Monday, November 30, 2020

आख़िर क्यों हो रहे हैं जंगली जीव बेदख़ल?

🍂प्रत्येक वर्ष दोनों तूर की नवरात्रों में नवमी तिथि को   कुल देवता  "बरमबाबा" की पुजाई करने माँ के साथ गाँव जाता हूँ। जिस अश्वथ-वृक्ष में  कुलदेवता वास करते हैं वह वृक्ष गाँव के बाहर हर्राता है। उसी के समानांतर   रसाल का एक विशाल वृक्ष भी है।

इस साल की पुजाई करने जब हम दोनों गये तो देवस्थान का दृश्य देखकर दंग रह गए।  लगभग एक शतक बंदरों को  इस पेड़ से उस पेड़ पर कूद-फाँद करते देखकर घबराहट हुई और असहजता भी। इतने सारे बंदरों के बीच कुलदेवता को पूड़ी-खखरिया,खिचरी, नारियल,पान-बताशा,घी-गुड़ आदि पूजन सामग्री अर्पित करना कत्तई खतरे से खाली नहीं था।

कुछ देर तक वहीं दूर खड़े होकर सोच-बिसूर में डूबे रहे कि आख़िर कौन-सी जुगत भिड़ायी जाए जिससे निर्विघ्न पूजा-सम्पन्न हो सके क्योंकि बगैर पूजा किये लौटना भी नियम विरुद्ध ही था! 

अंततः मैंने वहीं पास के खेत से दो खूँटे उखाड़े और अपनी लंबाई से दो गुना बेशरम की लाठी तोड़ी।इसके अतिरिक्त आस-पास छिटके पड़े पत्थर-मिट्टी के धेले इकट्ठे करके चल दिये बरम बाबा की पुजाई करने! 

माँ को मैंने कहा कि आप विश्वामित्र की भाँति निर्भय होकर पूजन कीजिये ,मैं भगवान् राम की तरह बेशरम की लाठी को चारों ओर लगातार घुमाकर सुरक्षा-घेरा बनाये रखूँगा। माँ ने आधे मन से स्वीकृति प्रदान कर पूजन आरम्भ कर दिया। पंद्रह मिनट लगातार लाठी घुमाना, बीच-बीच में खूँटा-प्रहार और धेले फेंककर मारना जिम में मशीन भाँजने से कहीं ज्यादा कठिन करतब था।


पूजन तो निर्बाध सम्पन्न हो गया किन्तु मेरे द्वारा बंदर को फेंककर मारे गए धेलों में से एक  कुटिल धेला बंदरों से संधि करके माँ के सिर पर आ गिरा। कुलदेवता की कृपा से माँ को गहरी चोट तो नहीं लगी किन्तु मेरे मस्तिष्क में फ़ौरन एक प्रश्न दौड़ने लगा। वह यह कि कहीं कुलदेवता यह अद्भुत् दृश्य देखकर नाराज तो नहीं होंगे कि माँ पूजन कर रही है और बेटा मुझपर खूँटा-पत्थर बरसा रहा है!
मैंने सकुचाते हुए कुलदेवता से क्षमायाचना की और अपनी मजबूरी प्रकट की। उसी समय मैंने यह महसूस किया कि आख़िर इस साल इस वृक्ष और गाँव के भीतर बंदरों ने अपनी धाक क्यों जमाई! कारण रूप यही बात समझ आई कि  जंगलों को साफ़ कर दिया गया,पहाड़ों को खोदकर सपाट कर दिया गया तो बेचारे ये बंदर आख़िर जाएँ तो जाएँ कहाँ! 

जंगल के ठेकेदारों ने,तथाकथित हरिजनों ने जंगल की तेरही कर दिया। आये दिन डग्गा में लदकर सागौन,शीशम,खैर,कसही जैसे विशाल और कीमती पेड़ों को लोगों ने अपने घरों के दरवाजे,खिड़कियों और बिस्तर में तब्दील कर दिया। रोजगार के नाम पर हर दिन जंगलों से लकड़ियाँ कटकर ट्रेन में सवार होकर शहरों की ओर भागती हैं।निजी भौतिकसुख के वशीभूत हुए लोगों को  जंगली जीवों की तनिक भी चिंता न रही कि आख़िर इनका आशियाना उजाड़कर हम अपना आशियाना सजायेंगे तो ये जीव कहाँ जायेंगे और क्या खायेंगे!


जिस जंगल  में कभी दिन में भी रात का एहसास हुआ करता था,उस जंगल की भूमि को आज निचाट धूप छू रही है। जंगली जीवों के लिए कोई  छप्पन भोग की व्यवस्था तो है नहीं! वे जंगली फलों पर ही तो आश्रित रहते हैं! ऐसे में जब जंगल चाट लिए गए तो गाँव-शहरों की ओर पलायन करना लाज़िमी ही है! अभी तो सिर्फ बन्दरों ने धावा बोला है, कुछ दिनों में अन्य जंगली जीव भी गाँव की ओर रुख करेंगे। 

वह तो आभार प्रकट कीजिये पूर्वजों का जिन्होंने पीपल,बरगद, नीम जैसे  वृक्षों में ईश्वर का वास बताकर अगली पीढ़ी को सचेत किया कि कि वृक्षों का संरक्षण करना बहुत आवश्यक है। चरक,सुश्रुत आदि विद्वानों ने प्रत्येक वृक्ष,वनस्पति और घास को औषधीय-गुणों से लैस बताकर बड़ा उपकार किया फिर भी आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए आज की पीढ़ी और सरकारों को जंगलों,पहाड़ों,वृक्षों,नदियों आदि के संरक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं।


भौतिकता की होड़ में,रिश्वतखोरी के गर्त में और निजी स्वार्थ में मानव इस तरह डूब चुका है कि उसे जंगलों के न होने से पड़ने वाले घातक प्रभावों का ख्याल तक न रहा!

#फ़ोटो_साभार_गूगल

                  ✍️ अनुज पण्डित

Sunday, November 22, 2020

क्या आप जानते हैं कि बदलते हुए विश्व में आपको किस तरह का सहयोग करना है?

 विगत शताब्दियों में वैज्ञानिक आविष्कारों तथा     प्रगति का सहारा लेकर धरती की संतानों ने अनेक लम्बी-लम्बी विकासयात्राएँ पूरी की हैं,जो वास्तव में कल्पनाशक्ति के क्षेत्र से बाहर है। जितनी तीव्र गति से प्रगति की उड़ानें भरी गयीं उतनी ही तीव्र गति से अस्थिरता, अशांति, अवसाद तथा शारीरिक व्याधियों ने भी पीछा किया।


 अब समय आ गया है  इस अबाध गति में अंकुश लगाने  का क्योंकि इस विकासगति की राह में मनुष्य ने असंख्य अक्षम्य उद्दण्डता भी की है। प्रत्येक मनुष्य की एक सीमा है।जब इस सीमा का उल्लंघन कर मनुष्य अनैतिक और अप्राकृतिक रवैया अपनाने लगता है तो जगत् नियंता (जिसे आप प्रकृति, ईश्वर,खुदा विभिन्न नामों से आत्मसात कर सकते हैं) इन पर नियंत्रण करने की तैयारी में जुट जाता है। 

विकास की गति सामान्य ही होनी चाहिए क्योंकि  बराबर भूभाग पर सामान्य चाल से चलते हुये मनुष्य को लक्ष्य प्राप्त करने में अपेक्षा से अधिक समय तो लग जाता है किंतु उसकी यात्रा सुखद और सुरक्षित रहती है।

यदि मनुष्य गहरे गड्ढे या ढाल वाले रास्ते पर जाने के लिए हठ कर ले तो वह बहुत कम समय में लुढ़कते, गिरते और चोटिल होते हुये हजारों फ़ीट नीचे गर्त में चला जायेगा।


मैराथन दौड़ में भाग लेने वाले प्रतिभागी भी एक सामान्य गति से ही दौड़ते हैं ,तभी तो इतनी लंबी दौड़ वे आसानी से पूरी कर लेते हैं!यदि वे भी पूरी ऊर्जा को एक ही बार में लगाकर सरपट दौड़ने लग जायें तो कुछ ही किलोमीटर्स पर उनकी सांस फूलने लगेगी और वे थक-हार कर बैठ जायेंगे।

वर्तमान की स्थिति यह है कि समूचे विश्व के मनुष्यों ने भौतिकतावाद की होड़ में प्रकृति और अध्यात्म को कूड़ेदान में डाल दिया है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक असाध्य बीमारियाँ, महामारियाँ तथा मानसिक अशांति साक्षात यमराज बनकर मुँह बाये खड़ी हैं, जो किसी भी क्षण सम्पूर्ण विश्व को लील सकती हैं।


मनुष्य यह भूल गया कि उसे बनाने वाला एक अदृश्यमान कर्त्ता भी है जिसने सारी सृष्टि की कमान अपने हाथों पर ले रखी है। 

यदि मनुष्य उस नियंता की सम्पत्ति(धरती,अम्बर,ग्रह,पहाड़,पेड़,नदियाँ, समुद्र, हवा आदि) को तहस-नहस करने पर उतारू हो जायेगा तो त्वरित वह सर्वशक्तिमान नियंता अपनी सम्पत्ति की सुरक्षाव्यवस्था में तत्पर हो जायेगा और  अनेकानेक परिवर्तन करके उसे सन्तुलन प्रदान करेगा।  


इसी परिवर्तन का समय चल रहा है जिसके कारण कोरोना जैसी मुसीबतें संसार को त्राहि-त्राहि करने पर विवश कर रही हैं। यह दण्ड है मनुष्य को उसकी उद्दण्डता का जो उसने प्राकृतिक वातावरण के साथ किया।

किन्तु वह नियंता मनुष्य की तरह निर्मोही और बेपरवाह नहीं है। मनुष्य के साथ समस्त जीवों को वह अपनी ही सन्तान मानता है, अस्तु अपराधों का दण्ड देकर वह एक अद्भुत् सन्तुलन स्थापित करेगा। दुःख की रात इतनी भी लम्बी नहीं कि सुख का सवेरा लिये हुये सूरज का उदय न हो! 

इस सन्तुलन को बनाने में मनुष्य को बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने में  बेपरवाह नहीं होना है,बल्कि उसे अपनी आदतों,कर्तव्यों, व्यवहारों तथा जीवनशैली में विशेष बदलाव करने की आवश्यकता है ,तभी एक संतुलित ,सुखी और स्वस्थ विश्व का निर्माण पुनः सम्भव है, अन्यथा यमराज का रथ तो तेजी से आगे बढ़ ही रहा है!

सबसे महती आवश्यकता है जनसंख्या नियंत्रण की। लगातार बढ़ रही वैश्विक जनसंख्या के कारण आपसी प्रतिस्पर्धा चरम पर है जिसके कारण आपसी झगड़े और कलह जन्म ले रहे हैं।यह बढ़ती जनसंख्या मनुष्य को हतोत्साहित करके उसके लक्ष्य प्राप्ति में बाधा डालती है। 


समानता का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है क्योंकि समाज में उच्च और निम्न वर्ग का अनुपात बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। बड़े-बड़े महानगरों के अतिरिक्त छोटे-छोटे नगरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार के साधनों की व्यवस्था करके हम समाज के प्रत्येक मनुष्य तक रोजगार पहुँचा सकते हैं साथ ही प्रकृति प्रेम को महत्त्व देते हुये जंगलों और नदियों को भी संरक्षित-संवर्धित करें ताकि जीवन की सबसे उपयोगी वस्तुएँ हवा,पानी और औषधियाँ शुद्ध रूप में बनी रहें तथा प्रदूषण का खतरा कम हो सके।

आरम्भ हो रहे विश्व परिवर्तन में हम अपने जीवन को बदलकर सरल,सादा औऱ सुंदर बनाकर सहयोग कर सकते हैं। सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत पर चलकर मनुष्य अपव्यय,विलासिता, प्रदर्शन को त्यागकर एक औसत मनुष्य बनने की कोशिश करे तभी स्थितियां भी समुचित बनेंगी। यदि भूमि पर कहीं गड्ढा है तो उसको ऊंची जमीन की मिट्टी से ढककर समतल कर सकते हैं ताकि सुखी जीवन के सुंदर पुष्प बराबर खिल सकें।

जीवन में बदलाव हेतु उपयोगी शिक्षा और साहित्य  पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है ताकि स्वस्थ विचारों और जागरूक मनुष्यों का विकास हो सके जो विश्व के उत्थान में अग्रणी भूमिका निभाएंगें।
इसके साथ ही अध्यात्म औऱ चिंतन का आश्रय लेकर एक पूर्ण मनुष्य की शर्तों पर खरा उतर सकते हैं।

 जीवन में बदलाव की कड़ी में अनुशासन का भी महत्त्व है क्योंकि अनुशासन ही वांछनीय-अवांछनीय कार्यों पर नियंत्रण और सामंजस्य बिठाता है।समाज के वरिष्ठ और अनुभवी जन युवाओं में अनुशासन की भावना को जीवित रखने में मदद करें तथा उचित मार्गदर्शन करें ताकि युवा अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह न बने। 

इस प्रकार व्यक्ति को स्वयं में बदलाव करना होगा तभी एक सुखी और सुरक्षित विश्व की कल्पना साकार होगी।


प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ परस्पर सहयोग की भावना रखकर उसके सुख-दुःख में शामिल होकर यह संदेश दे कि हमें एक-दूसरे से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। सारा विश्व एक परिवार है,तभी तो "वसुधैव कुटुम्बम्" की भावना सार्थक हो सकेगी! 

"स्वयं बदलना होगा खुद को,ताकि बदल सके यह युग।"

आओ मिलकर कसम ये खायें, सुंदर होगा यह कलयुग।"

#फ़ोटो_साभार_गूगल

                            ✍️अनुज पण्डित

Friday, November 20, 2020

आइये जानते हैं कि शुभ कार्यों में क्यों वर्जित हैं बासी फूल?

प्रकृति के तमाम सुंदर संघटकों में एक ख़ास घटक फूल भी है जिसके बगैर प्रकृति का शृंगार अधूरा, फीका और लावण्यविहीन ही समझिए!


नीले अम्बर तले धरती को आधार बनाकर महकते ये रंग-बिरंगे पुष्प ही तो बेरंग मानव जीवन को रंगीन बनाने की प्रेरणा देते आये हैं! नाना प्रकार के रंगों की तरह ही इन फूलों के नाना नाम भी हैं।जैसे-पुष्प, कुसुम, प्रसून,सुमनस्, सुम, पीलु, प्रसव आदि।

संस्कृत व्याकरण के अनुसार "पुष्प फुल्लने" धातु से  "अच्"  प्रत्यय जोड़ने पर पुष्प शब्द निष्पन्न होता है।


इन पुष्पों की मानव जीवन में इतनी अधिक आवश्यकता है कि शुभ-अशुभ सभी प्रकार के अवसरों पर इनका प्रयोग निश्चित है। देव-पूजा, स्वागत-समारोह, जयमाल-उत्सव से लेकर अंत्येष्टि संस्कार तक इन फूलों के बिना नहीं हो सकता!

यूँ तो अधिकांश जन इस सत्य से वाकिफ़ हैं कि पूजा इत्यादि शुभ कार्यों में ताजे पुष्प ही स्वीकार्य हैं, बासी फूल सर्वथा वर्जित हैं,तभी तो गुरुकुलों में कुछ शिष्यों की ड्यूटी रोज सबेरे ताजे पुष्पचयन करने की रहती थी और आज भी आस्तिक जन हाथ में पॉलीथिन छुपाए तड़के-तड़के सैर करने की आड़ में रास्ते के पुष्पों की चाह रखते हैं।

अपनी महक से सर्वदा प्रेम ही बिखेरने वाले पुष्पों का चयन करने ही तो प्रातः काल श्री राम जनक की बगिया में गये थे जहाँ भगवती सीता का उन्हें प्रथम दर्शन होता है! इस तरह राम और सीता के प्रेम का माध्यम ये पुष्प ही तो बने थे!

बड़े शहरों में छोटी-बड़ी फूल की दुकानों पर विभिन्न प्रकार की पुष्पमालाएँ, साबुत एवं खण्ड-खण्ड पुष्प अक्सर बासी होने के बावजूद भी धड़ल्ले से बिक कर देवी-देवताओं पर चढ़ जाते हैं जो कि शास्त्रसम्मत नहीं है!


मानाकि शास्त्रों में  वर्णित है कि कुछ फूल , पत्तियाँ  बासी होने के बावजूद भी प्रयोग करने योग्य हैं।जैसे - कमल और बिल्वपत्र, किन्तु अन्य सभी प्रकार के बासी फूल नितांत वर्जित हैं। 

महाकवि कालिदास ने बासी फूलों को आधार बनाकर ही  महानतम गीतिकाव्य "मेघदूतम्" जिसे संदेश काव्य के नाम से भी जाना जाता है, रच डाला! कुबेर का माली नवविवाहित यक्ष एक रात प्रियतमा के प्रेम में इस कदर मग्न हो गया कि उसे अपने कर्त्तव्य की सुध ही न रही। जब उसकी नींद टूटी तो सूर्य सिर पर चढ़ आया था। वह घबराकर भागते हुए उद्यान पर गया किन्तु उसे एक भी पुष्प डाली पर मुस्कुराते हुए नहीं दिखा, लिहाजा उसने नीचे जमीन पर पड़े रात्रिकालीन टपके पुष्पों को डलिया में भरकर कुबेर को थमा दिया!

बासी और कुम्हलाए फूलों को देखकर कुबेर क्रोध से भर गया, जिसके परिणामस्वरूप उसने उस यक्ष को महाभयंकर शाप दे डाला। शाप के प्रभाव से वह यक्ष अपनी प्रियतमा से अलग,शक्तिहीन होकर चित्रकूट के रामगिरि पर्वत पर आ गिरा, जहाँ पूरा एक वर्ष वह प्रियतमा के विरह में तपता रहा।


आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब आकाश में उमड़ते मेघों को देखा तो उसने ताजे पुष्पों को अंजलि में लेकर मेघ का अभिनन्दन किया, तत्पश्चात् अलकापुरी में दिन गिन रही अपनी प्रियतमा के लिए संदेश की गुजारिश की।

इस काव्य के माध्यम से मानो कालिदास ने मानवजगत् को भी संदेश दिया है कि पूजा-अर्चना आदि शुभ कार्यों में बासी फूलों का प्रयोग न करें अन्यथा यक्ष जैसा महाभयंकर शाप लग सकता है!

उस यक्ष को भलीभांति विदित था कि मेरी यह हालत बासी फूलों के कारण ही हुई है, इसलिए मेघ के स्वागतार्थ ताजे पुष्पों का चयन ही हितकर है!

पोस्ट का आशय-ताजे पुष्पों का प्रयोग और बासी पुष्पों को वर्जित करना ही है।
#फ़ोटो_साभार_गूगल

                 ✍️अनुजपण्डित

Friday, November 13, 2020

क्या आप जानते हैं कि नेहरू जी को क्यों था बच्चों से लगाव और बाल-दिवस का उद्देश्य क्या है?

यह सच है कि भारत में भूतपूर्व प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी के जन्मदिवस के रूप में बाल-दिवस को मान्यता मिली किन्तु कई देशों में बाल दिवस भिन्न-भिन्न  तिथियों को मनाया जाता है ।इससे पहले भारत में बाल दिवस 20 नवम्बर को मनाया जाता था।

ऐसी मान्यता है कि नेहरू जी का बच्चों के प्रति अगाध स्नेह था जिसके फलस्वरूप 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी याद में उनके जन्मदिवस 14 नवम्बर को बाल-दिवस मनाया जाने लगा। बच्चों के प्रति प्रेम तो अच्छी बात है किंतु क्या नेहरू जी को ही बच्चों से लगाव था, बाकी सब क्या बच्चों के बैरी होते हैं! 

शायद नेहरू जी को मनोविज्ञान का ज्ञान था ,तभी तो उन्हें पता था कि बच्चों के साथ समय गुजारने से वयस्कों या वृद्धों का मन जवान हो जाता है और बढ़ती उम्र का आभास नहीं होता। यह तो हुई नेहरू जी की मृत्यु के बाद की बात किन्तु क्या 14 नवम्बर से पहले जब 20 नवम्बर को बाल दिवस मनाया जाता था तब इसके पीछे की क्या कहानी थी? है न सोचने वाली बात ! खैर कोई बात नहीं।

 वास्तव में बालदिवस मनाने का उद्देश्य प्रबल उत्साहवर्धक एवं प्रेरणादायक होना चाहिए,ताकि प्रत्येक बच्चा जीवन ,समाज व देश के प्रति पूरी निष्ठा से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने हेतु प्रतिबद्ध हो उठे। 

आज इस दिवस विशेष पर आचार्य चाणक्य औऱ चन्द्रगुप्त मौर्य की कहानी व आदर्शों से बच्चों को अवगत कराते हुये जीवन का मूल्य समझाना चाहिए और यह समझाने का कार्य माता-पिता और शिक्षकों को करना चाहिए। आज देश के प्रत्येक बच्चे को आचार्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के साहस को ध्यान में रखकर राष्ट्र निर्माण के प्रति पूरी शक्ति से तैयार होने की शपथ लेनी चाहिए। प्रत्येक बच्चे को अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार होकर लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए । 


आजके इस चकाचौंधपूर्ण संसार में जहाँ भौतिक उपभोग की वस्तुएँ व्यक्ति के हृदय और मस्तिष्क को अपना गुलाम बना चुकी हैं, बच्चे अपने संस्कार, आदर्श और परिवार, समाज, देश के प्रति अपने दायित्त्वों के प्रति निष्क्रिय होते जा रहे हैं।

बच्चे के सर्वांगीण विकास हेतु यह आवश्यक है कि देश के प्रत्येक अभिभावक व शिक्षक को अपनी भूमिका का निर्वहन पूर्ण सत्यनिष्ठा से करनी होगी तभी हमारा देश प्रगति के उच्चतम शिखर पर स्थापित हो सकेगा,क्योंकि आजके बच्चे ही भविष्य के कर्णधार हैं।

सबसे चिंतनीय बात तो यह है कि वर्तमान युग में बच्चों का बचपन कितनी निर्ममता से कुचला जा रहा है! बच्चा 'माँ' शब्द का उच्चारण जैसे ही सीखता है, वैसे ही उसके कन्धों पर उसके वजन से अधिक किताबों का भार लाद दिया जाता है।आवश्यकता से अधिक पाठ्यक्रम रख दिया जाता है जिससे बच्चे को अपने वास्तविक मस्तिष्क और शरीर के विकास का समय ही नहीं मिलता। अधिकांश अभिभावक तो अपनी व्यस्त जीवनशैली के चलते  बच्चों को पर्याप्त समय तक नहीं दे पाते ,लिहाजा बच्चे स्वच्छन्द होकर अशिष्ट और दुराचारी बन जाते हैं। 

बच्चे तो नन्हें से पौधे हैं जिन्हें उचित खाद और पानी देकर पाला पोसा जाना चाहिए ताकि कोई भी बच्चा पेड़ बनकर बिना सकारात्मक फल दिए न रहे।

आज देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में बेसिक कक्षाओं से ही बच्चों को अशुद्ध-वर्तनी के प्रति सचेत नहीं किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप बच्चे बड़े होकर आदतवश वही वर्तनी-अशुद्धि बार- बार दोहराते हैं।

इसीलिए शिक्षकों को चाहिए कि बच्चों को सही और समुचित ज्ञान प्रदान करें ताकि यही बच्चे भविष्य में शिक्षक बनकर अपने छात्रों को गलत जानकारी प्रदान न करें। इस बात का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि बच्चों के ऊपर जबरन कोई लक्ष्य न लादें, जिस तर्कपूर्ण लक्ष्य को बच्चा प्राप्त करना चाहता है उसी के अनुरूप उन्हें प्रोत्साहित करें।हम सबका यह दायित्व है कि बच्चे को सही एवं उचित मार्गदर्शन प्रदान करें।

"इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके।

यह देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कलके।।"


इन पंक्तियों को प्रेरणा बनाकर बच्चों को अहर्निश प्रेरित करना समस्त अभिभावकों व शिक्षकों का परम कर्तव्य है।

#फ़ोटो_साभार_गूगल

                  ✍️अनुज पण्डित

            

Wednesday, November 4, 2020

बीएचयू में चमकेगा चित्रकूट का कोहिनूर

🍂बीएचयू में चमकेगा चित्रकूट का कोहिनूर
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भगवान् श्रीराम की तपोस्थली चित्रकूट की धरती एक ओर जहाँ आध्यात्मिक और प्राकृतिक रूप से धनाढ्य है वहीं दूसरी ओर सदा से संसाधन विहीन रही है किंतु बावजूद इसके इस पवित्र धरती में उपजे प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों ने देश-विदेश में यहाँ का गौरव स्थापित किया है।


इन्हीं प्रतिभाशाली व्यक्तित्त्वों में एक शख़्स हैं डॉ. शैलेन्द्र कुमार साहू जिनका जन्म  चित्रकूट के बीहड़ में बसी मानिकपुर तहसील में हुआ। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गृहनगर से पूरी कर प्रयागराज को अपनी कर्मस्थली बनाया।प्रयाग की पावन धरा पर रहकर ही इन्होंने समस्त शैक्षणिक उपाधियाँ (जैसे- एम ए,बीएड,यूपीटेट,सीटेट,नेट,जेआरएफ एवं पीएचडी)अर्जित कीं।

शोधकार्य पूरा करते ही इनका चयन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में अतिथि प्रवक्ता पद हुआ,एक साल के भीतर ही माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड ,उत्तरप्रदेश में प्रवक्ता पद पर तीसरा स्थान प्राप्त किया और एक साल इस पद पर सेवा देकर  उच्च शिक्षा में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद पर आसीन हुए! 


जरा सोचिए कि वर्तमान व्यवस्था में जहाँ अधिकांश प्रतियोगी छात्र/छात्राएँ सरकारी नौकरी पाने के लिए दिन-रात मशक्कत करते हैं और फिर भी अधिकांश निराशा ही हाथ लगती है वहीं  चित्रकूट के इस कोहिनूर हीरे ने एक के बाद एक लगातार दुर्लभ सफलताएँ अपने नाम की हैं। बेशक कड़ी मेहनत और लगन  का परिणाम मिलता है किंतु  "भाग्यं फलति सर्वत्र" को भी नकारा नहीं जा सकता! 

डॉ. साहू का सफ़र अभी यहीं पर नहीं रुका बल्कि इन्होंने अपनी प्रतिभा की चमक से एक बार और अपने जनपद सहित पूरे प्रदेश को चकाचौंध किया है। जी, हाँ अभी हाल ही में इनका चयन एशिया के बहुचर्चित और प्रतिष्ठित संस्थान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत साहित्य विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद पर हुआ है।


बीएचयू जैसे संस्थान में चयनित होना वाकई बहुत बड़ी उपलब्धि है। इनकी इस सफ़लता से घर-परिवार,नगर,जनपद और समूचे प्रदेश का गौरव बढ़ा है। 

बहुत-बहुत बधाई!💐
                        ✍️अनुजपण्डित

आख़िर क्यों लग रहा है जंगलों की ख़ूबसूरती पर ग्रहण!

जंगलों, पहाड़ों एवं झरनों की खूबसूरती तब तक है, जब तक इनके वास्तविक या प्राकृतिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़ न की जाए! 


घने बीहड़ों, चोटियों एवं दुर्गम स्थानों पर अवस्थित ऐतिहासिक धरोहरें पर्यटन की धारा से जुड़कर सुगम और विकसित तो हो जाती हैं किंतु हकीकत यह है कि उनकी मूल भौगोलिक स्थिति विकृत हो जाती है। 

बहुधा देखने को मिल जाता है कि  जंगल को चीरकर  चिकनी सड़कें बना दी जाती हैं जिससे कि  आवागमन सरल हो सके!  सच कहें तो सबसे ज्यादा वही जंगल चाटे गये हैं जिनके बीच से ऐसी चिकनी सड़कें बनाई जाती हैं।


जलप्रपातों, झरनों एवं गुफाओं का आधुनिक तकनीकों द्वारा भौतिक रूप से सौन्दर्यीकरण कर दिया जाता है ताकि पर्यटकों की संख्या में बाढ़ आ जाये साथ ही स्थानीय लोगों को आय के स्रोत उपलब्ध हो जायें परन्तु पर्यटन के नाम पर पिकनिक मनाने गये हुए प्रकृतिप्रेमी डिस्पोजल,बोतल,पॉलीथीन आदि का अंबार लगाकर प्रकृति को हानि ही पहुँचाते हैं!

ऊँची कंदराओं को काटकर मन्दिर और आलीशान आश्रम बना देना, अत्यधिक चढ़ाई वाले पहाड़ों को खोदकर अत्याधुनिक सीढ़ियाँ बना देना तथा आस-पास के सुंदर पेड़ों को उखाड़कर मार्बल-संगरमरमर बिछा देना पर्यटकों को सुविधा प्रदान कर सकता है किंतु ऐसा करने से प्रकृति की मूल सुंदरता पर ग्रहण लग जाता है!

जिन जंगलों को बचाने की बात की जाती है, उन्हीं जंगलों को काट-छाँटकर उनके भीतर स्थित विशेष स्थान को विकसित किया जा रहा है!


 ऊबड़-खाबड़ रास्ते जिन पर चलते समय कब काँटा चुभ जाए पता ही नहीं चलता, कब शर्ट में करकटउनी चिपक जाती हैं आभास ही नहीं होता,आपके सामने से आपको देखकर हिरन कितनी प्यारी दौड़ लगा देता है कि मन स्वतः प्रसन्न हो उठे! प्यास लगे तो छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों पर बहने वाला साफ़ एवं मीठा पानी पीने में जरा भी हिचकना नहीं तथा बइर-मकोई पर नजर पड़ते ही उनको खाये बिना न रह पाना--ये ही तो सच्चा आनन्द प्रदान करते  हैं।
अब ये ही न बचेंगे तो काहे का जंगल और कैसी रमणीयता!

जंगल, पहाड़,कन्दराएँ,गुफाएँ, झरने व बहरा-पोखरा- ये सभी सच्चा आनन्द तभी प्रदान  करते हैं जब इन्हें इनके मूल रूप में रहने दिया जाए!


                  ✍️अनुजपण्डित

Sunday, November 1, 2020

आख़िर उस रात क्या हुआ था पांचवीं मंजिल के रूम नम्बर सात में!

___ अथर्व मेरी कम्पनी में बतौर मैनेजर काम करता है। मैं लगभग बीस वर्षों से अपनी कम्पनी में साड़ियों की बुनाई और कढ़ाई का काम करवाता हूँ,...जिसके लिये मुझे सैकड़ों कामगारों की आवश्यकता पड़ती है।...सूरत जैसे औद्योगिक शहर में बाहरी प्रान्तों से आये हुए मजदूरों को आसानी से काम मिल जाता है और..... हम उद्योगपतियों को उचित मजदूरी पर मजदूर..!


चूँकि अथर्व ज्यादातर काम सम्भाल ही लेता है इसलिये मुझे चिंता करने की कोई खास जरूरत नहीं  फिर भी हफ़्ते में तीन दिन  हिसाब-किताब देखने के लिये कंपनी की तरफ़ गाड़ी घुमा ही लेता हूँ। रात के लगभग आठ बजे थे जब मैं कंपनी की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके सीधा अपने केबिन की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक मेरी नजर एक नाबालिग लड़के  पर पड़ी। वो हाथों में साड़ियों का बण्डल लिये एक-एक करके सीढ़ी चढ़ रहा था। चूँकि इससे पहले मैंने उसे कभी देखा नहीं था और ऊपर से उसकी उम्र ...!  इसलिए थोड़ा आश्चर्य हुआ । मैंने अपनी केबिन में बैठकर सिगरेट जलाया और...  उसके वापस आने की प्रतीक्षा करने लगा।...लगभग बीस मिनट बाद सीढ़ियों पर खट-खट की आवाज सुनायी दी...। वो लड़का उतर रहा था....।

"ए सुनो! इधर आओ ।"

वो दबे पाँव मेरे करीब आया और मायूसी को चेहरे पर पोतकर मेरी ओर ताकने लगा।


 "बेटा ! क्या नाम है तुम्हारा और तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"- उसके कन्धे पर हाथ रखकर मैंने प्यार से पूछा।

"मैं चन्दन हूँ सर! यहाँ काम करता हूँ।!"- पतली आवाज में उसने उत्तर दिया।


"अच्छा! कबसे  और क्या काम करते हो?"- हल्की सी मुस्कान के साथ उससे पूछा।

 "सात दिन हो गये काम करते हुये...!अथर्व अंकिल ने मुझसे कहा है कि पाँचवीं मंजिल के रूम नम्बर सात में रोज साड़ी के बण्डल फेंक कर आना है, तो मैं जाता हूँ और फेंक कर आता हूँ .!"-  एक ही साँस में उसने फ़टाफ़ट बकर दिया।


- उसकी बात सुनकर मैं सन्न रह गया...!

"क्..क्..क्या कहा तुमने,रूम नम्बर सात!..अच्छा यह बताओ ,पाँचवीं मंजिल में और भी कोई रहता है या नहीं ?" 

" बाकी रूम तो बन्द रहते हैं लेकिन रूम नम्बर सात में लाइट जलती रहती है और चार लोग ताश खेलते रहते हैं..। मैं रात के  तीन बजे तक बण्डल फेंक कर आता-जाता रहता  हूँ लेकिन मैं उनसे बात नहीं करता और न ही वे मुझे ही कुछ कहते..! बस जोर-जोर से हँसते हुये ताश खेलते रहते हैं।"


- उसकी ये बातें सुनकर मेरी रूह काँप उठी और मैंने गुस्से में अथर्व को आवाज दी।

अथर्व दौड़ते हुए आया और बोला -"क्या हुआ सर!"

 " अथर्व ! तुम अच्छी तरह जानते हो कि  दो साल पहले उस रूम नम्बर सात में क्या हुआ था और तभी से हमने पाँचवीं मंजिल में सबका जाना बंद करवा दिया था फिर भी तुम इस बच्चे को वहाँ उस कमरे में...!"- मैंने चिल्लाकर कहा।


"सॉरी सर! गलती हो गयी,अब दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी।"

-शायद अथर्व को अपनी गलती का एहसास हो चुका था!

"तुम्हारी इस बेवकूफी की वजह से बेचारे मासूम को कुछ हो जाता तो! क्या.. उम्र ही कितनी है अभी इसकी..! महज 11साल!!...तुम यह बताओ कि इस नाबालिग को काम कर रखा कैसे ?..वो भी  मुझे बिना बताये!"- मैं भीतर से थरथरा रहा था।

-अथर्व ने बताया कि एक हफ्ते पहले एक आदमी आया था और इस लड़के को मुझे बेचकर पैसे ले गया था...तभी से मैंने इसे काम पर लगा दिया..!"

मैं फिर चिल्लाया-" तुम्हें हो क्या गया है अथर्व? तुम्हें पता है न कि बाल-मजदूरी कानूनी अपराध है! तुमने इतनी बेवकूफी कैसे की? ..तुमसे तो मैं बाद में निपटता हूँ ..और सुनो! कल तक लिफ्ट ठीक करवा लेना।"

- यह कहकर मैं उस लड़के को अपने घर ले गया और उससे उसके घर का पता पूछकर उसे उसके घर छोड़ आया।
लड़के के माता-पिता ने बताया कि लगभग पन्द्रह दिन पहले हमारा लड़का गाँव के बगीचे से लापता हो गया था। आपका एहसान कभी नहीं भूलेंगे।

👉(02 साल पहले रूम नं.-07 में चार लोगों का मर्डर हुआ था।)

                        ✍️अनुजपण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...