Sunday, August 30, 2020

चित्रकूट के मड़फा में है ऐतिहासक शिवमन्दिर


प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित चित्रकूट सदा से आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक आकर्षण का केंद्र रहा है। इस जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे क़ई ऐतिहासिक स्थल हैं जो भारतीय स्थापत्य कला एवं आस्था के प्रमाण हैं। क़ई प्राचीन मंदिर ऐसे हैं जिन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि इनका निर्माण चन्देलशासकों ने करवाया था।


जनपद चित्रकूट के रामनगर विकास खण्ड के अंतर्गत दशवीं शताब्दी के आस-पास बना एक मंदिर है जिसे  "मड़फा शिवमन्दिर" के नाम से जाना जाता है। 


लाल कमलपुष्पों से आच्छादित कूमर्दो सरोवर के तट पर स्थापित इस मन्दिर के भग्नावशेषों को देखकर आँखों के समक्ष क्रूर औरंगजेब का घिनौना चेहरा मंडराने लगता है। कटी हुई मूर्तियाँ, खण्डित आमलक एवं अन्य अवशेष    स्वतः बोल पड़ते हैं कि हमारी यह दुर्दशा उसी जेहादी औरंगजेब ने किया है 


ऐतिहासिक एवं धार्मिक आस्था हेतु प्रसिद्ध तथा खंडहर हुए इस मंदिर को "प्राचीन संस्मारक एवं पुरातात्विक स्थल अवशेष अधिनियम -1958 एवं 2010" के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करते हुए भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने अपने अधीन संरक्षित कर लिया है।


पुरातत्त्व के निर्देश पर इस मंदिर के अवशेषों की सुरक्षा हेतु नियुक्त फूलचन्द्र शुक्ल ने बताया कि लगभग तीन-चार वर्ष पहले इस मंदिर का कामचलाऊ जीर्णोद्धार किया गया था। इस मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा एक और बात से लगता है कि त्रेता में श्रीराम वनवास के दौरान इस सरोवर पर स्नान किये थे और यहाँ स्थापित शिवलिंग के दर्शन किये थे।

मन्दिर और इसके प्रांगड़ की बात करें  तो इस मंदिर के गर्भगृह के चारों तरफ गङ्गा-जमुना-सरस्वती एवं काली की प्रतिमाएँ दीवारों पर ही गढ़ी गयी हैं। टूटी हुई नन्दी बैल की प्रतिमा सहित   बुद्ध की प्रतिमा भी है जो यहाँ से कुछ दूरी पर नहर के उस पार स्थापित थी किन्तु बाद में इसी मंदिर की सीमा के अंदर रख दी गयी।

पुरातत्त्व विभाग ने इस मंदिर सहित इसके अवशेषों को अपने अधीन तो कर लिया किन्तु इसे आकर्षक एवं सुंदर बनाने हेतु इसके  नवनिर्माण की आवश्यकता अभी भी है ताकि पर्यटकों का मन आकृष्ट हो सके और बिखरे पड़े अवशेषों को व्यवस्थित किया जा सके।


               ✍️ अनुजपण्डित

Tuesday, August 25, 2020

क्वचिदपि कुमाता न भवति


 यह तस्वीर है कोलकाता में रहने वाली रानू मण्डल(बाएँ) की और साथ में है उनकी बेटी जो दस वर्षों के बाद अपनी माँ से मिली है। इन दस वर्षों में इस बेटी को अपनी माँ की याद नहीं आयी क्योंकि उसकी माँ रानू मण्डल दिखने में बदसूरत थी। 

अकेली रानू मण्डल रेलवे स्टेशन्स पर गाना गाकर लोगों से पैसे माँगकर जीवन बिताती रही। रानू मण्डल के भीतर जो सुरीली आवाज है वो ईश्वर प्रदत्त(God gifted) है । वो हमेशा सुश्री लता मंगेशकर के गीतों को गाया करती थी परन्तु लोगों ने उसकी प्रतिभा को नजरअंदाज किया। 
●एक दिन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतीन्द्र की पारखी नजरें रानू मण्डल की प्रतिभा को पहचान लेती हैं और अतीन्द्र ने उसका वीडियो बनाकर अपने फेसबुक एकाउंट तथा टिक टॉक में शेयर कर दिया । 

रानू मण्डल का भाग्य चमका और जाने माने म्यूजिक कंपोजर #हिमेश_रेशमिया जी की नजर इस गरीब प्रतिभा पर पड़ी । बस ,हिमेश ने रानू के साथ अपनी आने वाली फिल्म का गाना रिकॉर्ड किया और इस तरह रानू रातों रात बॉलीवुड की स्टार बन गयीं। 

इसे कहते हैं किस्मत जो संसाधन, और जुगाड़ के बिना भी किसी अकिंचन को चमका  सकती है। आज साबित हो गया कि कर्म के अतिरिक्त भाग्य की भी अहम भूमिका होती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।

यह तो कहानी है रानू मण्डल के सफ़र की किन्तु इसके बाद जो हुआ वो चिंतनीय भी है और करुणामय भी।


रानू को स्टार बनती देखकर उनकी बेटी जो दस वर्षों तक अपनी माँ का त्याग किये रही ,वो अब मम्मी मम्मी कहते हुए अपनी माँ के पास पहुँच गयी। माँ वास्तव में माँ होती है, उसने उसी प्रेम से बेटी को गले लगाकर स्वीकार किया। 

दुर्गा शप्तशती में सही लिखा है कि "कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति"-अर्थात् औलाद भले ही बुरी निकल जाए किन्तु माँ कभी बुरी नहीं हो सकती।

                         ✍ अनुज पण्डित

👆यह आलेख 1 वर्ष पूर्व लिखा गया था।

Monday, August 24, 2020

हिन्दी

 देश के सबसे बड़े बोर्ड यूपी बोर्ड में लाखों की सङ्ख्या में छात्र-छात्राओं का हिन्दी जैसे विषय में  यूँ ढेर हो जाना महदाश्चर्य और लाज़िमी दोनों  है।


एक ओर भूत और वर्तमान सरकारों ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर इसकी गुणवत्ता को रौंदा है,  तो दूसरी ओर देश-विदेश में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव ने विद्यार्थियों का मन हिन्दी से हटाया है।

जो विद्यार्थी अन्य विषयों में अच्छे अंक प्राप्त कर सकता है वह  "हिन्दी" विषय में भी अच्छा प्रदर्शन कर सकता है क्योंकि हिन्दी तो छुटपन से ही उसके साथ-साथ गमन कर रही है! किन्तु हिन्दी के प्रति छात्रों की बढ़ती उदासीनता और समाज में  हो रहा हिन्दी का  पतन मुख्य कारक बन गये ।

वैसे भी, जब अध्यापक को ही शुद्ध वर्तनी और मात्रात्मक त्रुटियों से कोई लेना-देना नहीं है तो बेचारे छात्र-छात्राओं का क्या दोष?


बहुतेरे लेखक ऐसे हैं जो लम्बा-लम्बा लिखेंगे जिस में वर्तनी दोष का आधिक्य होगा, पत्रकार शब्दों की ऐसी-तैसी करेंगे और विश्वस्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला होगा तो कैसे पनपेगी मातृभाषा, कैसे गम्भीरता से लेंगे विद्यार्थी हिन्दी को, और कैसे घटेगी यूपी बोर्ड में हिन्दी में अनुत्तीर्ण छात्र-छात्राओं की सङ्ख्या?

और तो और यदि किसी को अशुद्ध वर्तनी हेतु टोंक दो तो वह आपको या तो अपना  चपरपेली वाला रूप दिखा देगा या अमित्र कर देगा, या वाक्युद्ध कर लेगा या तो यह कहकर अपना बचाव कर लेगा  कि- "भावनाओं को समझो।"

काश! मूल्यांकनकर्त्ता भावनाओं को समझता, प्राथमिक स्तर से ही बच्चों को हिन्दी का महत्त्व समझाकर उसे वर्तनी दोषों के प्रति सचेत किया जाता, समाज यह समझ सकता कि यदि पढ़े-लिखे लोग ही अशुद्ध शब्द-प्रयोग करेंगे तो उनमें और अनपढ व्यक्ति में अंतर ही क्या रह जायेगा! तो शायद हिन्दी की यह दुर्गति न होती और गतवर्ष ग्यारह लाख एवं इस साल आठ लाख विद्यार्थी हिन्दी जैसे विषय में मात न खाते!

माना कि अंग्रेजी के सापेक्ष हिन्दी की छवि धूमिल है किन्तु अनिवार्य प्रश्नपत्र के रूप में सम्मिलित होने और बचपन से ही हमारे सुकर्मों-कुकर्मों में सहायिका होने के नाते  "हिन्दी"  पर अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। 


बाकी विषयों की तरह हिन्दी को भी गम्भीरता से लिया जाये ताकि  'मातृभाषा'  मात्र 'भाषा' और तमाशा बनकर न रह जाये!

                     ✍️अनुजपण्डित

Saturday, August 22, 2020

राहुल सांकृत्यायन का चित्रकूट से सम्बन्ध

उत्तर प्रदेश का एक बहुचर्चित जनपद चित्रकूट जो अपनी प्राकृतिक सुरम्यता और आध्यात्मिकता के लिए विश्व-प्रसिद्ध है, न केवल भगवान् श्रीराम एवं प्राचीन ऋषियों  की तपोस्थली है वरन् देश के ख्यातिलब्ध एवं उद्भट् साहित्यकारों व मनीषियों का कभी आशियाना भी रहा है।

बाबा तुलसी, रहीम के अतिरिक्त पूर्वांचल की  धरती पर जन्मे बहुभाषाविद् एवं घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के तत्त्वान्वेषी महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी कुछ वर्षों तक चित्रकूट को अपना निवास स्थल बनाया।


जी,हाँ, चित्रकूट में पुण्यतोया पयस्विनी नदी के तट पर लगभग 400वर्ष पूर्व महंत हनुमान् दास जी द्वारा स्थापित भगवान् जगन्नाथ मंदिर है जो उड़ीसा के पुरी में विराजमान् जगन्नाथ मन्दिर की ही तर्ज पर निर्मित है। यहाँ भी चन्दन-काष्ठ से निर्मित भगवान् श्रीकृष्ण, बलराम एवं सुभद्रा की प्रतिमाएँ ठीक उसी शैली में गढ़ी गयी हैं, जिस शैली में जगन्नाथ पुरी एवं चित्रकूट के जगदीश स्वामी की प्रतिमाएँ। प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की अमावस्या के दूसरे दिन इस मन्दिर से भगवान् जगन्नाथ की रथयात्रा भी निकाली जाती है जो सात दिन बाद आठवें दिन वापस आती है।


ध्यातव्य है कि चित्रकूट में एक जगह और भी है जो जगदीश स्वामी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।इस प्रकार इस जनपद में भगवान् जगन्नाथ के दो मन्दिर देखने को मिलते हैं जिनकी प्रतिमाएँ उड़ीसा के जगन्नाथपुरी मन्दिर की मूर्तियों से हूबहू मेल खाती हैं।

पयस्विनी नदी के किनारे बना यह जगन्नाथ मंदिर जो वर्तमान में "जयदेवदास का अखाड़ा" नाम से जाना जाता है,अपनी महत्ता एवं प्राचीनता के लिए विख्यात है।इसी अखाड़े में वर्ष 1914  में  "जयदेव वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय" स्थापित किया गया जिसमें 1934 तक पद्मभूषण महा पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने एक अंतेवासी छात्र के रूप में रहकर विद्याध्ययन किया था। अखाड़े के वर्तमान पुजारी महंत रमाशंकरदास जी ने बताया कि इसी महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य यश:शेष बाबूलाल गर्ग ने अपनी पुस्तक में इस अखाड़े  का इतिहास एवं राहुल सांकृत्यायन से जुड़ी बातों का उल्लेख किया है। 


 यह है कमरा नंबर 3 जहां रहते थे राहुल सांकृत्यायन


छात्रावास का कमरा नम्बर तीन जिसमें यायावर  राहुल सांकृत्यायन ने छात्र जीवन का निर्वहन किया,आज भी उनकी उपस्थिति का आभास कराता है। ऐसा कहा जाता है कि यहीं से निकलने के बाद पूर्वांचल के इस महान् साहित्यकार ने अपनी पदयात्रा एवं साहित्यिक यात्रा आरम्भ किया था।

इस प्रकार चित्रकूट  सदा से ही विद्वानों सन्तों  एवं पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है।

यह अत्यंत हर्ष एवं महत्त्व का विषय है कि देश-विदेश में घूम-घूमकर ज्ञान राशि बटोरने वाले भारतीय मनीषा के अग्रदूत का सम्बंध चित्रकूट की पवित्र भूमि से है। भारतीय विचारकों में एक महापण्डित का नाम ही आलोकित होता है जिन्होंने घुमक्कड़ी को जीवन का मूल मंत्र बताया।

"सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फिर कहाँ!

जिन्दगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ!"

आज आवश्यकता है कि चित्रकूट के ऐसे समस्त स्थलों के संरक्षण एवं नवनिर्माण की जो प्राचीन काल से ही धर्म,आस्था,एवं भारतीय मनीषियों के ठिकाने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
                    

     भगवाान् जगन्नाथ( कृष्ण, सुभद्रा, बलराम)

©️अनुज पण्डित

वर्चस्व

वर्चस्व 

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यह एक ऐसा शब्द है जो  प्रत्येक प्राणी के भीतर समाया है। यावद् जीना है, वर्चस्व की भावना  को सुरक्षित रखना है।  वर्चस्व का बड़ा करीबी रिश्ता  श्वासों से है। श्वास रूपी ईंधन खत्म हुआ नहीं कि वर्चस्व फुर्र हुआ। 


मानुष-जगत् को विवेकशील  कहा गया है जबकि ऐसा मैं नहीं मानता क्योंकि बहुतेरे विवेकशून्य देखे-सुने गये हैं , तथापि यदि सर्वाधिक विवेक किसी जीव में है तो वह है मनुष्य!
किन्तु मात्र विवेक ही क्यों कहा गया ? और भी तमाम गुण-दोष अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक ही हैं! षड्विकारों(काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर )के साथ ही साथ वर्चस्व की फ़िक्र   रात्रिन्दिवा व्यक्ति को भीतर ही भीतर खोखला किये दे रही है।

बाल्यकालादेव हमें एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ अपने गिरफ्त में धर लेती है। लड़कपन में खेली गयीं  छोटी-छोटी क्रीडाओं से लेकर जीवन के अंतिम महासंग्राम तक हम बस अपना प्रभाव, बाहुबल, कीर्ति और गुणगान सुनना चाहते हैं। प्रभाव रूपी मीनार स्थापित करने हेतु शास्त्र-निर्दिष्ट बातों का मसाला लगाया जाये तो यह अनुचित न होगा किन्तु अप्राकृतिक ,अमानवीय और अनैतिकता के भट्ठे में पकायी गयी ईंटों से वर्चस्व की मंजिलें तैयार करना पिशाचता है।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जा रही है।  पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक,शैक्षिक ,बौद्धिक,धार्मिक और राजनैतिक  हर क्षेत्र में लोग अपनी प्रभुता कायम करने हेतु जूझ रहे हैं। इस वर्चस्व की लड़ाई  का सबसे मजबूत और खुरपेंची योद्धा मीडिया है जो प्रिंट मीडिया,ई मीडिया और सोशल मीडिया आदि रूपों में समाज को उकसाता है, सहयोग करता है और बढ़ाचढ़ाकर उनका गुणगान करता है जिनके द्वारा यह पोषित-पालित होता है ।कुछ का वर्चस्व तो कायम हो जाता है किंतु बहुतों को मगजमारी ही करनी पड़ती है।

देश में आंतरिक वर्चस्व की लड़ाई तो हर क्षण चलती ही रहती है, परदेशों के लोग भी अपना प्रभाव जमाने की भरपूर कोशिश करते हैं। किसी भी नीति,काम या उत्पाद  के विरोध का कारण मात्र और मात्र अपनी धाक जमाना ही होता है फिर  चाहे वो कोई दवा हो या देश हित की बात।


सदियों से अपनी प्रभुता कायम करने के उद्देश्य से ही  भीषण युद्ध होते आ रहे हैं ।शक्तिशाली देशों ने कमजोर देशों को अपना गुलाम बनाये रखा जिसके परिणाम में उनका  सांस्कृतिक, भाषाई और शैक्षिक प्रभाव आज तक गुलाम देशों में दिखाई  पड़ रहा है। यही तो वर्चस्व है जो पहले भौतिक रूप में था , अब मानसिक रूप से ,विचारों में कब्जा किये बैठा है। यही कारण है कि  कतिपय स्वदेशी लोग समय-समय पर विदेशी वर्चस्व हेतु अपना मुँह खोलते रहते हैं।

स्वयं को सर्वश्रेष्ठ,अगुआ और सर्वज्ञ साबित करने हेतु कई लोग छोटी-छोटी जगहों या मंचों पर बिना आमंत्रित  हुए मुँह उठाकर पहुँच जाते हैं और कई-दिनों का बासी,सड़ा तथा निरामिष पदार्थ उगल देते हैं जिसके दुर्गन्धयुक्त छींटे  चतुर्दिक् पड़ते हैं।

रिश्ते भुरकुन हों तो होते रहें,सम्बन्ध चरचरायें चाहें बिगड़ें , सामाजिक छवि गटर में  डूबे चाहे उतराये, उन्हें घण्टा फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें हर हाल में अपना प्रभाव दिखलाना है, खुद को  उच्चासन में विराजित करना है ।इसके लिए भले ही वे लतियाये जाएँ, अपशब्दों द्वारा बेइज्जत किये जायें या मुख पर कालिख पोतकर गर्दभ में लादकर घुमाए जाएँ!

वर्चस्व,प्रभाव या दबदबा जमाने  की जुगत में जो छल,कपट, चपरपेली या अप्राकृतिक रवैया अपनाया जाता है वो उनके मानसिकता की उपज है । ऐसी कलुषित मानसिकता मात्र उनका पतन नहीं करती अपितु समाज में हिरण्यकशिपु, रावण,शिशुपाल  जैसे खलनायक भी पैदा करती है जो एक अधर्मी, अत्याचारी और विध्वंशकारी युग का सूत्रपात करते हैं और मजबूरन धरा की लाज रखने हेतु स्वयं नारायण को अवतरित होना पड़ता है।


सत्य,धर्म,ईमानदारी,कर्मठता,नैतिकता और निष्पक्षता के मार्ग पर चलिये,आपको अपने वर्चस्व की चिंता किसी भी हाल में नहीं होगी क्योंकि यह मार्ग स्वत:आपको सबसे प्रभावशाली बनाकर श्रेष्ठता के शिखर पर स्थापित कर देगा! दूसरे की तरक्की, ज्ञान, धन तथा शक्ति देखकर कुढ़ना क्यों !  आपके पास भी वो सबकुछ है जो प्रकृति ने उन्हें देकर भेजा है तो फिर ईर्ष्या कैसी और नीचे गिराने की सोच क्यों? 

यदि कोई लोककल्याण की भावना से काम कर रहा है, अपने बीसों नाखूनों की कमाई से अपना तथा अपनों के उदर भर रहा है तो उसकी इतनी आलोचना कर देंगे कि वो जीना छोड़ दे! किसी बीज को अंकुरित होते ही कुचल डालेंगे तो उसके फलों की गुणवत्ता को कैसे बयाँ कर पायेंगे! यदि कोई किसी रोग या बुराई को  कमजोर करके उसका प्रभाव शून्य करने का दावा कर रहा है तो एक अवसर तो प्रदान कीजिये ! आखिर किसी को तो अवसर मिलेगा ही तो फिर जो पहले आया उसे क्यों नहीं? 

क्योंकि आपको शायद पता है कि पहले आने वाले का दावा सत्य हो सकता है जिससे आपके वर्चस्व को खतरा है ,आपके आकाओं को यह फूटी आँखों सुहाता नहीं। इसीलिए उस पर ऐसी-ऐसी छींटाकशी की जा रही हैं जो कि किसी गौहन्ता,पितृहन्ता,देशद्रोही और बलात्कारी पर भी शायद नहीं की जातीं! 


©️अनुजपण्डित
 

Friday, August 21, 2020

चक्रव्यूह

किसी भी काव्य ,नाटक या अन्य रूपक के भेदों का श्रवण मात्र करने से पूर्ण वास्तविक रसानुभूति होना असंभव है ,यावद् इनको देखा न जाए..क्योंकि अभिनय करने वाले विभिन्न पात्र अपने अभिनय कौशल से कथानक में प्राण ,समस्त मानवीय संवेदनाओं तथा भावनाओं को प्रविष्ट कर दर्शकों को विभिन्न प्रकार के रसों का आस्वादन कराते हैं!!..

यावद् अभिनय चलता है तावद् दर्शक  रस में डूबकर खुद को उस नाटक के इर्द-गिर्द घुमाता रहता है तथा उसी में तल्लीन रहता है...!....अभिनय समाप्त होते ही वह अभिनय की  दुनिया से बाहर आता है तथा अपनी निजी दुनिया में पूर्व की भाँति प्रवेश कर जाता है....नाटक का कथानक,पात्रों का अभिनय कौशल ,मंच की सुन्दरता तथा पात्रों की साज-सज्जा आदि विशेष बातों का वह कुछ दिन वर्णन करता दृष्टिगत होगा किन्तु शीघ्र ही वह इन सब बातों को विस्मृत कर मृत्युलोक के मायावी अभिनय में संलग्न हो जाता है...किन्तु कुछ दृश्य इतने मार्मिक होते हैं कि न चाहते हुए भी वही दृश्य बार-बार आँखों के सामने आता है तथा तत्सम्बन्धी भाव से हमें सराबोर कर हमारे अन्दर क्रोध,बेबसी,लाचारी ,नफ़रत ,घिन तथा विलाप जैसे भावों को जन्म दे देता है.......ध्यानाकृष्ट करें कि मैंने यहाँ पर विशेष रूप से इन्हीं भावों को गिनाया है .....!! वैसे तो इनके अतिरिक्त भी और कई प्रकार के मानवीय भाव हैं जो मनुष्य पर स्व-स्वानुसार प्रभावी रहते हैं......!!

........ऐसे ही कई भावों से मुझे भी कल गुजरना पड़ा.....जब मैं प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत का अत्यंत मार्मिक दृश्य 'अभिमन्यु-वध' देख रहा था...!यद्यपि यह कथा मैंने प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में भी पढ़ा था....इसके अतिरिक्त प्राय: इस कथा का जिक्र होता ही रहता है.....किन्तु सच कहूँ तो पहली बार मैंने अभिमन्यु-वध अपनी आँखों से अपने मोबाइल पर ही देखा.....जिसे देखकर मुझे कृपाचार्य,द्रोणाचार्य तथा कर्णादि  अन्यायियों से घिन आने लगी..!इन लोगों के मन में तनिक भी दया नहीं आई....जरा सा भी नहीं सोचा कि हम अनीतिपूर्वक  उस अभिमन्यु रूपी नए पौधे को तहस-नहस कर रहे हैं.....और वह अल्पायु का शूरवीर अंतिम साँस तक उन पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है!!.....आखिर यह कहाँ की शूरवीरता है कि छल से विपक्ष रूपी चक्रव्यूह रचकर उस निहत्थे योद्घा को सात-सात महारथी मिलकर मारते हैं!!....

.......खैर महाभारत की कहानी से आप सब परिचित हैं ..इसलिए विस्तार में जाना सम्यक् नहीं....!!...मैं बस इतना बताना चाहता हूँ कि जब यह मार्मिक एवं हृदय विदारक दृश्य मैंने देखा तो आँखों से अश्रु -धारा प्रवाहित होने लगी ..!!भीष्म पितामह केे ऊपर तो पहले से ही ख़फ़ा था किन्तु अब द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य आदि से भी नफ़रत जैसी हो गई है..!!आने वाली पीढ़ी जब भी इनकी बुजदिली की गाथा सुनेगी तो कभी भी इन लोगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगी...!

 .........बात बस इत्ती सी है कि जब भी समर-संग्राम में सारे अधर्मी तथा भ्रष्ट निर्बल योद्धा एक ऩीतिपरक पराक्रमी के सम्मुख आते हैं तो पराजय की आशंका से सारे वर्णशंकर बुजदिल एक साथ मिलकर अभिमन्यु रूपी सच्चे ,साहसी और शूरवीर को समाप्त कर देते हैं तथा अपनी क्षणिक एवं असत्य विजय का जश्न मनाते नजर आते हैं...किन्तु ये समाज को नोचनें वाले भेड़िए से भी बदतर लोग .. अर्जुन जैसे अजेय योद्धा को नहीं जानते....उसकी शक्ति तथा पराक्रम का इन्हें अन्दाजा नहीं है कि यह वह अर्जुन है जो तुम लोगों के गढ़े हुए हर चक्रव्यूह को ध्वस्त करना जानता है .....!!

चाहे जो रणनीति बना लें....चाहे जितने अपराधी एक साथ मिलकर सामना करें....तब पर भी यह अर्जुन रूपी राष्ट्र का सच्चा योद्धा सबको परास्त कर देश में शांति,समानता तथा समृद्धि अवश्य लाएगा!!!

..................अनुज_पण्डित

हाथी पार्क की हकीकत

 इलाहाबाद स्थित 'सुमित्रानन्दन पंत बालोद्यान ' एक क्रीड़ास्थल या पार्क है|..इस क्रीडा स्थल को हाथी पार्क के नाम से भी अभिहित किया जाता है |...

यूँ तो यह पार्क इलाहाबाद के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में गण्यमान् है किन्तु इस पार्क की स्थिति, रख-ऱखाव तथा देख-रेख अत्यन्त दयनीय और शिथिल है |.....

     

मेरे चित्र के पीछे यह जो हाथी की प्रतिमा दिखाई दे रही है, इसी के नाम पर शायद इसे हाथी पार्क के नाम से पुकारा जाता है किन्तु इस हाथी का दाहिना कान और एक दाँत क्षत-विक्षत होकर धरा में गिरे पड़े पार्क की शोभा बढ़ा रहे हैं!! पार्क में स्थापित गाय,जिराफ़ तथा हाथी की प्रतिमाएँ अपनी चमक और सुन्दरता को पूर्णतया खो चुकी हैं जो कि प्रशासन की लापरवाही बयाँ करती हैं!!..  .... 

बालोद्यान इसलिए है क्योंकि इस हाथी के शरीर के अन्दर बच्चे प्रवेश करते हैं तथा तीव्र गति से हाथी की जिह्वा के सहारे बाहर आते हैं..!! इसके अतिरिक्त दो-तीन छोटे झूले भी लगे हैं किन्तु इन झूलों में बच्चे कम और प्रेमी युगल अधिक झूलते हैं!!!... दरअसल इस पार्क में मैं प्रथम और अंतिम बार गया हूँ!! 

 प्रथम बार जाने का कारण बताना आवश्यक नहीं किन्तु अन्तिम बार का कारण यह है कि इलाहाबाद में जितने भी पार्क हैं, सबके सब प्रेमी युगलों से भरे हुए मिलते हैं.... घूमना, टहलना तथा प्राकृतिक रमणीयता का आनन्द लेना तो वाजिब़ है किन्तु प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा जो एक -दूसरे पर प्रेम बरसाने की अदाएँ हैं, उनसे पार्क का वातावरण दूषित हो चुका है तथा बदनाम स्थल के नाम से भी प्रसिद्ध हो चुके हैं!!.  .

मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि ऐसे प्रेमी युगल संस्कारहीन परिवारों के बच्चे होते हैं जो आते तो हैं यहाँ शिक्षा ग्रहण करने किन्तु लिप्त हो जाते हैं रासलीला में!! इस प्रकार पशुतुल्य आचरण  सार्वजनिक स्थलों में करना जहाँ पर लोग सपरिवार पर्यटन हेतु आते हैं. ...  बेहद शर्मनाक है....! चाहे बगल से राष्ट्रपति निकल जाएँ परन्तु ये ढींठ लैला-मजनू अपने आलिंगन की पकड़ ढीली नहीं कर सकते!!  ...

भारद्वाज पार्क से लेकर आजाद पार्क, खुसरो बाग तथा आनन्द भवन तक सभी रमणीय स्थल मानो प्रिया मिलन स्थल बन चुके हैं!!.... यही कारण है कि मैं किसी पार्क की ओर  दोबारा उन्मुख नहीं हुआ क्योंकि खुद पर शर्म आती है खुद को ऐसे संस्कारहीन लोगों के बीच पाकर!!..

खैर..!  मेरा अभिप्राय किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँकना नहीं है... मैं तो बस इस बालोद्यान की दशा बता रहा हूँ जो अत्यंत जर्जरावस्था में है!!... 

आप सब भी अवश्य आइए इस बालोद्यान (हाथी पार्क)  में!! 

                   ✍️अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...