Tuesday, December 29, 2020

भगवान् के नाम पर परोसी जा रही है अश्लीलता

🍂शिव के नाम पर कालाबाजारी

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आधुनिक समाज का एक बहुत बड़ा तबका भक्ति, आस्था और मान्यताओं को रौंदकर अश्लीलतायुक्त आचरण करने पर उतारू है। जिस देश में भगवान् शिव,श्री राम और श्रीकृष्ण को आराध्यदेव का दर्जा प्राप्त है, उसी देश में इन नामों की आड़ में  अप्राकृतिकता परोसी जा रही है। 


एक ओर कल्याणकारी शिव के एक नाम महाकाल के नाम पर अधिसंख्य युवक खुद को तीस मार खान समझ रहे हैं तो दूसरी ओर समाज को दूषित करने वाला बॉलीवुड विभिन्न गानों एवं दृश्यों के माध्यम से हमारे आदर्श देवों की छवि धूमिल कर रहा है।

सोशल साइट्स पर ऐसे-ऐसे लोग महाकाल का अनन्य भक्त होने का ढोंग रच रहे हैं जिन्होंने कभी एक मिनट भी भोलेनाथ का नाम जपने की जहमत नहीं उठायी। एक स्लोगन ऐसा है जो बहुत तेजी से लोगों की टाइमलाइन पर दौड़ रहा है-

"अकाल मृत्यु वह मरे, जो काम करे चण्डाल का।

काल भी उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का।।"


 संहारकर्ता शिव को महाकाल के नाम से अभिहित किया जाता है। शिव में वह परमशक्ति है जो होनी को भी टाल सकती है।तभी तो गोस्वामी जी ने कहा है कि- "भावी मेट सकहिं त्रिपुरारी।"  यह भी कहा जाता है कि किसी बड़ी दुर्घटना या अल्पमृत्यु का काट महामृत्युंजय मंत्र में सन्निहित है लिहाजा लोग इस मंत्र का जप करवाते हैं। 

इस दृष्टि से उपर्युक्त स्लोगन का अर्थ बिल्कुल सही है किंतु इस स्लोगन का हुंकार भरने वाले तथाकथित शिवभक्तों ने कभी खुद से पूछने की कोशिश की कि क्या हम सच में शिवभक्त कहलाने के अधिकारी हैं? भक्ति और भक्त होने का दिखावा करने से भगवान् कृपा नहीं करते बल्कि भगवान् को प्रसन्न करने के लिए एक सच्चे साधक की भाँति साधना करनी होती है।

अभी हाल ही में मैंने यूट्यूब पर एक वीडियो (डीजे भेड़िया)देखा जिसमें भेड़िया का मुखौटा लगाए एक व्यक्ति की पीठ पर शिव का टैटू अंकित है और शिवतांडव स्तोत्र   के उच्चारण के साथ वह व्यक्ति और उसकी टीम एक लड़की को छेड़ते हुए दर्शाए गए हैं।

यह दृश्य "खूँखार भेड़िया"नामक एलबम का है,जिसका निर्देशन उमा गैटी एवं प्रिंस धीमान ने किया है। 

यह अत्यंत शर्म और अनैतिकता की बात है कि शिवतांडव को गाते हुए एक लड़की के साथ छेड़छाड़ की जाती है। जिस शिवतांडव को लंकापति रावण ने शिव की प्रशंसा में गाया उस स्तोत्र  को ऐसे अश्लील दृश्यों हेतु प्रयुक्त किया जाता है! 

इसके अतिरक्त भी अन्य बहुत बहुत सारे गीत हैं जिनमें राम और कृष्ण को भी नहीं छोड़ा गया है। "दम मारो दम मिट जाए गम,बोलो सुबह-शाम हरे कृष्ण, हरे राम।" -इस गाने में यह स्पष्ट रूप से सलाह दी जा रही है कि गम मिटाने के लिए नशा करलो और नशे की हालत में हरे कृष्ण-हरे राम का जप करो!  "राम नाप जपना,पराया माल अपना" जैसे गानों से बॉलीवुड क्या बताने की कोशिश कर रहा है? 

बॉलीवुड तो बॉलीवुड  आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया में भी लोगों के बीच एक बहुत बड़ा भ्रम घूम रहा है कि शंकर भगवान् गाँजा पीते थे तो हम भी उनका नाम लेकर दो फूँक मार लेते हैं! ऐसी सोच अज्ञानता को दर्शाती है और साथ ही अध्ययन की कमी भी। किसी भी ग्रन्थ में शिव को गंजेडी के रूप में वर्णित नहीं किया गया है। 

फिल्में,वेबसीरीज,टीवी सीरियल्स सबमें से कहीं न कहीं  एन्टी हिन्दू की दुर्गंध आ रही है। राम के नाम पर कट्टरपंथी,कृष्ण की रासलीला के नाम पर अश्लीलता और शिव के नाम पर नशा दिखाया जाना हिन्दू मान्यताओं और आस्था को ठेस पहुँचाना है। ऐसी अश्लीलताओं पर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगना चाहिए ताकि  आने वाली पीढ़ी की आस्था बनी रहे देवी-देवताओं पर और हमारे पूज्य आदर्शों की छवि धूमिल न हो!

                  ✍️ अनुज पण्डित

Tuesday, December 15, 2020

"बीहड़ का बागी" वेब सीरीज क्या सच में दस्यु सम्राट "ददुआ" से सम्बंधित है?

बीहड़ का बागी : रील लाइफ या रियल लाइफ?

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निर्देशक रितम श्रीवास्तव ने बीहड़ का बागी नाम से जो वेब सीरीज बनाई है उसे लेकर यह दावा किया जा रहा है कि यह सीरीज बुन्देलखण्ड के बहुचर्चित डकैत शिवकुमार उर्फ़ ददुआ के जीवन पर आधारित है किंतु 

 वेब सीरीज देखने के बाद यह साफ़ पता चलता है कि दस्यु सम्राट ददुआ  के जीवन पर यह फिट नहीं बैठती। वेब सीरीज में  दिलीप आर्य ने शिव की भूमिका में शिवकुमार का रोल तो बखूबी निभाया है किंतु निर्देशक का उद्देश्य ददुआ की कहानी दिखाना नहीं बल्कि मात्र उसके नाम पर वेब सीरीज बनाकर कमाई करना है।

इस वेब सीरीज में बुन्देलखण्ड को  बदनाम करने और नीचा दिखाने की पूरी कोशिश की गई है। "बुन्देलखण्ड का रिवाज है डाकुओं को पनाह देना" आदि कुछ वाक्य ऐसे हैं जो यह संकेत करते हैं कि डाकू बनना और उनको शरण देना यहाँ की परम्परा है। किंतु निर्देशक ने यह जरा भी सोचने की कोशिश नहीं की कि आख़िर किन विवशताओं के तहत लोग डाकुओं को पनाह देते रहे हैं! 


पहाड़ों, जंगलों के नीचे बसे जो गाँव हैं,तनिक वहाँ रहने वाले लोगों से पूछिये कि किस तरह वे पुलिस और डाकुओं के बीच भय के माहौल से जूझते रहते हैं। यदि पुलिस को सूचना दी तो डाकू उन्हें प्रताड़ित करते हैं और यदि डाकुओं का पक्ष लिया तो मुखबिरी के जुर्म में पुलिस उन्हें अंदर कर देती है। अब  पुलिस  चौबीस घण्टे गाँववासियों को सुरक्षा तो प्रदान कर नहीं सकती लिहाजा मजबूरन गाँव की गरीब और डरी हुई जनता डाकुओं का कहना मानकर चुपचाप ज़ुल्म सहती है।

निर्देशक को वेब सीरीज में यदि सच में ददुआ की कहानी दिखाना था तो इसके लिए उन्हें बुन्देलखण्ड के उन इलाकों का जायजा लेकर जनसंवाद करके सम्बन्धित कहानी तैयार करनी चाहिए थी क्योंकि निर्देशक ही इस वेब सीरीज की कहानी के लेखक भी हैं।  


उस कहानी में यह दिखाने का पूरा प्रयास किया जाना चाहिए था कि आख़िर दस्यु सम्राट के नाम से अपनी पहचान बनाने वाले ददुआ ने उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के जंगलों में लगभग तीस वर्षों तक अपनी दहशत बनाये रखने में कैसे कामयाब रह सका था! वेब सीरीज में डकैत शिव की पत्नी को विधायक और उसके भाई लालकुमार को व्यभिचारी के रूप में दिखाकर  शिव के विश्वासपात्र डॉक्टर साहब द्वारा उसकी हत्या करवा देना ये दोनों बातें शिवकुमार ऊर्फ़ ददुआ के जीवन से बिल्कुल अलग-थलग पड़ी दिख रही हैं। 

इसके अतिरिक्त एक पुलिस मुठभेड़ के तहत डाकू शिव का एनकाउंटर द्वारा हनुमान् जी की प्रतिमा के समक्ष  मारा जाना भी कपोल कल्पना ही है क्योंकि ददुआ की मृत्यु की कहानी लोगों के मुँह से कुछ अलग रूप में सुनने को मिलती है। 

डाकू शिव को हनुमान् भक्त दिखाकर हनुमान् जी के समक्ष ही मार गिराना  यह सोचने पर विवश करता है कि क्या एक भक्त की आस्था और अपने आराध्य के प्रति उसके विश्वास  का कोई महत्त्व नहीं? 

वेब सीरीज में डकैत शिव का एनकाउंटर दिखाकर पुलिस को हीरो बनाने का पूरा प्रयास किया गया है किंतु जरा सोचिए कि यदि कोई बदमाश पुलिस को चकमा देकर तीस वर्षों तक अपनी धौंस जमाये रहा तो इसकी मुख्य वजह पुलिस की असफ़लता और राजनीतिक हस्तक्षेप ही रहे होंगे! 

वेब सीरीज में यह भी कहा गया है कि बुन्देलखण्ड के लोग डकैतों की मूर्तियाँ लगाकर इनकी पूजा-अर्चना करते हैं। मैं इस तथ्य को एक सिरे से ख़ारिज करते हुये निर्देशक को बताना चाहूँगा कि कुख्यात डकैत ददुआ ने हनुमान् जी का  एक विशाल मंदिर बनवाया था।उसी मन्दिर में ददुआ और उसकी पत्नी की प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं किंतु उस मंदिर में लोग हनुमान् जी की पूजा करने जाते हैं न कि सपत्नीक ददुआ की। उनकी मूर्तियाँ मात्र निर्माणकर्ता के रूप में लगायी गयी हैं, न कि प्राणप्रतिष्ठित  देवता के रूप में!


चित्रकूट समेत समूचे बुन्देलखण्ड के लिए डकैत शिवकुमार ऊर्फ़ ददुआ एक मसीहा था या दुर्दांत अपराधी ? इसका ज़वाब यहॉं की जनता से संवाद करके ही प्राप्त किया जा सकता है। वैसे तो कोई डाकू,बदमाश और समाज में अव्यवस्था फैलाने वाले लोग मसीहा नहीं बल्कि अपराधी के रूप में ही जाने जाते हैं किंतु उनके द्वारा कुछ ऐसे समाजसेवी कार्य कर दिए जाते हैं जिनके कारण जनता उनकी सराहना भी क़रती है।

इस तरह  "बीहड़ का बागी" वेब सीरीज का यह दावा बेबुनियाद और खोखला है कि वह बुन्देलखण्ड के दस्यु सम्राट शिवकुमार ऊर्फ़ ददुआ के जीवन पर आधारित है और इसीलिए इसे रियल लाइफ नहीं बल्कि मात्र रील लाइफ कहना ही समीचीन होगा।


        ✍️अनुज पण्डित
#फ़ोटो_साभार_गूगल
         
        


Thursday, December 10, 2020

युवा लेखक के जन्मदिवस पर पढ़िये, उनके अन्तस् की आवाज की समीक्षा!

🍂 आज विश्व मानवाधिकार दिवस के साथ ही साथ चित्रकूट के एक उत्कृष्ट कलमकार का जन्मदिवस भी है। तस्वीर में मेरे साथ दिख रहे मन्द मुस्कानधारी Saurabh Dwivedi भैया का पृथ्वी लोक पर आगमन ही मानवाधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु हुआ है। 


मैं तो इसे संयोग नहीं बल्कि नियति की पूर्वमेव निर्मित योजना ही मानता हूँ क्योंकि इनके जन्म के  कुछ वर्षों बाद ही मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया और इनकी जन्मदिनांक के दिन ही इसे मनाने की मंजूरी भी दी गयी!

जो लोग इनसे जुड़े हैं, वे जानते ही होंगे कि इनके लेखन का उद्देश्य   जनकल्याण एवं मानव को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करना ही होता है। 

■ अपनी बेबाक लेखनी से शासन-प्रशासन को सदा सचेत करने वाले, निष्पक्ष समाचार-विश्लेषक युवा -कवि Saurabh Dwivedi भैया द्वारा विरचित #"अंतस् की आवाज" नामक  पुस्तक पढ़ने के बाद मैंने जो अनुभूति की,जो महसूस किया, वह आपके समक्ष बयाँ कर रहा हूँ--


■इस पुस्तक में लगभग 95 शीर्षक हैं जिनके माध्यम से एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को लक्षित करके अपने मन के एहसासों को प्रकट कर रहा है। यह प्रेमी कोई भी हो सकता है किंतु इन एहसासों को पढ़कर यह साफ़ स्पष्ट हो रहा है कि खुद लेखक ही प्रेमी है जिसने निश्छल भाव से अपने अंतर्मन में अपने प्रेम को जिया है।

■यूँ तो कहने को ये एहसास कविताओं में उपनिबद्ध हैं किंतु मुझे नहीं लगता कि इसे कविता कहा जाना समीचीन होगा क्योंकि लेखक ने ज्यों का त्यों अपने एहसासों को शब्दों में बयाँ कर दिया है। यदि कविता होती तो जबरन इसमें कविता के मानदंडों का ख्याल रखना पड़ता ।बहुतेरे कवि यही करते हैं कि  अपने अनुभव को कविता के रूप में बयाँ करने हेतु जबरन छंद, अलंकार और तुकबन्दी रखने का प्रयास करते हैं जिसके कारण एहसासों के वास्तविक स्वरूप में परिवर्तन नजर आने लगता है। इस पुस्तक के लेखक का अभिप्राय अपनी कविताई दिखाना नहीं बल्कि वास्तविक एहसासों को हूबहू प्रकट कर देना है। इसलिए यह एक नई विधा 'एहसास' के रूप में हम सबके सामने आती है जो कि'कविता लिखता हूँ' नामक शीर्षक में दिखाई पड़ती है मुझे तो वाकई यह अद्भुत् विधा लगी।

■पुस्तक पढ़ते समय आरम्भ में तो प्रेमिका का कोई मूर्त रूप परिलक्षित नहीं होता किन्तु 'मर्दानी' नामक शीर्षक में लेखक ने शरीरधारिणी प्रेमिका का संकेत किया है,क्योंकि यहाँ पर लेखक को महिला जागरूकता की बात कहनी थी। इस पुस्तक में मात्र एहसासों का संकलन नहीं अपितु समाज के युवक-युवतियों के लिए एक सकारात्मक सन्देश और प्रेरणा है।
■'आई लव यू' नामक शीर्षक में एक प्रेमी खुद में स्थापित प्रेमिका के समक्ष प्रणय- प्रस्ताव रखता है जो पुस्तक के अंत तक स्वीकार नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि लेखक ने एकतरफा प्रेम का संकेत किया है तथा 'इमानऔर विश्वास'नामक शीर्षक में प्रेमिका के प्रति दीनता प्रकट की गई है।  

■'इजहारे मु्हब्बत' में लेखक ने आध्यात्मिक प्रेम को श्रेष्ठ और भौतिक प्रेम की नगण्यता दर्शायी है जिससे स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक प्रेम का क्षरण कभी नहीं होता जबकि भौतिक प्रेम वासना से पूरित होने के कारण शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। 


■लेखक ने कई जगह ऐसी उपमाओं का प्रयोग किया है जिसे कालीदासीय उपमा कहा जा सकता है क्योंकि कालिदास ने ज्यादातर उपमाएँ प्रकृति से दी हैं और इस पुस्तक के लेखक ने भी जगह-जगह प्रकृति की उपमाओं का प्रयोग किया है। लेखक ने मात्र उपमा ही नहीं दी बल्कि उन उपमाओं के माध्यम से विनाश की ओर जाती प्रकृति की चीज़ों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की है। वृक्ष, नदियाँ, सरोवर ,पक्षी और घोसलों के माध्यम से लेखक ने अपने एहसासों की अभिव्यक्ति की है ,लेखक ने चीख-चीख कर यह संदेश दिया  है कि इन सारी प्राकृतिक सम्पदाओं का विलुप्तीकरण हो रहा है जिसकी चिंता और संरक्षण  लेखक की और समाज की नैतिक जिम्मेदारी है। 

■लेखक को प्रकृति से इतना अधिक लगाव है कि उसने पुष्प को ही प्रेम का प्रतीक मान लिया है और उस प्रेम रूपी पुष्प को देख-देखकर ही वो अपने एहसासों को प्रेमिका से कहता है।इसके अतिरिक्त लेखक ने विश्व में बढ़ते जल-संकट के प्रति चिंता व्यक्त की है जिसे 'कीमत' और 'तरोताजा' नामक शीर्षकों में देख सकते हैं। अपने एहसासों और प्रेम की तुलना पानी से करके लेखक ने save water का समर्थन किया है तथा समाज को जल के प्रति सचेत किया है जो नितान्त समसामयिक है।

■कहीं-कहीं तो लेखक  उपमाओं के प्रयोग में सबको पीछे छोड़ कर खुद  श्रेष्ठ उपमाकार साबित हुआ है ,जैसे हाइड्रोजन से प्रेम की तुलना, कम्बल से प्रेम की तुलना वास्तव में अकल्पनीय और अद्भुत् है। लेखक ने ऐसी-ऐसी चीजों के माध्यम से अपने प्रेम को प्रकट किया है  जो लगभग सभी की दिनचर्या का साधन होती हैं, जो सुगमता से समझ में आ सकें। हाँ एक जगह 'एन्टी रोमियो स्क्वायड' का उदाहरण देकर लेखक ने वासनात्मक प्रेम का भी संकेत किया है क्योंकि यह स्क्वायड वासना में लिप्त युवक-युवतियों से सम्बंधित था न कि आध्यात्मिक प्रेम से। 

■'कोहिनूर' नामक शीर्षक में  लेखक ने राष्ट्रीय धरोहर के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की है क्योंकि भारत का कोहिनूर विदेश में है। यह बहुत अच्छी बात है और विशेषता भी जब कोई लेखक अपनी रचना में राष्ट्रीय हित की बात करता है ,भले ही वो बातें उपमा के रूप में ही क्यों न हों!


■पुस्तक  में  कविता के रूप में संकलित शीर्षकों को पढ़ते हुए कई बार एकतरफा प्रेम,प्रेमिका को धमकी(जीवन का रहस्य) कि तू नहीं मेरा प्रेम स्वीकार करेगी तो अन्य लोग भी हैं जो मेरा प्रेम पाने को तैयार हैं, प्रेमिका के प्रति दीनता, खोई हुई या मृत प्रेमिका की प्रतीक्षा -ये सब बातें कहीं न कहीं सच्चे प्रेम पर शक पैदा करती हैं जबकि लेखक /प्रेमी का प्रेम विशुद्ध है!

■लेखक प्रेम  की परिभाषा, अर्थ और स्वरूप की जानकारी और समझ  भलीभाँति रखता है क्योंकि प्रेम की अवस्था में क्या करना चाहिए या क्या होता है ये सब बातें भी अपनी पुस्तक में बताता है। जैसे प्रेम हो जाने पर संगीत सुनना मनको सुख देता है(अहसासों का खजाना) है, सिर्फ पा लेना ही प्रेम नहीं(विशुद्ध प्रेम),प्रेम के लिए निष्कपट मन होना चाहिए(प्रेम का गुब्बारा) आदि बातें एक आदर्श प्रेम की स्थापना करती हैं। 

■कई जगह तो लेखक /प्रेमी अपने प्रेम को खोता हुआ देखकर समाज और कानून पर तंज भी कसता है जिसमें बताया गया है कि किस प्रकार से हमारा समाज प्रेम का दुश्मन बना बैठा है। प्रेम में कानून और बन्धन नहीं होने चाहिए बल्कि प्रेम तो बेशर्त होता है।'व्यस्तता'नामक शीर्षक में लेखक ने बताया कि विदेह की अवस्था में भी एक सच्चा प्रेमी अपनी प्रेमिका को नहीं भूलता। प्रेम विश्वास पर टिका होता है। 'अखरोट' शीर्षक में तो प्रेम को ईश्वर ही मान लिया गया है।

■सबसे अद्वितीय बात तो यह है कि लेखक ने अपने एहसासों को बयाँ करने के लिए उदाहरण के तौर पर आधुनिक तकनीकी मोबाइल में प्रयोग होने वाले सॉफ्टवेयर्स का सहारा लिया है ।जैसे -शेयर इट,हर्ट एक एप  वाकई अद्भुत् उपमाएँ हैं। 'सही का टिक मार्क' नामक शीर्षक को पढ़कर मेरे मुँह से भी दो पंक्तियाँ निकल पडीं-कि 
"काश!कोई पैमाना होता मोहब्बत नापने का तो,
शौक से आते हम भी तेरे पास सबूत के साथ।"

■कहीं-कहीं विरोधाभास भी नजर आता है जो कि नगण्य है। पर्यारण के प्रति प्रेम(आच्छादन) भी स्पष्ट है। 

■ प्रेमिका का स्वरूप निश्चित नहीं,एकतरफा प्रेम, प्रेमिका के प्रति दीनता, प्रेमिका को धमकी, प्रेमिका खोई है या मृत यह भी स्पष्ट न होना, विरोधाभासी बातें आदि कुछ नगण्य दोष हैं । किन्तु प्रेम की अभिव्यक्ति, एहसासों में ईमानदारी, अनोखी उपमाओं का प्रयोग, प्राकृतिक वस्तुओं से लगाव और उनके प्रति चिंता, प्रेम विरोधी समाज को उलाहना, अपने भीतर ही अर्धनारीश्वर का निवास आदि बातों से यह साफ़ है कि लेखक ने  एक विशुद्ध प्रेम अपने अंतस् में जिया होगा, तब जाकर ऐसी अभिव्यक्ति कर सका है। 

■बस अब इतना ही कहूँगा क्योंकि मेरी समझ से प्रेम कहीं ज्यादा बड़ा है। मुझे जो महसूस हुआ, सो मैंने छोटी सी समीक्षा के रूप में अपनी बात रख दी।पुस्तक वास्तव में हृदयस्पर्शी है ,प्रेरणादायिका है,भावनात्मक करने वाली है। इसलिए आप  सब भी अवश्य पढ़िए, यह पुस्तक amazon पर उपलब्ध है-#अंतस्_की_आवाज ।

#Happy_birthday💕💐
#world_human_rights_day
                         
                         ✍अनुजपण्डित

Thursday, December 3, 2020

आख़िर क्यों नहीं करना चाहिए नागिन डांस का उपहास ?

बेशक़ शादी-ब्याह से अब बीन बाजा लुप्त हो चुका है किंतु नागिन नाच आज भी अनिवार्य रूप से प्रतिष्ठित है। आजतक अटेंड की गयी शादियों में मैंने कोई शादी ऐसी नहीं देखी जिसमें नागिन धुन न बजी हो और उस धुन पर आम आदमी से लेकर वीवीआइपी तक ने हाथ के पंजों से फन न काढ़े हों!


माना कि  नयी पीढ़ी आधुनिक गानों के वशीभूत होकर परम्परा रूप में विकसित नागिन डांस को देखकर दाँत निपोर देती है किन्तु यह सोचने योग्य बात है कि आधुनिक गाने एवं उनकी धुन बस कुछ ही दिनों तक हमारे बीच घूमते नजर आते हैं। लेटेस्ट गाना आते ही पहले वाला फुर्र हो जाता है किंतु नागिन की धुन  परम्परा रूप में आज भी हमसबके बीच विद्यमान है। आख़िर कुछ तो विशेषता होगी इस धुन की और इस पर थिरकने की!

 जिस तरह से शादी में नाऊ, नाउन, पण्डित,धोबिन, आदि अनिवार्य तत्त्व हैं ,उसी तरह नागिन धुन पर नृत्य भी अनिवार्य सा प्रतीत होता है! यूँ तो मैंने क़ई ऐसे नाचगीर भी देखे हैं जो नागिन नाच इतनी शिद्दत से करते हैं कि अपने नए या स्तरी किये हुए कपड़ों की परवाह किये बगैर लोट जाते हैं जमीन पर, फिर चाहे गोबर,पान की पीक या कीचड़-धूल ही क्यों न लपेटना पड़े!   

इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी  नागिन नाच-नचैया दिखते हैं जो रुमाल(हैंकी)  का एक छोर मुँह में और दूजा हाथ में दबाकर नाग तक बनने की कोशिश कर जाते हैं किंतु उत्कृष्ट अभिनेत्री स्वर्गीया श्रीदेवी ने वर्ष 1986 में आयी "नगीना" फ़िल्म में जिस कुशलता से नागिन नृत्य किया था,उस कुशलता से शायद ही अब कोई कर पाए!


उत्सव-समारोह आनन्द के लिए ही होते हैं इसलिए ऐसे करतब देखकर आनन्दमग्न रहिये किन्तु नागिन नाच जैसी परम्परा का उपहास करना उचित नहीं क्योंकि जिस तरह से नयी पीढ़ी को नए गाने और पसन्द हैं उसी तरह पुरनिया लोगों को पुराने! सबकी अपनी-अपनी पसन्द!


                         ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...