Saturday, January 30, 2021

ग्रामपंचायत चुनावों में क्यों गायब रहता है घोषणापत्र?

लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली के नियमानुसार किसी भी चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार को चाहिए कि चुनाव से पूर्व जनता के समक्ष अपना तैयार किया हुआ घोषणापत्र प्रस्तुत करे ताकि जनता उस घोषणापत्र के अनुसार अपने मत का निर्धारण कर सके। 

घोषणापत्र में वे सारी बातें समाहित रहती हैं,जो जनता और उस क्षेत्र के विकास से सम्बंधित होती हैं। प्रत्येक उम्मीदवार के मन में क्षेत्र के विकास को लेकर अलग तरह की योजनाएँ रहती हैं और वह जनता के सामने अपनी योजना के तहत विकास की बात करता है किंतु ग्रामपंचायत चुनावों में इस तरह का कोई भी घोषणापत्र नजर नहीं आता क्योंकि न तो उम्मीदवारों को इसकी फ़िक्र है और न जनता इतनी जागरूक है कि वह उम्मीदवार से सवाल-जवाब कर सके!

यदि किसी गाँव का कोई शिक्षित और जागरूक व्यक्ति उम्मीदवारों को जनता के समक्ष बिठाकर उनका दक्षता भाषण करवाने की योजना बनाता भी है तो विभिन्न तरीकों से उसे डराया-धमकाया जाता है लिहाज़ा विवाद की स्थिति से बचने हेतु कोई भी व्यक्ति इस कार्य को अंजाम देने की सोचता भी नहीं !

मूलभूत सुविधाओं के अतिरिक्त भी गाँववासियों की क़ई आवश्यकताएँ होती हैं किंतु हर बार के चुनाव में विजयी प्रधान बस बिजली,पानी और सड़क जैसी जरूरतों को पूरा करने तक ही सीमित रहता है। किसी भी प्रत्याशी या जनता के जेहन में यह बात नहीं आती कि शिक्षा, राशन ,आवास,शौचालय  और पेंशन जैसे मुद्दों पर भी विशेष चर्चा होनी चाहिए। 

गाँव में शिक्षा का माहौल और तत्सम्बन्धी संसाधनों की समुचित व्यवस्था के लिए पुस्तकालय की स्थापना,रोजगारपरक शिक्षा के लिए विभिन्न कौशल-प्रशिक्षणों की शुरुआत तथा खेल-कूद की सामग्री आदि का समुचित प्रबन्ध भी गाँव के चतुर्दिक विकास के प्रमुख अंग हैं। इक्कीसवीं सदी के गाँव में यदि इन सब संसाधनों की व्यवस्था नहीं होगी तो कब होगी? आजादी के बाद से अबतक न जाने कितने प्रधान आये और गये किन्तु किसी ने गाँव के विकास हेतु अपना दृष्टिकोण व्यापक नहीं किया। 


इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि बड़े राजनीतिक चुनावों की तर्ज पर ही अब ग्राम पंचायत चुनावों में भी मतदाताओं को खरीदा जाता है।कभी रुपये, कभी मोबाइल,कभी मतदाता को निजी लाभ का लालच देकर उसे रिझाया जा रहा है ।अब यदि कोई प्रत्याशी इतना अधिक धन व्यय करेगा तो भला गाँव के विकास के लिए उसकी आत्मा कैसे गवाह देगी! जनता का भी मुँह नहीं खुलता क्योंकि उसका मुँह पहले ही बन्द करा दिया गया है!

बहुत से गाँव तो ऐसे भी हैं जहाँ अभी तक दस्युओं का भय मंडरा रहा था जिसके चलते चाहकर भी  वहाँ की जनता अपने पसंदीदा प्रत्याशी का चुनाव नहीं कर सकती थी क्योंकि प्रत्याशी दस्युओं को रुपये गिन देता था बदले में दस्यु जनता में डर का माहौल विकसित कर देते थे। मजबूरन जनता वहीं वोटिंग करती थी जहाँ दस्युओं का फरमान रहता था!


अब समय काफ़ी बदल चुका है। गाँव की जनता भी शिक्षित और जागरूक होने लगी है इसलिए प्रत्येक गाँव के मतदाता को  अपने प्रत्याशियों से उसके घोषणापत्र की माँग करनी चाहिए और उसी घोषणापत्र के आधार पर योग्य एवं कर्मठ प्रत्याशी का चुनाव करना चाहिए। 

धन-बल और वंशवाद की राजनीति को समझकर ऐसे व्यक्ति का चुनाव करना होगा जो वास्तव में गाँव को इक्कीसवीं सदी का गाँव बनाने के लिए कटिबद्ध हो। 


#गाँव_पर_चर्चा_क्रमशः.....
                                   ✍️ अनुज पण्डित
फ़ोटो साभार गूगल

Wednesday, January 27, 2021

ग्राम-पंचायत चुनाव अन्य चुनावों से किस तरह अलग हैं तथा युवाओं की क्या भूमिका है?

🍂ग्रामपंचायत -चुनाव को, अन्य चुनावों से इसलिए अलग ढंग से देखा जाता है क्योंकि गाँव के मतदाता और प्रत्याशी कहीं न कहीं एक दूसरे से अत्यंत नजदीक से जुड़े होते हैं।   परिवार,बिरादरी,पट्टीदारी और गाँवदारी के अतिरिक्त एक जो सबसे अहम सम्बंध होता है, वह है सम्मान और प्रेम का सम्बंध!


एक समय था जब चुनाव चाहे जो भी लड़े किन्तु प्रत्याशियों में परस्पर तनातनी नहीं थी। देखते ही देखते गाँव का  राजनीतिक वातावरण  बदल गया ! पहले मुखिया का चुनाव होता था तो आपसी सहमति से निर्विवाद रूप से किसी व्यक्ति को मुखिया चुन लिया जाता है। अब मुखिया की जगह प्रधान ने ले ली। शुरुआती दौर में प्रधानी के भी चुनाव में लोगों की खास दिलचस्पी नहीं रहती थी। एक गाँव में दो या ज्यादा से ज्यादा तीन उम्मीदवार होते थे किंतु जैसे- जैसे  जनजागरूकता बढ़ी और किताबों,अखबारों,टीवी चैनलों,मोबाइल आदि के माध्यम से जनता ने लोकतंत्र का वास्तविक मायने समझा तब से ग्राम-पंचायतों का चुनाव रोमांचकारी और जुझारू  होना शुरु हो गया!

किन्तु इस बढ़ती हुई जागरूकता और राजनीति के नशे ने  लोगों के बीच एक खुला संग्राम छेड़ दिया है। बड़े चुनावों में पक्ष और विपक्ष कहने को तो दोनों एक दूसरे के विपक्षी हैं किंतु उनमें व्यक्तिगत टकराव नहीं होता। टकराव होता है तो मात्र विचारों में किन्तु गाँव के प्रत्याशी आपस में इस तरह नफ़रत का बीज बोये रहते हैं कि एक-दूसरे को देखना तक पसन्द नहीं करते! 


 गाँवों में अब प्रेम,सम्मान और आपसी भाईचारा नहीं बचा क्योंकि राजनीतिक गहमागहमी ने सब नष्ट कर दिया। अब बचा है तो मात्र स्वार्थ,दिखावे की हमदर्दी और धनलोलुपता। जब गाँव में प्रेम,रिश्तों का लिहाज़, आपसी विश्वास और  सहयोग जैसे तत्त्व मर चुके हों तब गाँव, गाँव नहीं रहता बल्कि नगर और महानगर का रूप ले लेते हैं।  
अब बात करते हैं ग्राम पंचायत चुनावों में युवाओं की स्थिति एवं उनकी भूमिका की तो    
उभरते लोकतंत्र में युवाओं की भूमिका राजनीति के क्षेत्र में काफ़ी प्रभावकारी सिद्ध हो रही है। प्रदेश से लेकर देश स्तर तक के चुनावों में युवा बढ़-चढ़ कर रुचि ले रहे हैं तथा विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए काम कर रहे संगठनों में प्राप्त दायित्वों का बखूबी निर्वहन भी कर रहे हैं किंतु ग्राम पंचायत चुनावों में  युवाओं की स्थिति अभी संतोषजनक नहीं। 

यहाँ युवाओं को मात्र और मात्र मतदाता के रूप में तवज्जो दी जाती है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले इन युवाओं के अपने बुजुर्ग या सगे सम्बन्धी जन होते हैं। ग्राम पंचायत चुनावों के  प्रत्याशी आज भी गाँव के युवा तबके को गम्भीरता से नहीं लेते। उनके दिमाग में यह बात घर की हुई है कि ये तो अभी बच्चे हैं, इन्हें राजनीति का क्या ज्ञान! यदि पूरे गाँव में बैठकर यह राय ली जाए तो बहुत कम लोग ही इस बात से सहमत होंगे कि किसी युवा प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाया जाए। दरअसल आज भी ग्रामीण तबके में शिक्षा और जागरुकता  का प्रतिशत कम ही है जिसके तहत मतदाता की मानसिकता के कदम आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे। 

आज भी गाँवों के अधिकांश घरों में अभिभावक  की बात के खिलाफ जाना अशिष्टता और असभ्यता समझा जाता है जिसका प्रभाव चुनाव के समय भी देखने को मिलता है। किसी घर का युवा चाहकर भी अपने पसंदीदा प्रत्याशी का समर्थन नहीं कर सकता क्योंकि उसके घर वालों की राय किसी अन्य प्रत्याशी के पक्ष में है। यदि लोकतंत्र के नियम के अनुसार वह अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए किसी योग्य प्रत्याशी का पक्षधर भी बनता है तो घर वाले उसे यह दलील देते हैं कि आपसी सम्बन्ध एवं व्यवहार ख़राब न करो,गाँवदारी और पट्टीदारी का ख्याल रखो। इस तरह से एक शिक्षित और आधुनिक विचारों वाला युवा अपना मत घरवालों के मत में मिलाने को मजबूर हो जाता है। 


समय बदल रहा है, युवा भी गाँव का एक जिम्मेदार नागरिक और मतदाता है। उसे भी हक है कि गाँव के विकास के बारे में अपनी राय बेबाकी से रखे तथा अपने बनाये गए घोषणापत्र के विभिन्न बिंदुओं पर प्रत्येक प्रत्याशी की राय ले। बड़े-बुजुर्ग युवाओं की राय से अपनी राय मिलाकर सोचेंगे तो निश्चित रूप से एक आधुनिक एवं विकसित गाँव का सपना साकार होगा।

विभिन्न राजनीतिक चुनावों की तरह ही ग्राम पंचायत चुनावों में भी युवाओं का दख़ल देना बेहद जरूरी है क्योंकि अब समाज बदल रहा है, विकास  का स्वरूप बदल रहा है तथा तकनीकी युग का प्रवेश हो चुका था।  गाँव के चुनावों में युवाओं की बात को गम्भीरता से सुना और समझा जाना जरूरी है तभी एक नई सोच का विस्तार होगा और परिवार,रिश्तेदारी,पट्टीदारी,गाँवदारी एवं बिरादरी से ऊपर उठकर एक योग्य एवं काम करने वाला मुखिया गाँव को मिल सकेगा।

                              ✍️ अनुज पण्डित            

Saturday, January 23, 2021

संस्कृत की प्राचीनता और महत्त्व

निखिल वैश्विक भाषाओं में सर्वप्राक्तन भाषा के रूप में प्रतिष्ठित संस्कृत भाषा आज भी समूचे विश्व में आलोकित हो रही है। यूँ तो विश्व में क़ई प्रकार।  की भाषाओं का प्रयोग बोलचाल में हो रहा है किंतु इन सबमें कहीं न कहीं संस्कृत भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। किसी भी भाषा की प्राचीनता का प्रमाण उसका अपना साहित्य होता है, इस हिसाब से विश्व का सर्वप्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है जिसकी भाषा संस्कृत में अन्य किसी भाषा का प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता है। यदि संस्कृत के पहले कोई भाषा होती तो उसका प्रभाव ऋग्वेद में प्रयुक्त भाषा संस्कृत में उसकी झलक दिख ही जाती! यह कहना पक्षपात नहीं होगा कि विश्व की अन्य भाषाएँ   संस्कृत का ही विकृत रूप हैं जो कालांतर में भौगोलिक उच्चारणों के कारण परिवर्तित रूप में प्रसारित हो गयीं!


संसार में कोई भी ग्रन्थ संस्कृत के ऋग्वेद से प्राचीन नहीं है, इस बात की पुष्टि इंग्लैंड के विद्वान् मैक्समूलर ने की।सृष्टि के आरम्भ में ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने चार ऋषियों (अग्नि,वायु,आदित्य,अंगिरा) को उत्पन्न करके उन्हें वेदों का ज्ञान प्रदान किया था।वेदों का उल्लेख भारत के समस्त प्राचीन  ग्रन्थों जैसे-ब्राह्मणग्रन्थ,उपनिषद्, मनुस्मृति,रामायण,महाभारत आदि में प्राप्त होता है।

वैदिक धर्म व संस्कृति सहित संस्कृत भाषा की प्राचीनता का प्रमाण मनुस्मृति के इस श्लोक में भी मिलता है, जिसमें स्वयं मनु कहते हैं कि-

एतददेशस्यप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्म:।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:।।


कुछ विद्वान् तमिल भाषा को संस्कृत से प्राचीन स्वीकार करते हैं किंतु एक प्रसंग से इस बात का आकलन आप स्वयं कर सकते हैं कि संस्कृत भाषा तमिल से निर्विवादेन प्राचीनतमा है----


"सिंहलद्वीप की अशोक वाटिका में बैठे हनुमान् जी इस विचार में डूबे थे कि मैं जगत् जननी सीता से आख़िर किस भाषा में बात करूँ क्योंकि यदि संस्कृत में बात करता हूँ तो सीता जी को शक हो सकता है कि मैं भी रावण का ही आदमी हूँ क्योंकि संस्कृत बोलना लंकावासी बखूबी जानते थे।

 और संस्कृत भी टूटी फूटी नहीं बल्कि द्रविण लोगों की तरह शुद्ध एवं परिमार्जित।अंजनि के लाल के भाल पर चिंता की रेखाएँ उभर रही थीं । क़ई तरह के विचार उनके जेहन में चल रहे थे ।जैसे-एक तो मैं वानर,दूसरा मेरा शरीर अतिसूक्ष्म। 

वानर होकर भी मैं मानवोचित संस्कृत भाषा में बोलूँगा किन्तु ऐसा करने से एक समस्या आयेगी।वह यह कि यदि मैं द्विज की भाँति संस्कृत का उच्चारण करूँगा तो सीता जी मुझे छद्म वेषधारी दशानन समझकर डर जायेंगी!

ऐसी अवस्था में मुझे उस भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो अवध के आस-पास के आम जन बोलते हैं,अन्यथा मैं सीता माँ को विश्वास नहीं दिला सकूँगा कि मैं श्री राम का सच्चा अनुचर हूँ।"

रामायण का उद्धरण इसलिए दिया क्योंकि ऋषि अगस्त्य से पहले तमिल भाषा का जानकार इस भूलोक में कोई न हुआ। 


आदिदेव शङ्कर ने अगस्त्य को तमिल का ज्ञान दिया। अगस्त्य मुनि राम के समय भी मौजूद थे।उसके पहले वैदिक संस्कृत का बोलबाला था और यह भी पढ़ने को मिला है कि अगस्त्य मुनि का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। 

इस प्रकार संस्कृत ही विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है, इसमें कोई संदेह नहीं।

अब बात करते हैं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संस्कृत भाषा की उपादेयता की तो  संस्कृत के दम पर ही भारत ज्ञान-विज्ञान की सम्पदा से युक्त था जिसके कारण इसे विश्व गुरु कहा जाता था। यवनों और अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाने हेतु यहाँ की समृद्धि का मुख्य आधार संस्कृत भाषा को क्षीण करने का काम शुरु किया ताकि यहाँ के गुरुकुलों में मिल रही वैज्ञानिक एवं चारित्रिक शिक्षा का ह्रास हो सके। संस्कृत के ग्रन्थों में जीवन को सुचारू रूप से चलाने वाली ऐसी क़ई महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है जिनका अनुकरण करके मानव समाज में व्याप्त अपराध,शोषण,चारित्रिक दोष एवं अनाचार  से निजात पा सकता है।



संस्कृत की उपादेयता का सबसे अच्छा उदाहरण यह उक्ति है कि  "भारतस्त प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा" यह उक्ति चीख चीख कर कह रही है कि भारत की प्रतिष्ठा मात्र दो चीजों को अपनाकर ही बचाई जा सकती है। पहली संस्कृत और दूसरी संस्कृति।

किसी भी देश का नैतिक एवं चारित्रिक विकास उस देश के चहुंमुखी विकास का मुख्य आधार है और उसके लिए उस देश के निवासियों को वहाँ की संस्कृति और सभ्यता को जीवंत रखे रहना चाहिए। भारत की संस्कृति से जुड़े समस्त तथ्य संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं।अस्तु हमें अपनी संस्कृति जानने हेतु संस्कृत का सहारा लेना ही होगा!

एक विदेशी विद्वान् सर विलियम जोन्स ने वर्ष 1784 में कलकत्ता के एक समारोह में कहा था कि "अब मेरे हाथ में वह कुंजी आ गयी है, जिसके सहारे मैं दुनिया की समस्त भाषाओं के रहस्य खोल सकता हूँ।यह कुंजी है-संस्कृत भाषा।


संस्कृत के ग्रन्थों में वह अमूल्य निधि छिपी है जिस पर शोध करके हम विश्व को अपने समक्ष नतमस्तक कर सकते हैं। अमेरिका,जर्मनी आदि देश आज भी संस्कृत पर सतत शोध करके इसकी वृद्धि हेतु प्रयत्नशील हैं।

संस्कृत भाषा के महत्त्व को समझने के लिए हमें निम्न लिखित बिंदुओं पर ध्यान देना होगा-


1-यूनेस्को की रिपोर्ट 2004 के अनुसार दुनिया की सभी भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं।

2-नासा के वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि अब का युग कंप्यूटर का युग है और कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत ही है जिसे चाहे जिस क्रम में लिखें,इसका अर्थ नहीं बदलता।

3-फोर्ब्स पत्रिका 1984 के अनुसार कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत है।

4-विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉक्टर लारेंन हेस्टिंगं के अनुसार मरीजों का इलाज भी संस्कृत भाषा द्वारा किया जा सकता है क्यूंकि संस्कृत बोलने से मधुमेह,रक्तचाप,मस्तिष्क जैसे रोग ठीक होते हैं। तंत्रिका तंत्र को मजबूत रखने में भी संस्कृत कारगर है।

इनके अतिरिक्त संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में शोध करके परमाणु हथियार,वायुयान एवं तकनीकों का आविष्कार भी सम्भव है। संस्कृत की वैज्ञानिकता से प्रभावित होकर ही आज जर्मनी,अमेरिका,फ्रांस,रूस,ऑस्ट्रिया, स्वीडन जैसे देश नर्सरी कक्षा से ही संस्कृत पढ़ना अनिवार्य किये हैं। कहीं ऐसा न हो कि  कल संस्कृत वैश्विक भाषा घोषित हो जाये और हम भारतीय इसे मृत या तुच्छ भाषा समझकर मात्र इसका उपहास ही करते रहें!



इन सबसे अलग संस्कृत भाषा की उपयोगिता वर्तमान समय में रोजगार की दृष्टि से भी है। अभी विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में संस्कृत भाषा को बाहर नहीं किया गया है। हमारे छात्र संस्कृत को एक विषय के रूप में रखकर विभिन्न स्तर के रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। प्रशासनिक,शैक्षिक एवं सेना आदि क्षेत्रों में आज भी संस्कृत के छात्रों का चयन तेजी से हो रहा है। इसलिए संस्कृत भाषा हर तरह से ग्राह्य और उपयोगी है।
#फ़ोटो_साभार_गूगल

                ✍️अनुजपण्डित

Wednesday, January 20, 2021

एक ऐसी कहानी जिसे पढ़कर आपके होश उड़ जाएँगे!

🍂एक सनकी ऐसा भी!
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गर्मियों के दिन थे,सूरज के ताप से हर कोई हलकान था किंतु ऋतु चाहे जो भी हो, जरूरी काम तो करने ही पड़ते हैं! ऐसे ही एक जरूरी काम से सुमन भी अपने छः माह के बच्चे को लेकर  पति सलिल के साथ इलाहाबाद  के लिए निकली।

घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर बस अड्डे पर बैठकर सलिल और उसकी पत्नी अपने गन्तव्य तक जाने वाली बस का इंतज़ार करने लगे। बस आयी और  रुकी। सलिल ने झट से सामान उठाया और बस में प्रवेश कर गया,पीछे-पीछे सुमन भी बच्चे को गोद में सम्भालते हुए बड़ी सावधानी से बस में घुसी।.. 

विशेष रूप से महिलाओं के लिए रिजर्व सीटें पहले से ही भरी थीं लिहाज़ा सुमन को जनरल..(महिला-पुरुष दोनों ) सीट पर बैठना पड़ा। वास्तव में सलिल और सुमन दोनों यह चाहते भी थे कि हम दोनों एक साथ एक ही सीट..(डबल सीटर) पर बैठें।

बस चली और महज पाँच किलोमीटर बाद एक छोटे से स्टॉप पर बस रुकी। तभी ...एक साढ़े छः फीट का आदमी जिसकी असामान्य शक़्ल को देखकर कोई भी असहजता महसूस कर सकता था, बस में चढ़ा।...उसने एक सरसरी नज़र से  ख़ाली सीट टटोला किन्तु एक भी सीट ख़ाली नहीं दिखी। 

दोनों ओर की सीटों के बीच जो आने-जाने की गैलरी होती है,उस पर भी लोग पंक्तिबद्ध ढंग से खड़े गर्दन का पसीना पोछ रहे थे। ऐसी खचाखच स्थिति में वह गैलरी ही एकमात्र विकल्प थी जिस पर पैर जमाना सम्भव था सो वह व्यक्ति पँक्ति के बीचों-बीच खड़ा हो गया।

यह आम बात है कि बस के भीतर खड़े-खड़े यात्रा करने वाले यात्री अक़्सर सीट वाले यात्रियों से सटे रहते हैं और सीट पर बैठे यात्रियों का एक पैर भी कभी-कभी सीट की परिसीमा से  बाहर निकला होता है ,जो बिना सीट वाले यात्री से सटता रहता है। कभी-कभी तो सीट न मिलने की वजह से खिसियाया हुआ खड़ा यात्री यह तक बोल देता है कि "अरे ओ भाईसाब! अपना पैर अन्दर कर लीजिए, इसकी वजह से मैं ठीक-ठीक खड़ा भी नहीं हो पा रहा हूँ।"

इत्तफ़ाक़ से जिस सीट पर सुमन अपने बच्चे को लेकर बैठी थी,उसी सीट से सटकर वह व्यक्ति जम गया। बस चल रही थी,सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार व्यस्त थे। कोई गर्मी को कोसकर शीत काल की तारीफ़ कर रहा था,कोई फ़ोन पर बात, कोई खिड़की के बाहर ताक रहा था , तो कोई नैनसुख लेने में ही मगन था।

तभी अचानक...सुमन के  बच्चे ने लघुशंका कर दी सो सुमन ने जल्दबाजी में उसे गोद से उठा लिया । बच्चे को उठाते हुए लघुशंका के कुछ छींटे उस व्यक्ति के ऊपर पड़ गए जो वहीं सीट से सटकर खड़ा था। छींटे पड़े नहीं कि उस व्यक्ति का गुस्सा इन शब्दों के साथ फूट पड़ा कि..

" इसने मेरे ऊपर लघुशंका कैसे किया! मैं इसका टाना (दोनों टाँगों के बीच का हिस्सा) फाड़ डालूँगा।"

एक तो उसकी कर्कश आवाज, ऊपर से  ऐसे शब्द वे भी एक नौनिहाल के लिए जिसे यह तक भान नहीं कि मैं कौन हूँ! ...सुमन और सलिल सहित बस के सभी यात्री सन्न हो गए। आज से पहले शायद किसी ने एक बच्चे के लिए ऐसे अपशब्द नहीं सुना था इसलिए सबने नजरअंदाज कर दिया किन्तु सलिल को धक्का लगा। उसने उस व्यक्ति से बड़ी विनम्रता से कहा-

" भाई साहब! बच्चा है, उसे नहीं पता कि कहाँ-क्या करना है! आप नाराज़ मत होइए,प्लीज।"

उस व्यक्ति ने फ़िर वही शब्द दोहराये-
"मैं इसका टाना फाड़ डालूँगा।"

सलिल- " अरे ! यह क्या कह रहे हैं आप! मैं साफ़ कर देता हूँ,आप कहें तो आपके लिए नए कपड़े दिलवा देता हूँ!"

सलिल ने बार-बार निवेदन किया, क्षमायाचना की किन्तु उस व्यक्ति के मुँह से बार-बार एक ही वाक्य निकल रहा था-

"मैं इसका टाना फाड़ डालूँगा।"

अब तो बस के अन्य यात्री भी आश्चर्यचकित हो गये ,यह देखकर कि, अरे! कितना अजीब इंसान है यह! एक दुधमुँहे बच्चे के लिए कोई ऐसा बोलता है क्या!

सभी ने उस व्यक्ति को अपने-अपने तरीके से समझाया किन्तु वह व्यक्ति अपने उसी एक वाक्य पर अड़ा रहा।सब यह समझ चुके थे कि या तो यह व्यक्ति कसाई है या दिमाग से सनकी! मामले को बढ़ता देखकर ड्राइवर ने एक थाने के सामने बस रोक दिया और दौड़कर जल्दी से इंस्पेक्टर को लिवा लाया।

इंस्पेक्टर के आते ही सुमन और सलिल ने पूरा मामला सुना दिया। इंस्पेक्टर ने कहा-
"आप लोग चिंता मत कीजिये, ऐसा अक्सर लोग बोलते हैं किंतु ऐसा होता थोड़ी है!"

उस व्यक्ति के चेहरे में चिंता और भय की एक भी लकीर तक नहीं उभरी थी और न ही इंस्पेक्टर के आने से उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन हुआ।

इंस्पेक्टर ने उससे कहा-"  यार बिल्कुल पागल आदमी हो क्या? भला एक बच्चे के लिए कोई ऐसा बोलता है!"

इतना सुनते ही उस व्यक्ति ने फिर से वही वाक्य दोहराया-
"मैं इसका.....डालूँगा।"

इंस्पेक्टर को भी गुस्सा आ गया उसने कहा कि- "अच्छा! चलो फाड़ो, मैं भी देखता हूँ कि तुम कितने बड़े बाहुबली हो!"

इसके बाद जो हुआ,वह सुनकर आप सब हकबका जायेंगे कि ऐसा भी कोई करता है क्या!

किन्तु ऐसा ही हुआ। उस व्यक्ति ने बिना किसी असहजता के,बिना डर के   उस नौनिहाल के दोनों पैर पकड़े और चर्र से फाड़ दिया!

सुमन,सलिल,इंस्पेक्टर और सभी यात्री सन्न..। एक पल के लिए घनी शांति छा गयी बस में। इंस्पेक्टर क्या किसी को भी इसका तनिक भी अंदाजा नहीं था कि वह व्यक्ति जो बोल रहा है, वह कर भी सकता है!

सुमन और सलिल का रो-रो कर बुरा हाल था। अरे एक ही तो संतान थी उनकी जो सात साल के लंबे इंतजार और कई मन्नतों के बाद हुआ था। सुमन बार-बार यह कर शिर पीट रही थी कि-

" काश! मैं जल्दबाजी में अपने जिगर के टुकड़े को डायपर पहनाना न भूलती तो आज यह अनर्थ न होता!

इंस्पेक्टर ने भीगी आँखों से अपनी टोपी उतारी और उस सनकी  राक्षस  के माथे पर पिस्तौल सटाकर गोली मार दी।
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नोट- कहानी के पात्र,और कथावस्तु सब काल्पनिक हैं। इसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं।
#फ़ोटो_प्रतीकात्मक_साभार_गूगल
                      ✍️ अनुज पण्डित

Monday, January 11, 2021

पढ़िये,युवा दिवस पर खरी-खरी बात।

      प्रत्येक वर्ष स्वामी विवेकानन्द जी की जयंती के उपलक्ष्य में समूचे विश्व में युवा दिवस मनाया जाता है, जिसके अंतर्गत जगह-जगह पर सभाएँ आयोजित कर युवा अपने विचारों की गंगा बहाते हैं ,किन्तु अत्यंत अल्प युवा ही स्वामी जी के व्यक्तित्त्व एवं विचारों से ओतप्रोत हैं।स्वामी जी ने युवाओं को किस रूप में देखना चाहा और आज के युवा किस रूप में जी रहे हैं! यह विचारणीय है।

स्वामी जी कहते थे कि युवा वह है, जिसमें सदाचार, ईमानदारी,सिंह सदृश ऊर्जा ,नचिकेता जैसी लगन और विशुध्द देशप्रेम हो,किन्तु अफ़सोस सम्प्रति ऐसे युवाओं का प्रतिशत न के बराबर दिख रहा है।परिवार से लेकर देशव्यापी मुद्दों तक आज के अधिकांश युवा बेईमान,विश्वासघाती और कर्त्तव्यों के प्रति लापरवाह दिखाई दे रहे हैं।


लगभग 90%युवा ऐसे हैं जो मात्र और मात्र दिखावे हेतु  शिष्टाचार और कर्तव्यनिष्ठता का चोला धारण करके फ़िर रहे हैं।पारिवारिक जिम्मेदारियों,समाज के प्रति उत्तरदायित्त्व,और देशहित सम्बन्धी कार्यों में इन युवाओं को कोई दिलचस्पी नहीं। किसी दिवस विशेष पर बड़ी-बड़ी बातें करके आप अपनी वास्तविक छवि तो छिपा सकते हैं किंतु आप जब अपनी आत्मा से पूछेंगे कि मैं कितना सही हूँ तो आपकी आत्मा चीत्कार करेगी। 

यद्यपि यह कटु सत्य है कि आज नए भारत के युवाओं को देशसेवा,परोपकार और सामाजिक योगदान देने की चिंता कम ,आर्थिक स्थिति मजबूत करने की चिंता कहीं ज्यादा सता रही है। ऐसा मेरा मानना है कि आज के अधिकांश युवा धनाभाव के चलते अपने उद्देश्य तक नहीं पहुँच पाते,प्रतिभाएँ दफ़न हो जाती हैं, देशप्रेम को दिल में दबाए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने में ही जीवन व्यतीत हो जाता है।


उस देश के युवाओं से राष्ट्र-निर्माण की क्या अपेक्षा की जाये जिन युवाओं का मानसिक शोषण वहाँ की सरकारें ही कर रही हों।करोड़ों की संख्या में युवा साथी दिन-रात मेहनत करके सरकारी नौकरी के लिये जूझ रहे हैं किंतु सरकार और प्रशासनिक व्यवस्था उनको घुट-घुट कर मरने पर मजबूर कर रही हैं।

समाज सेवा,देश निर्माण तथा स्वस्थ विचारों वाला बनने में आर्थिक गरीबी और पारिवारिक जिम्मेदारी बार-बार दीवार बनकर खड़ी हो जाती हैं।

आज देश में युवाओं को कई वर्गों में विभाजित करके देखा जाय तो इनमें एक वर्ग ऐसा है जो घिनौनी राजनीति के जाल में फँसकर नैतिकता और सकारात्मकता को रौंदता रहता है।अपनी शिक्षा, संस्कार और कर्त्तव्यों को ढककर मात्र कुत्सित नेताओं की जुबान ही बोलता है।

एक वर्ग ऐसा है जो नेताओं,अधिकारियों की चाटुकारिता करके एक प्रतिष्ठित और आदर्श बन जाता है। ऐसे अयोग्य युवाओं को चमकाने में बहुत बड़ा हाथ अखबारों और टीवी चैनल्स का रहता है।

किन्तु इन्हीं युवा वर्गों में एक वर्ग ऐसा भी है जो वास्तव में योग्य ,प्रतिभावान और कर्तव्यनिष्ठ है किंतु ऐसे युवाओं पर शायद ही किसी की कृपादृष्टि पड़ती हो!यह युवा वर्ग अपने अस्तित्त्व के लिए अपनी दशा एवं दिशा तय करने में पूरा यौवन खपा देता है किंतु कोई तवज्जो नहीं देता क्योंकि आजकल जो दिखता है वही बिकता है।

क्या स्वामी जी ने ऐसे ही युवाओं की कल्पना की थी जो आज के भौतिकतावादी युग में नख-शिख डूबकर वासना    में लीन हो गए हैं ,जो राह चलती बेटियों पर अपनी कामुक नजर गड़ाए खड़े रहते हैं, जो चौराहे पर खड़े होकर मार-पीट और लड़कीबाजी की बातें करते हैं!

नहीं,, स्वामी जी ने एक ऐसे युवा की कल्पना की जो सत्य,नैतिकता, संस्कारों के सहारे  कर्तव्यपथ पर चलता हुआ ,खुद को चारित्रिक दोष से बचाकर अपने लक्ष्य तक पहुँचे।

देश के युवा आने वाले कल का निर्माण करते हैं,यदि इस बात को गम्भीर होकर सोचें तो आपको लगेगा कि अरे!यदि आज का युवा इतना कुत्सित और कर्तव्यहीन है तो आनेवाले कल का स्वरूप कितना भयावह होगा! अतः समस्त युवाओं से आग्रह है कि सब अपने-अपने कर्तव्यों को समझें,अपनी आर्थिक स्थिति पर ध्यान दें क्योंकि यदि पेट और जेब दोनों भरे हैं तभी स्वस्थ विचारों का उत्सर्जन सम्भव है और तभी आप राष्ट्र-निर्माण में सहयोग कर सकते हैं।


देश -प्रदेश की सरकारों को भी युवाओं की बेहतरी हेतु ठोस एवं गम्भीर कदम उठाने होंगे ताकि देश शसक्त एवं विचारवान बन सके।  
 ख़ैर.....!
#युवा_दिवस_की_शुभेच्छा
                                        ✍️अनुजपण्डित

Wednesday, January 6, 2021

"सीता-परित्याग" की घटना पूर्वनिर्मित योजना थी

🍂 शृंगवेरपुर में  परम पावनी गङ्गा को पार करने के बाद  लक्ष्मण और सीता सहित श्रीराम जब भरद्वाज ऋषि से मिले तो उनसे  महाकवि वाल्मीकि के आश्रम की स्थिति जानने का अनुरोध किया। चूँकि  भरद्वाज मुनि वाल्मीकि के प्रिय शिष्य थे इसलिए वाल्मीकि सम्बन्धी समस्त जानकारियों से रूबरू रहते थे। भरद्वाज मुनि ने सहर्ष बताया कि प्रयाग से ठीक दश कोस यानि तीस किलोमीटर की दूरी पर सिरसा नामक स्थान पर गुरु जी का आश्रम आलोकित हो रहा है।


वाल्मीकि मुनि का आतिथ्य पाने के बाद हर्षित राम   जब पत्नी और अनुज सहित आश्रम का भ्रमण कर रहे थे तो प्रांगड़ की विभिन्न गतिविधियाँ देख-सुन कर आश्चर्यचकित तो हुए ही साथ ही भीतर से सहज प्रसन्नता भी फूट पड़ी। वेदपाठ की ध्वनि और  यज्ञ के सुगंधित धुएँ से आश्रम का समस्त वातावरण सुवासित होकर अलौकिक सुख प्रदान कर रहा था।संगीत,शास्त्र और युद्धकला में पारंगत छात्र यह मानकर  अभ्यास कर रहे थे कि बिना अभ्यास के विद्या विष के समान है।

राजनीति,आयुर्वेद,पशुपालन,स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि विभिन्न प्रकार के विभागों से युक्त आश्रम को देखकर यह कहा जा सकता था कि त्रेता युग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम शिक्षा का एक बड़ा केंद्र था,जहाँ पर सभी प्रकार की शिक्षा सभी छात्रों को समान रूप से दी जाती थी।


सबसे अधिक श्रीरामचन्द्र उस समय प्रसन्न हुए जब देखा कि मनु द्वारा गिनाए गये धर्म के दश लक्षणों  (धैर्य ,क्षमा,  दम, योग,चोरी न करना,सत्य,इन्द्रियनिग्रह, प्रातिभज्ञान,विविध विद्याएँ, क्रोध न करना करना)  की प्रेरणा भी  छात्रों को दी जा रही है! प्रभावित राम ने कहा, सीते! बच्चों की शिक्षा और चारित्रिक विकास हेतु यह आश्रम सर्वोत्तम जान पड़ रहा है।


उधर भ्रमण के दौरान सीता जी ने भी आश्रम की तपस्विनियों से ज्ञात किया कि यहाँ की स्त्रियाँ नारी धर्म के सभी गुणों से युक्त हैं,जिनमें से कुछ प्रसूति कार्य और नवजात शिशुओं की देखभाल में दक्ष हैं। सीता ने जब राम की प्रसन्नता देखी तो बोलीं- स्वामी! चूँकि इस समय हम तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं इसलिए कहना उचित नहीं है फिर भी यदि आपकी अनुमति हो तो अपने मन की बात आपके समक्ष प्रकट करूँ!

राम की मन लेकर सीता ने कहा कि-  गृहस्थ जीवन में आने के बाद यदि मैं भी माँ बनने के लक्षणों से युक्त होऊँ तो प्रसूतिकाल नजदीक आने पर आप मुझे यहीं इसी आश्रम पर ही प्रसूति के लिए भेजें! क्योंकि चौदह वर्ष बाद आप राष्ट्राध्यक्ष पद पर सुशोभित होंगे अर्थात् आप सारी जनता  के  पिता हो जाएँगे इसलिए सभी नागरिकों की पुत्र के समान रक्षा करना आपका परम धर्म हो जाएगा। ऐसे में पत्नी और संतान के मोह में पड़कर आप राष्ट्र की सेवा पूरे मन से कैसे कर पायेंगे!

राम ने कहा-सीते! माताएँ इस कार्य के आज्ञा नहीं देंगी कि ऐसी स्थिति में उनकी प्यारी बहू को पुनः तपोवन भेज दिया जाए! तब सीता ने मुस्कराते हुए  कहा कि आप तो कूट रचना में माहिर हैं! कोई उपाय निकालकर गोपनीय तरीके से मुझे यहाँ भेज दीजियेगा!  

यह आश्रम संतान के विकास हेतु अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि बच्चे सभी प्रकार की शिक्षाएँ एक जगह ही प्राप्त कर सकते हैं और आप भी पत्नी एवं संतान के मोह से दूर रहकर अच्छी तरह राष्ट्र का संचालन कर सकेंगे।

                    ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...