इस समय श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक काफ़ी सान्त्वना प्रदान कर रहे हैं, बड़े से बड़े दुःख को सहन करने की शक्ति दे रहे हैं तथा हर परिस्थिति में विचलित न होने की सीख दे रहे हैं।
तभी तो कहते हैं कि मनुष्य के जीवन को सुगमता से चलायमान रखने हेतु गीता-ज्ञान आवश्यक है। जीवन जीने की कला तो सिखाती ही है साथ ही लाभ-हानि,जीवन-मरण और सुख-दुःख की स्थिति में सामान्य रहकर स्थितप्रज्ञ बनने की ओर प्रवृत्त करती है।
शरीर अनित्य है।यह सदा रहने वाला नहीं, जो पैदा होगा उसका मरण निश्चित है और मरे हुए का जन्म लेना निश्चित है। नित्य तो केवल आत्मा है जो हमेशा रहती है, इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन होता ही नहीं, यह न तो मरता है न ही मारता है। तो फिर दुःख और विलाप किस बात का!
सृष्टि का संचालन एक सुनियोजित व्यवस्था के आधार पर होता है। जो चला गया वह चला गया। जो बचेगा उसके जिम्मे व्यवस्थाएँ बचती हैं, यही संसार का नियम है। किसी के जाने पर जो शोक होता है वह मोहवश होता है, स्वार्थवश होता है।
इतने दिनों तक किसी के साथ जीवन बिताओ और सहसा वह छोड़कर चला जाये तो मोह के कारण शोक उत्पन्न होना इस बात का प्रमाण है कि आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान ही नहीं क्योंकि जिसके जाने पर आप शोक करते हो वह है शरीर और शरीर अनित्य है, इसका नष्ट होना पहले से ही निर्धारित है।
गीता के उपदेश हैं तो सत्य किन्तु उनके आधार पर स्वयं को मोह से मुक्त कर पाना कठिन है। कठिन इसलिए है क्योंकि अज्ञान और मोह का पर्दा आँखों पर पड़ा है।यदि जीवन के रहते यह पर्दा उठ गया तो आपका चित्त सारे विकारों से रहित होकर प्रसन्न हो जाएगा और आप मोक्ष के अधिकारी बन जायेंगे।
✍️ अनुजपण्डित
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