Tuesday, May 4, 2021

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🍂"वेदों की ओर लौटो" कहने का आशय है प्रकृति की ओर लौटो। प्रकृति ही तो है जिसकी स्तुति,वर्णन वेदों की ऋचाएँ करती हैं! दुनिया का सबसे पुराना ग्रन्थ ऋग्वेद प्रकृति की विशेषता,उसके गुणों तथा महत्त्व को बखूबी बयाँ कर रहा है। 


पञ्च महाभूतों से बना यह मानव शरीर स्वयं में एक प्रकृति ही है। जो प्रकृति बाहर है, वही हमारे शरीर के भीतर भी। इन पञ्च महाभूतों का ठीक रहना बहुत जरूरी है क्योंकि इनमें से यदि एक तत्त्व भी गड़बड़ाया तो आप अस्वस्थ और बीमार महसूस करने लगते हैं। इस शरीर को चलायमान और स्वस्थ रखने के लिए जितनी जरूरी शरीर की प्रकृति है, उतनी ही जरूरी है बाहर की प्रकृति।

वैज्ञानिकता और विकास की राह पर सरपट दौड़ रहे मनुष्य को न तो बाहर की प्रकृति की चिंता रही और न ही निज प्रकृति की तो बीमारियाँ, रोग तो पनपेंगे ही! बाहर  और भीतर की प्रकृति इसलिए समान हैं क्योंकि मनुष्य को स्वस्थ और नीरोग रखने के लिए बाहर की प्रकृति से तादाम्य स्थापित करना बहुत आवश्यक है।


अब न तो बाहर की प्रकृति की स्थिति ठीक बची और न ही भीतर की। जंगल उजाड़ दिए गए,वनाधिकारियों के साथ मिलकर जंगल के सौदागर वनसम्पदा को लील गये,पहाड़ों को खोदकर समतल कर दिया गया,नदियों-झरनों का पानी ऐसे सूख गया है जैसे किसी ने अग्निबाण का संधान किया हो,पक्षी और अन्य वन्यजीव मिस्टर इंडिया हो गए हैं। जंगल जाता हूँ तो घनी छाँव को तरस जाता हूँ, नदियों का मीठा पानी पिये कई बरस बीत गए,बेर और मकोई याददाश्त मात्र बनकर रह गयी हैं। 

प्रकृति मानव से कुछ नहीं माँगती, मत लगाइए पेड़,न दीजिये उन्हें पानी,वे भगवान् भरोसे पर्वत पर हर्रा लेंगे किन्तु जब आप कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करते हैं तो उनकी आह निकलती है जो शाप बनकर मानवजाति पर मंडरा रही है। यह तो कहिये हमारे पूर्वज इतने जानकार थे कि उन्होंने सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले और औषधीय गुणों वाले पेड़ों को पूज्य बना दिया ताकि कोई इन्हें क्षति न पहुँचाए किन्तु निर्मम और स्वार्थी मानुष ने कसाई की तरह इन पेड़ों के टुकड़े टुकड़े किये हैं। अब, जब मानव बुरी तरह रोगों से घिर गया है तो उसे शुद्ध हवा और स्वच्छ जलवायु की आश है जो कि कब का क्षीण हो चुकी है।


बाहर की प्रकृति के अलावा भीतर की प्रकृति का भी ध्यान मानव ने नहीं रखा है।सूर्य के साथ जागना और राकापति के साथ सोना शायद ही आज कोई करता हो! बाहर की वायु को शरीर के भीतर प्रविष्ट कराने के लिए प्राणायाम तो करते हैं किंतु शुद्ध वायु बची कहाँ है! मनुष्य ने प्रकृति को जितना रुलाया है, प्रकृति उससे कम ही रुला रही है क्योंकि प्रकृति मानव की तरह निर्मोही नहीं! ये महामारी, रोग,अशांति सब मनुष्य के कर्मों का फल ही तो हैं!

यदि जीवन बचाना है, बीमारियों से पीछा छुड़ाना है तो हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा,उसकी देख-रेख करनी होगी और उसकी उपयोगिता को समझना होगा। इसके लिए हमें वेदों को खंगालना ही होगा जहाँ प्रकृति की महत्ता पन्नों पर छपी है।


               ✍️अनुजपण्डित

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