वैदिक एवं सनातन संस्कृति को बचाने का वीणा उठाने वाले तथा आचार्य गोविंद भगवत्पाद के शिष्य आदिशंकराचार्य केरल प्रान्त के कलाड़ी नामक स्थान पर जन्मे थे।
"ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" का मूलमंत्र देने वाले साक्षात् भगवान् शंकर के अवतार आदिशंकराचार्य ने जीव और परमात्मा को अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही स्वीकार कर अद्वैतवेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया।
तत्कालीन समाज में विलुप्त तथा विकृत हो चुके वैदिक ज्ञान-विज्ञान का पुनरुत्थान करने के लिए इन्होंने वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक धरातल पर मजबूत और समृद्ध करने के उद्देश्य से उपनिषदों पर भाष्य लिख डाला। वेदों के विषय में गलत धारणा रखने वाले बौद्ध,चार्वाक और जैन मतों का खंडन शास्त्रार्थ के माध्यम से बड़ी सरलता से कर दिया तथा वेद को ईश्वरीय सम्बोधन करार देते हुए देश के कोने-कोने में इसका प्रचार-प्रसार करने का दुष्कर कार्य किया।
धर्म के नाम पर मर रही लोगों की आस्था को तरोताजा करने के उद्देश्य से देश के चारों कोनों पर चार मठ ज्योति,गोवर्द्धन, शृंगेरी तथा द्वारिका की स्थापना कर दी।इन चारों मठों में शंकराचार्य के पद की परंपरा आज भी संचालित है।
दुःख होता है यह देखकर कि जिस वैदिक संस्कृति को नई दिशा देने के मात्र आठ वर्ष की आयु में शंकराचार्य संन्यासी बनकर निकल पड़े, उसी को आज की हिन्दू पीढ़ी पीछे छोड़ती जा रही है। प्रत्येक हिन्दू का यह नैतिक कर्त्तव्य बनता है कि अपनी वैदिक और सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के पुरजोर प्रयास करने चाहिए ताकि फिर से किसी शंकर को इसके उत्थान के लिए अवतार न लेना पड़े ।
हिंदुत्व और भारतीय सनातन संस्कृति की बात करने वाले तथाकथित हिंदुओं को आदिशंकराचार्य के जीवन,कार्यों और संदेश को तो स्मरण रखना ही चाहिए!
वेदों,उपनिषदों और स्मृतियों के पन्ने पलटिये,उनपर लिखी बातों को अपनाइए तथा उसके प्रचार-प्रसार हेतु कटिबद्ध रहिये,तब जाकर आदिशंकराचार्य का उद्देश्य पूरा होगा अन्यथा जयंती तो प्रत्येक वर्ष मनाई ही जाती है!
✍️अनुजपण्डित
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