Friday, October 30, 2020

"महर्षि वाल्मीकि" ने दिया था "राम" को राष्ट्र सञ्चालन का निर्देश

एक क्रौंच पक्षी की निर्मम हत्या से उपजे शोक को श्लोक रूप में व्यक्त कर लौकिक साहित्य का प्रथम और विशाल महाकाव्य रच देने वाले महर्षि वाल्मीकि की दृष्टि  अतिगहन और दूरदर्शी थी।


चतुर्विंशतिसाहस्री  "रामायण" में उन्होंने न केवल  राम का जीवनचरित लिखा बल्कि राम में समाविष्ट उन समस्त गुणों को जनमानस के समक्ष इस इच्छा से रखा कि लोक में उनके जैसा ही नायक,राजा,पुत्र,पिता और पति होना चाहिए!

वाल्मीकि की विद्वता और उनकी दूरदर्शी सोच से श्रीराम इतने प्रभावित थे कि खुद को राष्ट्र संचालन का ज्ञान लेने से नहीं रोक पाए। राम निवेदन करते हुए कहते हैं कि-


त्रिलोकवेत्ता भगवन्! समग्रं,कृतं मया कर्तुमिहेष्यते यत्।

जानात्यतो यत्करणीयमस्तु ,स्वकं निदेशं महितं प्रदेहि।।


अर्थात्- हे भगवन्! आप तीनों लोकों का ज्ञान रखते हैं। जो मैंने किया और जो मैं करना चाहता हूँ, वह सब आपको विदित है। इसलिए अब जो मेरे लिए करने योग्य हो उसके लिए आप मेरा मार्गदर्शन करें।

राजा राम का का विनम्र निवेदन सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने मन्द मुस्कान के साथ कहा कि हे राजन!- जो जानने योग्य बातें हैं उनका आभास आपके मानसपटल पर स्पष्ट हो रहा है फिर भी राष्ट्र के ख़ातिर मैं आपको बताता हूँ। सुनिये-

"भवसागर से पार होने के लिए दो नौकाएँ हैं। एक पत्नी और दूसरी प्रशासन। जो राष्ट्र का अधिपति यानि राष्ट्रनायक भी है और पति भी है ,वह एक साथ दो नौकाओं पर नहीं सवार हो सकता क्योंकि दोनों दायित्वों का निर्वहन करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता।"


(प्रो.आर.बी. द्विवेदी प्रणीत "वाल्मीकिरामीयम्" से उद्धृत अंश..)

-महर्षि वाल्मीकि ने इतने कम शब्दों में कितनी बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात कह दी। यदि उनके इस कथन पर विचार किया जाए तो निश्चित रूप से आज के परिप्रेक्ष्य में भी अक्षरशः समीचीन साबित हो रही हैं।

दुःखद है कि देश की जनता का कुछ प्रतिशत प्रधानमंत्री और योगी आदित्यनाथ जी का विरोध यह कहकर कर रहा है कि जिसके पत्नी और बच्चे नहीं हैं, भला वह क्या समझेगा जनता की जरूरतों और भावनाओं को..!


     -बाकी.. फ़िर कभी......

शरदपूर्णिमा एवं वाल्मीकि जयन्ती की
हार्दिक मंगलकामनाएँ🙏💐🙏
                      ✍️अनुजपण्डित

Sunday, October 25, 2020

मनगढ़ंत धार्मिक कथाओं के प्रति सचेत रहें

आधुनिक समाज का एक बहुत बड़ा तबका अज्ञानता और चपरबाजी के आगोश में जकड़ा हुआ है। अध्ययन छटाँक भर का नहीं है किंतु ज्ञान उड़ेलते हैं पसेरी भर!

मैं दावे के साथ कह रहा हूँ कि कभी स्वप्न में भी आदिकाव्य रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस के पन्नों को न पलटने वाले लोग प्रभु राम और लंकापति रावण के को लेकर मनगढ़ंत कहानियाँ रचते हैं और जबरदस्ती रावण को श्रेष्ठ साबित करने के  कयास लगाते हैं।


राम के देश में रावण की पूजा करना भला कहाँ तक तर्कसंगत है? यह विडम्बना है कि  लोग रावण  जैसे अपराधी  के प्रति सहानुभूति दिखाने का ढोंग कर जाति के नाम पर समाज को बाँटने का काम रहे हैं। ईश्वर के नाम और उनकी लीला में जाति खोजना अल्पमति कहलाना है।

सनातन संस्कृति,आदर्शों,मूल्यों एवं आस्था को फूटी आँखों से भी न देखने वाले लोग ही मूल पौराणिक कथाओं को तोड़ मरोड़ कर परोसते रहते हैं ताकि हमें अपने ही देवताओं,परम्पराओं एवं मान्यताओं पर संदेह होने लगे।


मैं मात्र यह कहना चाहता हूँ कि आप लोग अपने मूल ग्रन्थों को पढ़ें,समझें और उन्हीं बातों पर अमल करें। व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी पर जन्मी अप्रमाणित जानकारी हर तरह से घातक है। 

समाज के दुश्मन जानते हैं कि हम में से बहुत से लोग वेदों,उपनिषदों,पुराणों,आर्षकाव्यों आदि का अध्ययन नहीं करते इसलिए कुछ भी भ्रामक बात फैलाएंगे तो ये लोग मान जाएंगे किन्तु आपको बहकावे में नहीं आना है। 

अपने पवित्र ग्रन्थों को ठीक से पढ़कर उन पर विश्वास कीजिये ताकि आपकी आस्था,मान्यता,और भक्ति को किसी तरह की आँच न आये।

                    ✍️अनुजपण्डित

Thursday, October 22, 2020

चरित्र का हत्यारा कौन?

 ■कहा जाता है कि मानव का चरित्र ही सबसे बड़ा धन है। "वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च।अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।"-अर्थात् चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए, धन तो आता-जाता रहता है।यदि धन नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट नहीं हुआ किन्तु यदि चरित्रनाश हो गया तो सबकुछ नष्ट हो जाता है। 

"चरित्र" शब्द अपने आप में पर्याप्त अर्थ बयाँ करता है।यह इतना अधिक उज्ज्वल है कि इसमें यदि रंचमात्र भी दाग लग जाये तो दूर से ही इसका दाग दिखायी पड़ने लगता है, इसलिए अत्यधिक  जतन करने पड़ते हैं कि इस पर कोई दाग-धब्बा न लगने पाये।


चरित्र का निर्माण सर्वप्रथम परिवार में आरम्भ होता है, जिसके निर्माता माँ-बाप होते हैं।शिशु तो कोमल तने की तरह होता है, उसे जिस दिशा में मोड़ देंगे उसी ओर वह जीवनयात्रा प्रारम्भ कर देगा ।यद्यपि पारिवारिक परवरिश अल्पकालिक ही होती है किन्तु होती अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शिशुकाल सम्पूर्ण जीवनरूपी मकान की नींव होती है।यदि नींव मजबूत बनायी जाएगी तो मकान लम्बे समय तक स्थिर रहेगा ।
             फोटो साभार गूगल

यदि हम वर्तमानयुग से थोड़ा सा पीछे जाकर देखें तो ज्ञात होता है कि निःसन्देह उस जमाने में भौतिकता और मनोरंजन के वैज्ञानिक उपकरणों का अभाव था परन्तु तमाम ऐसे साधन थे जिनका प्रयोग लोग अपनी आवश्यकतानुसार करते थे। ज्यादातर लोग धार्मिक होते थे जिसके चलते धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, नीतिपरक बातें सीखना, चार आश्रमों की व्यवस्था तथा सामाजिक रीति रिवाजों पर लोग विशेष रुचि रखते थे लिहाजा उनका मन इन्हीं सब चीजों से ओतप्रोत रहता था।अध्ययन मष्तिष्क का भोजन है और अन्न शरीर का। 

हमारे पूर्वज भलीभांति जानते थे कि जिस प्रकार का भोजन मन और शरीर को दिया जाएगा, तदनुसार व्यक्ति आचरण करेगा और ऊर्जा प्राप्त करेगा।


आधुनिक युग वैज्ञानिक आविष्कार का युग है जिसमें मनोरंजन और भौतिकता के बहुत से साधन  हैं। ये साधन मनुष्यजाति की आवश्यकता और सुख-सुविधा के  लिए निर्मित हुये किन्तु मनुष्य ने इनका अनुचित प्रयोग करना शुरु कर दिया जिसके चलते तमाम मानसिक व सामाजिक विकृतियाँ पनप गयीं।आज लगभग प्रत्येक अभिभावक बच्चे को बाल्यकाल से ही मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर ,सिनेमा आदि की आदत डलवाने लगते हैं। इन संसाधनों का यदि सदुपयोग किया जाए तो अनेक कार्यों को करने में बड़ी सुगमता होती है किंतु यदि दुरुपयोग किया गया तो कई बड़े नुकसान होते हैं।
                फोटो साभार गूगल

सिनेमा जगत् और विभिन्न प्रकार के अनुपयोगी दृश्य-श्रव्य धारावाहिक बच्चों के मन में गहरा असर डालते हैं।आजकल छोटी-छोटी चीजों का विज्ञापन करने के लिए कामुक गतिविधियों का सहारा खुलेआम लिया जा रहा है, जिसके चलते बच्चों का मन उस विशेष कार्य को करने हेतु उद्यत होता है जिसका परिणाम टिक टॉक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक आदि सोशल साइट्स पर देखा जा सकता है ।

आजकल किशोर होने से पहले ही लड़के-लड़कियाँ  वासना की गिरफ्त में आते दिखाई दे रहे हैं।यदि बच्चों की असल गतिविधियाँ देखनी हों तो उनके अभिभावक उनकी सोशल प्रोफाइल पर झाँकें तो पता चलेगा कि उनका बेटा औऱ उनकी बेटी क्या सीख रहे हैं और क्या पसन्द करते हैं!उम्र के साथ इच्छाएँ भी बढ़ती हैं और हिम्मत भी जिसके आगोश में आकर नवयुवक-युवतियाँ शारिरिक दुष्कर्म, भागकर शादी करना, हत्या, लूट-पाट आदि कुकर्मों को अंजाम देने लगते हैं।इन सबके असल उत्तरदायी अभिभावक और भौतिक पर्यावरण हैं। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को धार्मिक कार्यों व धार्मिक ग्रन्थों के प्रति प्रोत्साहित नहीं करता,बहुधा अभिभावक तो बच्चों के साथ समय तक नहीं बिताते।सब के सब आधुनिकता की होड़ में समाज की देखा-सुनी पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते फिर रहे हैं।

                 फ़ोटो साभार गूगल

अब परिवार, रिश्तेदार, समाज औऱ देश इनमें से कोई भी अछूता नहीं है जहाँ पर ये कलुषित मानसकिता के बच्चे गन्दी निगाह न डालते हों! आज समाज में चरित्र मर चुका है, बचा है तो मात्र फैशन, पाश्चात्य-अनुकरण औऱ बची है बदतर सोच जिसके प्रभाव में आकर देश के भीतर ही लोग हिंसात्मक रवैया अपना रहे हैं, भाईचारे को जड़ से उखाड़ रहे हैं तथा बलात्कारी बनकर कुल और देश की अस्मिता पर कालिख पोत रहे हैं। कभी-कभी तो महसूस होता है कि लौट चलना चाहिए हम सबको अपने पुरखों के सिद्धांतों की ओर जहाँ पर प्रत्येक कार्य तय समय और समुचित व्यवस्था पर आधारित था।चरित्र दोष का विशेष कारण विलम्ब से हो रहा विवाह भी है ।

जब बाल विवाह की परम्परा थी तब बलात्कार आदि कामुक घटनाएँ न के बराबर होती थीं क्योंकि जब तक बच्चों के अंदर काम प्रवृत्ति पनपती थी तब तक उनका विवाह हो चुका होता था,लिहाजा इधर-उधर मुँह मारने की आदत नहीं बनती थी।

                 फोटो साभार गूगल

संप्रति विभिन्न पदों पर आसीन व्यक्ति यहाँ तक कि शिक्षक भी वासना के वशीभूत रहते हैं जो अवसर पाते ही  घटना को अंजाम दे देते हैं।इसके पीछे उनकी परवरिश और संस्कार तो कारण हैं ही साथ ही सबसे बड़ा कारण है -मानसिकता।भले ही परवरिश में खोट रह गयी हो किन्तु एक योग्य पद पर आसीन होने के बाद व्यक्ति को स्वयं पर नियंत्रण रखकर अपनी मानसिकता स्वच्छ बनानी चाहिए ताकि उसका अनुसरण करने वाले भी चरित्रवान व्यक्ति बन सकें!
                   फोटो साभार गूगल

समाज के प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे प्रत्येक कार्य का विरोध करना चाहिए जो बच्चों का चारित्रिक व नैतिक पतन करते हों,,फ़िर चाहे वो मनोरंजन के अनुचित साधन हों, टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापन और विभिन्न धारावाहिक हों, सिनेमा जगत् हो, या पशुता को जन्म देनी वाली शिक्षा हो। हमें यानी अभिभावक को, समाज को और सरकार को सबको जिम्मेदारी लेनी होगी कि अपने बच्चों की परवरिश उचित तरीक़े से करके उनमें उत्तम संस्कार भरें ।

बच्चों के हाथ पर मोबाइल नहीं बल्कि गीता, रामायण, हितोपदेश ,नैतिक शिक्षा आदि की चारित्रिक व ज्ञानपरक पुस्तकें पकड़ायें ताकि एक स्वस्थ और आदर्श मष्तिष्क का निर्माण हो सके अन्यथा बच्चों के चरित्र हन्ता हम ही सिद्ध होंगे। 

                 ✍️अनुजपण्डित
                    

Wednesday, October 21, 2020

वह गुफा आज भी मौजूद है जहाँ सती अनुसूया ने त्रिदेवों को बनाया था बालक

तीनों लोकों में  स्वच्छंद और निर्बाध विचरण करने वाले देवर्षि की संज्ञा से नवाजे जाने वाले हिरण्यगर्भ के पुत्र नारद टहलते-टहलते उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ त्रिदेव-पत्नियाँ परस्पर बातें कर रही थीं।

अब यदि  साधारण व्यक्ति आपस में कुछ चर्चा कर रहे होते तो शायद अंभोरुहकेसरद्युती-जटाओं को धारण करने वाले नारद बिना ध्यान दिए ही निकल लेते किन्तु वहाँ पर तो विशिष्टाविशिष्ट त्रि-देवियाँ आपस में चर्चा कर रही थीं। 


जब चर्चा करने वाले अतिविशिष्ट हों तो उनकी चर्चा और चर्चा का विषय भला कैसे साधारण हो सकता है! यही सोचकर कृष्णमृगचर्म को धारण करने वाले नारद उस स्थान पर रुकने एवं चर्चा का विषय जानने हेतु उत्कंठित हो उठे।


तीनों देवियों (सरस्वती,लक्ष्मी एवं पार्वती) का परस्पर विमर्श का विषय कोई अन्य व्यक्ति न होकर आपसी ही था। वे तीनों अपने-अपने सतीत्व,पवित्रता और पातिव्रत को तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ कहकर आत्म-श्लाघा में निमग्ना थीं। 

  माता अनुसूया ने स्थापित की थी यह शिवलिंग

  
नारद जी के आने से पहले तक तो स्थिति आनन्दित और हर्ष से सराबोर थी किन्तु उनके पदार्पण करते और मुँह खोलते ही रंग में भंग पड़ गया। तीनों देवियों के मुस्काते चेहरे पर चिंता और ईर्ष्या की परत जम गयी। 

 दरअसल बर्फ के समान धवल शरीर वाले देवर्षि ने कहा कि हे माताओं! आप तीनों खुद को सर्वश्रेष्ठ सती,पतिव्रता और पवित्र समझने की गलतफहमी में न रहें क्योंकि मर्त्यलोक में परमपावन और स्वर्ग से भी अधिक रमणीय स्थान चित्रकूट में महर्षि अत्रि अपनी पत्नी संग निवास करते हैं।

           महर्षि अत्रि की प्रतिमा


अत्रि की पत्नी अनसूया( आम बोल-चाल में अनुसूया, अनुसुइया आदि) इस समय तीनों लोकों में सर्वाधिक सतीत्व,पवित्रता और पातिव्रत-धर्म को धारण करने वाली हैं। बस यही बात सुनकर त्रिदेवियाँ ईर्ष्या से भर गयीं और नारद से बोलीं कि हम नहीं मानते कि मृत्युलोक पर रहने वाली कोई स्त्री हमसे बढ़कर इन गुणों से युक्त हो सकती है!

तब मुनिश्रेष्ठ ने मुस्कुराकर "नारायण-नारायण" का सम्पुट लगाते हुए  कहा कि हे माताओं! आप यदि इस बात की पुष्टि करना चाहती हैं तो त्रिदेवों (ब्रह्मा,विष्णु,महेश) से पूछकर कर सकती हैं। बस फिर क्या था! क्रमशः सर्जक,पालक,और संहारक कहे जाने वाले तीनों देवों के पास नारद सहित तीनों देवियाँ पहुँच गयीं। 


यथोचित अभिवादन कर लेने के बाद तीनों ने अपना प्रश्न उनके समक्ष रखा। तीनों देव  महती नामक वीणा को धारण किये हुए नारद की ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कान छोड़ते हुए बोले कि-हे देवियों! तपस्वियों में श्रेष्ठ और महामुनि नारद ने उचित ही बखान किया है। इस समय अत्रिपत्नी माँ अनुसुइया से बढ़कर सती,पतिव्रता एवं पवित्र नारी तीनों लोकों में नहीं है। 

          सती अनुसुइया की प्रतिमा


अब तीनों देवियों के रोष का पारावार न रहा। तीनों ने साधिकार अपने-अपने पतियों से प्रार्थना की कि हे देव! आप अनुसुइया का सतीत्व का परीक्षण करने धरती लोक जाइये क्योंकि बिना ऐसे तो हम मानने वाली नहीं। तीनों देवों ने बहुत समझाया कि उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य मत करें क्योंकि यह अनुचित है किंतु तीनों अपनी जिद पर अड़ी रहीं लिहाजा तीनों देव उतर पड़े महर्षि अत्रि के आश्रम पर। 

महर्षि अत्रि उस समय किसी आवश्यक कार्यवश अन्यत्र गये हुए थे। आश्रम में मात्र माँ अनुसुइया को   देखकर तीनों देवों ने सोचा कि यह अच्छा अवसर है उनकी परीक्षा लेने का सो त्वरित तीनों देवों ने साधुओं के रूप में खुद को तब्दील कर लिया और कुटिया के बाहर से ही एक ही स्वर में  अलख जगाया। अनुसुइया बाहर निकलीं तो देखीं तीन यति उनके द्वार पर भिक्षुओं की भाँति खड़े हैं।

माता ने उन्हें प्रणाम कर  सनातन परम्परा और संस्कृति के अनुसार उनका आतिथ्य-सत्कार किया। तीनों ने भोजन की इच्छा व्यक्त की तो माँ ने कहा आप तीनों विश्राम कीजिये, मैं अभी भोजन तैयार करती हूँ। किन्तु परीक्षक बनकर आये हुए त्रिदेवों ने ऐतराज जताते हुये कहा कि  "हे साध्वी! हम तभी भोजन ग्रहण करेंगे जब आप निर्वस्त्र होकर भोजन  परोसेंगी!"


यह सुनकर सती अनुसूया एक क्षण के लिए हड़बड़ा गयीं  किन्तु अगले ही क्षण अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल पर सत्यता का पता लगा लिया कि ये तीनों तो साक्षात् त्रिदेव हैं जो भिक्षु के रूप में मेरे सतीत्व की परीक्षा लेने आये हैं।  परम तपस्विनी माता ने उनकी शर्त स्वीकार करते हुए भोजन तैयार किया और  तीनों भिक्षुओं को भोजन करने हेतु आमंत्रित किया। 

तीनों देव इस सोच में डूबे थे कि आखिर इतनी कठिन शर्त को इस साध्वी ने शीघ्र स्वीकार कैसे कर लिया। किन्तु शायद उन्हें अनुसुइया की शक्ति और चतुरता का भान न था!  सती अनुसूया ने   कमण्डलु से निकालकर जल को हथेली में लिया और अभिमंत्रित करके तीनों देवों पर डाल दिया। बस फिर क्या था तीनों लोकों के नियामक त्रिदेव नवजात शिशु के रूप में तब्दील होकर वात्सल्य मय रुदन करने लगे। 

 इसी गुफा में अनुसूया ने कराया था त्रिदेवों को भोजन


माता ने तीनों को पालने में डालकर चिंता रहित होकर भोजन परोसा और ममतामयी माँ की तरह तीनों शिशुओं को भोजन करवाया। इस तरह से माँ अनुसूया का सतीत्व भी बरकरार रहा और तीनों देवों की शर्त का पालन भी हो गया! भला नवजात शिशु के समक्ष माता को निर्वस्त्र होने में कैसी हिचक! अब तीनों देव असहाय की स्थिति में माता की शक्ति के अधीन होकर क़ई दिनों तक पालने में झूलते हुए अनुसुइया की मातृ-ममता का लुत्फ उठाते रहे। 

इधर त्रिदेवियों को चिंता होना जायज है कि इतने दिन व्यतीत हो गए हमारे प्रीतम अभी तक परीक्षा लेकर नहीं लौटे!  जब उनसे रहा न गया तो वे तीनों भी पहुँच गयीं माँ अनुसुइया के आश्रम और विनती करने लगीं कि उनके पति यहाँ आये थे ,क्या आप बता सकती हैं वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं?

माता अनुसूया ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुये कहा कि हे देवियों! मैंने तुम्हारे पतियों को शिशु रूप में बदल दिया है। पालने में देखकर अपने-अपने पतियों को पहचान लो और ले जाओ!तीनों देवियों ने काफी गहनता से पहचानने की कोशिश की किन्तु तीनों बालकों को एक समान देखकर यह निश्चय न कर सकीं कि इनमें से कौन किसका पति है!

हैरान-परेशान तीनों देवियाँ माता अनुसुइया के चरणों पर गिर पड़ीं और अपनी भूल स्वीकारते हुए अपने कृत्य की क्षमा माँगी। है माता अनुसूया! आप ही तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता, सती और मन-कर्म-वचन से पवित्र हैं। हमने अज्ञानता वश खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल की है। हमें क्षमा कर दीजिए!


नवनीत हृदय समान माँ अनुसुइया ने तीनों को तुरन्त क्षमा कर दिया और उनके पतियों को  उनके यथार्थ रूप में उन्हें लौटा दिया!  ऐसी पौराणिक मान्यता है कि कालांतर में ब्रह्मा,विष्णु,महेश ने माता अनुसुइया के गर्भ से क्रमश: चंद्रमा, दत्तात्रेय और ऋषि दुर्वासा के रूप में जन्म लेकर माता अनुसुइया की मातृत्व इच्छा पूर्ण की।


नोट- ऊपर चित्र में जो गुफा दिख रही है, यह वही गुफा है जिसके भीतर माता अनुसुइया ने त्रिदेवों के लिए भोजन परोसा था। यह गुफा आज भी चित्रकूट जनपद के सती अनुसुइया आश्रम में मौजूद है। माता अनुसुइया सहित महर्षि अत्रि,दत्तातत्रेय की प्रतिमाएँ आज भी आश्रम में विराजमान हैं।


अपने वनवासकाल के दौरान प्रभु राम माता सीता और लक्ष्मण सहित चित्रकूट स्थित अत्रि के आश्रम में पधारकर माता अनुसुइया का आशीर्वाद लिया था तथा माता सीता ने उनसे पतिव्रत धर्म की शिक्षा भी ग्रहण की थी। 

                      ✍️अनुजपण्डित

Saturday, October 17, 2020

माँ दुर्गा से सम्बंधित सुंदर श्लोक

🍂भारतीय संस्कृति का प्रमुख एवं सबसे अधिक दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार नवरात्रि का प्रारम्भ हो चुका है।

आज प्रथम दिवस पर जगदम्बा की स्थापना करते हुए उनके नौ रुपों में प्रथम माँ शैलपुत्री की आराधना की जाती है।


नौ दिनों तक नियमित सम्पूजा एवं दुर्गा सप्तशती   का पाठ माँ के भक्तों द्वारा किया जाता है।
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यूँ तो शक्तिस्वरूवा देवी से सम्बन्धित सभी मंत्र,स्तोत्रादि पुण्य फलप्रदायी हैं किंतु आदिशंकराचार्य द्वारा  "कनकमंजरी" छन्द में विरचित "महिषासुरमर्दिनि-स्तोत्र"  पढ़कर जो असीम सुख और आनन्द प्राप्त होता है, वह अलौकिक ही  है।


इक्कीस श्लोकों में आबद्ध इस स्तोत्र में आदि शंकराचार्य ने जिस तरह से पदस्थापन किया है, उसे पढ़कर यह स्वयमेव पता चलता है कि सच में उनसे बढ़कर उनके बाद कोई विद्वान् इस धरा पर अवतरित नहीं हुआ।

तो आइए देखते हैं उसी स्तोत्र का एक सुंदर श्लोक जिसकी गेयता और भावार्थ दोनों ही हृदयाह्लादक  हैं-
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अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रिय वासिनि हासरते।शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमालय शृङ्गनिजालय मध्यगते।मधुमधुरे मधुकैटभ गञ्जिनि कैटभ भञ्जिनि रासरते।जय जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।

     अर्थात्- हे जगत् की माता! आप कदम्ब-वृक्ष पर प्रेम पूर्वक निवास करती हैं। सदा संतुष्ट रहने वाली आप  हास-परिहास में सदा रत रहती हैं। 

पर्वतों में श्रेष्ठ और ऊँचे हिमालय की चोटी पर आप अपने भवन में वास क़रती हैं। शहद से भी अधिक मधुर स्वभाव वाली आपने ही मधु-कैटभ नामक दैत्यों का संहार किया है। 

महिषासुर को विदीर्ण करने वाली आप सदा रासक्रीड़ा में निमग्न रहती हैं। आप भगवान् भूतभावन की प्रिय पत्नी हैं। 

हे महिषासुर का मर्दन करने वाली भगवति! आपकी जय हो,जय हो,जय हो।
                              🍂

   🙏 शारदीय नवरात्रि की  मंगलकामनाएँ🙏

                    
                    ✍️अनुजपण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...