाम पर पिकनिक मनाने गये हुए प्रकृतिप्रेमी डिस्पोजल,बोतल,पॉलीथीन आदि का अंबार लगाकर प्रकृति को हानि ही पहुँचाते हैं!

ऊँची कंदराओं को काटकर मन्दिर और आलीशान आश्रम बना देना, अत्यधिक चढ़ाई वाले पहाड़ों को खोदकर अत्याधुनिक सीढ़ियाँ बना देना तथा आस-पास के सुंदर पेड़ों को उखाड़कर मार्बल-संगरमरमर बिछा देना पर्यटकों को सुविधा प्रदान कर सकता है किंतु ऐसा करने से प्रकृति की मूल सुंदरता पर ग्रहण लग जाता है!

जिन जंगलों को बचाने की बात की जाती है, उन्हीं जंगलों को काट-छाँटकर उनके भीतर स्थित विशेष स्थान को विकसित किया जा रहा है!


 ऊबड़-खाबड़ रास्ते जिन पर चलते समय कब काँटा चुभ जाए पता ही नहीं चलता, कब शर्ट में करकटउनी चिपक जाती हैं आभास ही नहीं होता,आपके सामने से आपको देखकर हिरन कितनी प्यारी दौड़ लगा देता है कि मन स्वतः प्रसन्न हो उठे! प्यास लगे तो छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों पर बहने वाला साफ़ एवं मीठा पानी पीने में जरा भी हिचकना नहीं तथा बइर-मकोई पर नजर पड़ते ही उनको खाये बिना न रह पाना--ये ही तो सच्चा आनन्द प्रदान करते  हैं।
अब ये ही न बचेंगे तो काहे का जंगल और कैसी रमणीयता!

जंगल, पहाड़,कन्दराएँ,गुफाएँ, झरने व बहरा-पोखरा- ये सभी सच्चा आनन्द तभी प्रदान  करते हैं जब इन्हें इनके मूल रूप में रहने दिया जाए!


                  ✍️अनुजपण्डित

7 comments:

  1. आज की जरुरत हमारे कल को अंधकार मे डाल रही है

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  2. सत्य कहा आपने रोहित जी🌺

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  3. हम अपनी भौतिकता की पिपासा में प्रकृति को चोट पे चोट दिये जाते हैं.... वह मौन उसे सहती है पर...प्रतिशोध भविष्य के गह्वर में छोड़ देती है। वर्तमान विभीषिका इसका उदाहरण है।

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  4. नीचे गिरे सूखे पत्तों पर अदब से चलना जरा,
    कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह मांगी थी…

    बहुत ही बढ़िया विचार ज्येष्ठ भ्राता।

    ReplyDelete
  5. नीचे गिरे सूखे पत्तों पर अदब से चलना जरा,
    कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह मांगी थी…

    बहुत ही बढ़िया विचार ज्येष्ठ भ्राता।

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  6. नीचे गिरे सूखे पत्तों पर अदब से चलना जरा,
    कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह मांगी थी…

    बहुत ही बढ़िया विचार ज्येष्ठ भ्राता।

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