Monday, April 24, 2023

कालिदास और समुद्रगुप्त से जुड़ी झूठी है यह बात

🍂महाकवि कालिदास तथा समुद्रगुप्त के विषय में वर्षों से चली पल रही मिथ्या धारणा को अब भूलना होगा। "Kalidas is the shakespeare of india" एवं  "Samudragupta is called the nepoleon of india"- ये दोनों उक्तियाँ असंगत हैं। पाश्चात्य कवि तथा शासक को  भारतीय कवि तथा शासक से बेहतर बताने की यह कवायद साफ़ ज़ाहिर करती है कि भारतीय कवि एवं शासक हर मायने में कमतर थे!

कविकुल के गौरव कालिदास को जिसने पढा है,वह यकीन के साथ कह देगा कि कालिदास सदृश कालजयी एवं उद्भट कवि आज तक न हुआ। कुछ मायनों में आदिकवि वाल्मीकि इनसे आगे अवश्य हो सकते हैं किन्तु शेक्सपीअर! कत्तई नहीं। शृंगार रस में सनी हुईं,उपमा अलंकार की बाढ़ से आप्लावित तथा प्रसाद गुण में लिपटीं उनकी रचनाएँ विभिन्न छन्दों की परिधि में नर्तन कर रही हैं। उनका खण्डकाव्य मेघदूतम् पढ़ते-पढ़ते भला किसके दृग् नहीं भीगते! भौगोलिक वर्णन पढ़कर क्या आप यह नहीं बोल पड़ेंगे कि कालिदास का भौगोलिक ज्ञान कितना दुरुस्त था! ऋतुसंहार पढ़ने से सहज ही बोध हो उठता है कि भारत की ऋतुओं की कितनी अच्छी समझ थी इन्हें! शाकुन्तल जैसा नाटक तो विश्वप्रिय है।

अब रही बात नेपोलियन की तो भले ही वह कुशल योद्धा और शासक रहा हो,अनेक लड़ाइयाँ लड़ी हों किन्तु उसका काल स्वर्णकाल नहीं ही था! इसके ठीक विपरीत गुप्त वंश के चौथे शासक समुद्रगुप्त पराक्रमी योद्धा,सफल सेनानायक एवं कुशल प्रशासक तो थे ही,साथ ही उनका काल भारत के स्वर्णयुग के जन्म का काल था।  समुद्र की सीमाओं पर्यन्त अपनी विजय पताका फहराकर उन्होंने भारत को एकता के सूत्र में पिरोया। भला नेपोलियन की क्या सानी!

इन सब बातों से इतर सबसे महत्तपूर्ण बात यह कि कालिदास शेक्सपीअर के पूर्ववर्ती हैं तथा समुद्रगुप्त नेपोलियन के पूर्ववर्ती, तो यदि कहना ही है तो उक्त दोनों उक्तियों को उलट कर कहना चाहिए- "Shakespeare is the Kalidas of india"  तथा "Nepolean is called the Samudragupta of india."
                             ✍️   अनुज पण्डित

Saturday, April 22, 2023

विश्व पुस्तक दिवस पर खरी-खरी बात

ऐसा माना जाता है कि अपने समय के कालिदास कहे जाने वाले विलियम शेक्सपीअर के निधन-दिवस पर प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को विश्व-पुस्तक दिवस मनाया जाता है। यूनेस्को ने मनुष्य को पुस्तकों के समीप लाने के लिये वर्ष 1995 में इस दिवस की शुरुआत की ।


मनुष्य को पुस्तकों के समीप लाने की बात से स्पष्ट है कि मनुष्य ने पुस्तकों से पर्याप्त दूरी बना लिया है।यह कहने और सुनने में थोड़ा आश्चर्यजनक लग सकता है किंतु यह कटु सत्य है कि आज के तकनीकी युग में प्रत्येक आयुवर्ग का व्यक्ति पुस्तकों से रिश्ता तोड़ कर इंटरनेट की गोद में आ बैठा है।इंटरनेट पर विभिन्न प्रकार की वेबसाइट्स और सोशल मीडिया जैसे आशियाने हैं जो आज की पीढ़ी के सामाजिक अड्डे बन चुके हैं। 

एक दौर था जब न तो मोबाइल फोन थे,न कंप्यूटर थे और न ही इंटरनेट।पढ़ने और ज्ञान प्राप्त करने के मुख्य स्रोत मात्र पुस्तकें और शिक्षक थे किन्तु सम्प्रति इंटरनेट की दुनिया ने काफी हद तक पुस्तकों और शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों का मोहभंग किया है। माना कि इंटरनेट में लगभग सभी विषय उपलब्ध हो जाते हैं किंतु पुस्तकों से पढ़ने में जो आनन्द और ज्ञान की प्राप्ति होती है वो तकनीकी संसाधनों से नहीं।

पुस्तकें जीवन का वे अनिवार्य अंग हैं जिनके बिना जीवन जीने की कला,सामाजिकता तथा मानवता का बोध अधकचरा रह जाता है। सृष्टि के आदि में  ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित था जिसे बोलकर और सुनकर प्राप्त किया जाता था। कालान्तर में विकासशील मनुष्यों ने गुरुकुलों को विद्यालयों में परिवर्तित कर दिया, जहाँ पर एक व्यवसायी की भाँति शिक्षक माल बेचते हैं और विद्यार्थी ग्राहक की भाँति उसे खरीद लेता है। 

हालाँकि जब तक इंटरनेट की दुनिया में व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी की स्थापना नहीं हुयी थी तब तक मजबूरीवश कुछ विद्यार्थी  ईंट-बालू-पत्थर निर्मित कक्षाओं में बैठकर शिक्षक और पुस्तकों को तवज्जो देते थे किन्तु जब से ब्रह्माण्डीय ज्ञान कंप्यूटर, मोबाइल और टेलिविज़न पर अवतरित हुआ है तब से विद्यार्थी और पुस्तकों का रिश्ता तलाक की कगार पर आ पहुँचा है।


जिस देश की पुस्तकों में वेद,वेदाङ्ग, उपनिषद् और पुराणों से साक्षात्कार होता हो, जिस देश की सभ्यता-संस्कृति और यशगाथा पुस्तकों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित की गयी हो,उसी देश के विद्यार्थी और अध्ययन-प्रेमी  इन महत्त्वपूर्ण और जीवनोपयोगी पुस्तकों को लाल कपड़े में लपेटकर सन्दूक में भर देते हैं तथा उन्मुख हो जाते हैं इंटरनेट की दुनिया की ओर जहाँ खोखले और अस्थायी ज्ञान की भरमार है!

 यद्यपि आधुनिकता के दौर में इंटरनेट,कंप्यूटर और मोबाइल की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता  क्योंकि इन तकनीकों की मदद से मनुष्य के कई सारे कार्य आसान होते हैं और समय की बचत होती है किंतु अध्ययन हेतु  पुस्तकों की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है। ऐसा इसलिए क्योंकि इंटरनेट में पढ़ाई करने से मष्तिष्क और आँख जैसी शारीरिक बीमारियाँ पनपती हैं, मन एकाग्र नहीं हो पाता क्योंकि इंटरनेट में प्राकृतिक और अप्राकृतिक दोनों प्रकार की विषयवस्तु होती है, लिहाजा पढ़ने वाले का मन विचलित और भटकावशील हो जाता है। पुस्तकों के अध्ययन पर बल देने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में  किसी भी प्रश्न के उत्तर का अंतिम और प्रमाणित साक्ष्य पुस्तकें ही मानी जाती हैं।

  सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि आज की अधिकांश युवा पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई को गम्भीरता से लेती ही नहीं। बहुतेरे युवा-युवतियाँ किताबों से मुँह फेरकर चंद लाइक्स और फॉलोवर्स की कामना बलवती किये हुये सोशल साइट्स पर अंग-प्रदर्शन और अश्लीलता  के परीक्षा की होड़ में जुट जाते हैं कि काश इस परीक्षा में सबसे अव्वल होकर हम उन्नति के शिखर पर विराजमान हो सकें!


पुस्तकों की उपयोगिता और महत्ता के विषय में जितना कहा जाये ,कम ही होगा क्योंकि ब्रह्माण्ड की समस्त स्थावर और जङ्गम वस्तुओं का उल्लेख इन्हीं पुस्तकों में ही तो है। जीवन-दर्शन,मानव-मूल्य , पुरुषार्थ और समस्त प्राणी-भाव इन्हीं पुस्तकों में ही तो उकेरे गये हैं! यदि किताबों से मित्रता हो गयी और इन पर मन लग गया तो आपका अपना एक संसार होगा जहाँ ज्ञान-विज्ञान की रौशनी में आपकी आत्मा जगमगा उठेगी तथा समस्त अंधकार रूपी विकार दूर हो जायेंगे। 
अतएव मनुष्य को खासकर विद्यार्थियों को किताबी जीवन से सम्बन्ध प्रगाढ़ करने होंगे ताकि एक योग्य, तार्किक और स्वस्थ मानसिकता वाले व्यक्तित्त्व का विकास हो सके।

किसी ने क्या खूब कहा है-

"इश्क़ कर लो किताबों से बेइन्तहां।

एक ये ही हैं जो,अपनी बातों से पलटा नहीं करतीं।"


💐विश्व-पुस्तक दिवस की शुभकामनाएँ।💐
                       ✍️ अनुज पण्डित
फ़ोटो साभार गूगल

आइये जानते हैं "परशुराम" से जुड़ी ख़ास जनाकारी

🍂सृष्टि के प्रथम राम "परशुराम"

मान्यता है कि इस सृष्टि में कुल सात जन चिरञ्जीवी हैं- "अश्वत्थामा बलिर्व्यासोसो हनूमांश्च विभीषण:।
    कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।।"
अर्थात् अश्वत्थामा, राजा बलि, वेदव्यास,हनुमान्,विभीषण,कृपाचार्य तथा परशुराम । अब यहाँ पर 'चिरञ्जीवी' का अर्थ "अमर" मत लगा लीजिएगा क्योंकि इस मर्त्यलोक में जो जन्मा है,उसका मरण निश्चित है। लम्बी अवधि तक जीने वाले किसी भी जीव को अमर-संज्ञा दी जा सकती है। वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया को जमदग्नि तथा रेणुका से जन्मे  परशुराम का नाम केवल राम था,बाद में धनुर्विद्या हेतु शिव की उपासना करने से शिव ने प्रसन्न होकर इन्हें एक दिव्य परशु(फरसा) प्रदान किया, तभी से इनका नाम परशु समेत परशुराम पड़ा। भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम ही एकमात्र ऐसे अवतार हैं जिनके रहते विष्णु का एक और अवतार हुआ,अन्यथा एक अवतार के रहते दूसरा अवतार कभी न हुआ था। ईश्वर की लीला कितनी विचित्र है न कि एक अवतार दूसरे अवतार को तब तक नहीं पहचान पाया जब तक कि चाप चढ़वाकर परीक्षण न कर लिया! एकमात्र ये ही एक  अवतार हैं जिन्होंने अपने उत्तरवर्ती अवतारों के समय भी अपनी उपस्थिति प्रदान की। महाभारत काल में भीष्म,द्रोण तथा कर्ण को शिक्षा दी तथा कलियुग में भी होने वाले अवतार को शिक्षा देने का   दायित्व इन्हीं का होगा।
 शास्त्र ज्ञान से ब्राह्मण तथा शस्त्र ज्ञान से क्षत्रिय विप्रकुलशिरोमणि परशुराम ने जो भी किया समाज के कल्याण हेतु ही किया। आततायी कार्तवीर्य अर्जुन के वंश के लगभग इक्कीस राजाओं का संहार करके उन्होंने पृथ्वीवासियों को शान्ति तथा अभय प्रदान किया। विष्णु के इस अवतार ने कहीं पर भी अपना ईश्वरत्व प्रकट नहीं किया,बल्कि एक मानव की भाँति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे। न केवल आतताइयों को मारकर समाज को भयमुक्त किया बल्कि अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देकर समाज को विद्यादान भी किया। वे परशुराम ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम नारी सशक्तिकरण का बिगुल फूँका। इस प्रकार परशुराम के रूप में नारायण के इस अवतार ने ब्राह्म तथा क्षात्र दोनों धर्म निभाकर समाज का सर्वविध कल्याण किया।

                                 ✍️ अनुज पण्डित

Wednesday, April 19, 2023

सीता स्वयम्बर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

आख़िर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा देने में क्यों बिलम्ब किया ? जनक का परिताप, लक्ष्मण का क्रोध क्यों वे देखे जा रहे थे?क्या कोई और शूरवीर अपना बाहुबल आजमाने को शेष रह गया था या फिर कोई और बात थी जो मात्र विश्वामित्र ही जानते थे? इन्हीं समस्त जिज्ञासाओं के समाधान हेतु पढ़िये मेरा यह लेख👇

आइये, आपको मिथिलानरेश के उस दरबार में ले चलता हूँ,जहाँ सिया के स्वयम्बर  का आयोजन था, जहाँ देश-विदेश से बाहुबली,महाबली नरेश,युवराज तथा नर वेश में देवता,राक्षस,यक्ष तथा अन्य प्रजाति के लोग पधारे थे। जब स्वयम्बर की शर्त इतनी विशेष और जटिल हो तो भला प्रतिभागी सामान्य कैसे हो सकते हैं! शर्त स्वरूप भंग किया जाने वाला कोदण्ड कोई साधारण धनुष नहीं बल्कि साक्षात् महादेव का धनुष "पिनाक" था।  उस धनुष को भंग करना तो दूर की बात,उसे उसकी जगह से हिला-डुला पाना भी टेढ़ी खीर थी।

उस दरबार की शोभा अयोध्या  के दो राजकुमार प्रभु राम और अनुज लक्ष्मण भी अपने गुरु विश्वामित्र-संग बढ़ा रहे थे। विश्वामित्र भले ही मन ही मन जानते रहे हों कि राजकुमारी वैदेही को अंततः मेरा शिष्य राम ही वरेगा किन्तु यकीन मानिए उनके सिवाय और किसी को अंदेशा तक भी नहीं था कि  यह साँवला सजीला नवयुवक कोई साधारण राजकुमार नहीं बल्कि स्वयं अखिल ब्रह्माण्ड का नायक है। हाँ, राम यह बात अवश्य जानते थे कि सिया आखिर में राम की ही होगी,क्योंकि ईश्वर से भला कौन सी बात छिपी है!

समस्त भूपतियों ने बारी-बारी से अपना बाहुबल  आजमाया,यहाँ तक कि हजारों की संख्या में भी सबने मिलकर जोर आजमाया किन्तु शिव-धनुष मानो हिमालय पर्वत की भाँति अडिग था! जनकपुर की महारानी सुनयना सहित मिथिलापति की आँखों से निराशा के मेघ बरसने लगे, सिया भी तनिक उदास  हुईं,जबकि उनका प्रेम और विश्वास मन ही मन अपने जनम-जनम के साथी राम के प्रति था। सीता यह सोचकर उदास हुईं कि मेरे राम तो मात्र यहाँ दर्शक बनकर आये हैं,धनुष-भंग प्रतियोगिता में उन्हें अवसर मिलेगा भी या नहीं क्योंकि सबकी दृष्टि में वे हैं तो बालक ही! फिर भी सीता की  डबडबायी आँखों में एक विश्वास तैर रहा था।

सभा मे सन्नाटा पसर गया, षड्विकारों से रहित विदेहराज को भी अपार क्रोध चढ़ा। उन्होनें दरबार में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की ओर नजर घुमाकर,वीरप्रसूता पृथ्वी को वीरविहीन तक कह डाला! अब सब यह मान बैठे थे कि सीता के योग्य कोई पुरुष है ही नहीं। उन्हें क्या पता कि इसी सभा में पुरुषोत्तम राम भी बैठे हैं। बाकी राजा तालाब हैं तो राम समुद्र और सीता जैसी महानदी समुद्र को छोड़कर भला कहाँ मिलेगी!

मिथिलापति ने अपनी शर्त तोड़ दी। यदि राजर्षि कौशिकनन्दन और उनके साथ आये हुए अयोध्या के दोनों राजकुमारों को छोड़कर बात करें तो लगभग समस्त प्रतिभागियों के शिर लज्जा से झुके हुए थे। अब गौर करने वाली बात यह है कि विश्वामित्र ने राम को धनुष भंग की आज्ञा उस समय क्यों नहीं दी,जब विदेहराज समस्त राजाओं,राजकुमारों और शूरवीरों को धिक्कार रहे थे! तब भी नहीं जब उन्होंने पृथ्वी को वीरों से विहीन तक  कह दिया! जनक और सुनयना की आँखों से उमड़ते हुए समुद्र में अविश्वास और निराशा के ज्वार-भाटा भी विश्वामित्र देख रहे थे, फिर भी मन्द मुस्कान लिए हुए वे चुप रहे! 

लक्ष्मण ने अपने क्रोध से जनक के सिंहासन समेत समूची सभा को हिला दिया और यह भी कह गए कि यदि मुझे आज्ञा मिले तो मैं गेंद की भाँति इस धरती को हवा में उछाल दूँ फिर भी विश्वामित्र ने शान्त वत्स! शान्त! के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा! आख़िर विश्वामित्र किसलिए राम को आज्ञा देने में विलम्ब कर रहे थे! क्या उन्हें किसी की प्रतीक्षा थी या विदेहराज के धैर्य की अभी और परीक्षा लेनी थी!  क्या अभी कोई और वीर अपनी भुजाओं का बल आजमाने हेतु शेष रह गया था! इन्हीं जिज्ञासाओं के ज़वाब मैं दूँगा अगली पोस्ट पर। मैं कुछ नया तर्क रखने का यत्न करूँगा। शायद आप सबको पसन्द आये! तब तक आप लोग विचार करें कि आख़िर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा देने में एक लम्बा समय क्यों लिया!

मानसकार लिखते हैं-"विस्वामित्र समय सुभ जानी।बोले अति सनेहमय बानी।।उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।" -इन  चौपाइयों को पढ़कर आपके मस्तिष्क में भी प्रश्न कौंध गया होगा कि विश्वामित्र को कैसे पता कि अब धनुषभंग करने का  शुभ समय है! इसका जवाब हो सकता है कि विश्वामित्र नक्षत्र और मुहूर्त के ज्ञाता थे लेकिन जब समस्त प्रतिभागी अपना बाहुबल आजमा रहे थे,तब क्या समय अशुभ था!  बाबा तुलसी आगे फिर लिखते हैं -"लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े।काहुँ न लखा देखु सब ठाढ़े।।" अर्थात् श्री राम ने धनुष को कब हाथ में लिया,कब प्रत्यंचा चढ़ायी और कब तोड़ दिया,यह किसी ने नहीं देखा। राम  फुर्तीले हो सकते हैं किन्तु विश्वामित्र और राम को इतनी क्या जल्दी थी कि पल भर में धनुष को भंग कर दिया! 


विश्वामित्र ने जब राम को आज्ञा दी तो कहा कि हे राम! तुरन्त उठो,तुरन्त जाओ और तुरन्त ही धनुष को तोड़ दो। एक पल की भी देर मत करना। 
यदि विश्वामित्र को इतनी ही जल्दी थी तो अब तक जनक का परिताप क्यों सुन रहे थे! जब समस्त प्रतिभागी विफल हो चुके थे तो  राघव को थोड़ा भौकाल जमाते हुए,चारों तरफ निहारकर इत्मीनान से धनुष भंग करना चाहिए! ताकि सभा  में उपस्थित जन आनन्द उठा पाते! कुछ तो था जो केवल और केवल विश्वामित्र ही जानते थे,अन्यथा जनक और सुनयना को इतनी देर तक आँसू नहीं बहाने पड़ते और न ही लक्ष्मण क्रोधित होकर अपनी ऊर्जा क्षीण करते!

इधर मिथिला में सिया का स्वयम्बर रचाया जा रहा है और उधर सिंहलद्वीप में शिव का जिद्दी भक्त रावण अपनी शैय्या से उठकर बैठ गया। उसे यह चिंता खाये जा रही थी कि राम धनुष तोड़ देंगे और मैं नहीं चाहता कि यह धनुषभंग मेरी जीवनलीला समाप्त करने का सूत्रपात करे। अब चूँकि काल और शनि को रावण बंधक बनाकर रखता था,सो उसकी शैय्या के पास ही रहते थे। दोनों ने पूछा-"क्या बात है लंकापति!आप परेशान क्यों हैं?" रावण ने पूरी बात बतायी तो उन दोनों ने कहा-"आप इसकी चिंता तो छोड़ ही दीजिये। हमारे रहते धनुषभंग कोई नहीं कर सकता। "

सबसे भारी ग्रह शनि ने कहा कि "मैं जाकर उस शिवधनुष में बैठ जाऊँगा, फिर कोई भी उस धनुष को हिला तक न सकेगा।" इतने में काल ने कहा कि "यदि कोई धनुष तोड़ भी दिया तो मैं तत्काल किसी न किसी बहाने से उसका काल बन जाऊँगा और उसकी मृत्यु हो जाएगी।" जनक की सभा में सजे धनुष पर शनि का भार और ऊपर मँडराते हुए काल को विश्वामित्र भलीभाँति देख पा रहे थे,इसीलिए वे राम को आज्ञा देने में विलम्ब कर रहे थे। जब समस्त भूपतियों ने अपना बाहुबल दिखा लिया,जनक निराश होकर शर्त तोड़ चुके तब शनि और काल ने समझा कि अब हमारा काम ख़त्म। अब कोई शेष नहीं बचा,जो आकर धनुष भंग करने की कवायद करेगा,सो हम दोनों को चलना चाहिए।

जैसे ही शनि ने धनुष से अपना प्रभाव अलग किया, वैसे ही विश्वामित्र ने तत्काल राम को आज्ञा दी कि हे राम!उठो,जाओ और तुरन्त धनुष भंग करो क्योंकि उन्हें आशंका थी कि यह शनि पुनः धनुष पर अपना प्रभाव जमा सकता है। इसीलिए बाबा तुलसी कहते हैं कि राम को धनुष उठाते और भंग करते हुए पल भर का भी समय नहीं लगा।


ज्यों ही राघव ने धनुष को प्रणाम किया,शनि शीघ्रता से पलटा किन्तु शनि के पुनः प्रभाव जमाने से पहले राम ने बड़ी फुर्ती से उसके दो टुकड़े कर दिए थे। अब शनि घबराया और काल से कहा कि मेरा काम तो यहीं तक था,अब तुम अपना प्रभाव दिखाओ। तब काल ने महेंद्र पर्वत पर तपस्या कर रहे परशुराम को प्रेरित किया और वे धनुष भंग करने वाले का साक्षात् काल बनकर आये थे किंतु राम को पहचानने के बाद उनका क्रोध शांत हो गया। 
              ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...