#उपनिषच्चर्चा_भाग_4
🍂वैदिक ऋषि सिर्फ़ सृष्टि की उत्पत्ति और देवताओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछकर चुप हो जाते थे किंतु उपनिषद्-ऋषियों ने इस विषय पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वेदों में यज्ञ का प्रतिपादन किया गया और मानुष को यह प्रेरणा दी गयी कि यदि जीवन को सुखी,औऱ समृद्ध बनाना है तो वैदिक देवताओं की स्तुति करनी ही होगी,उन्हें प्रसन्न करना होगा क्योंकि विश्व की उत्पत्ति यज्ञ से हुई और यह यज्ञ सभी धर्मों से बड़ा है। इस प्रकार वैदिक धर्म का प्राचीन आख्यान वेद हैं और नवीन आख्यान उपनिषद्।
जब यज्ञों की प्रधानता बहुत अधिक बढ़ गयी तो सामाजिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन भी नजर आने लगे। ब्राह्मणग्रन्थों ने पुरोहितों और पुरोहितवाद को बढ़ावा देने का काम किया तो उसके विरुद्ध लोगों ने अपनी-अपनी राय रखी। इस विरोध के चलते लोग यह सोचने पर मजबूर हुए कि आखिर ये यज्ञ हैं क्या? इनके भीतर कौन सा रहस्य छिपा बैठा है और ये धर्म के प्रतीक कैसे हुए? क्या यज्ञों के द्वारा हम जीवन का चरम प्राप्त कर सकते हैं?
इस प्रकार जब कर्मकांड को ही जीवन का सार समझा जाने लगा तो लोगों ने विचार करना शुरू किया। हमारे वैदिक आर्य प्रकृति को तवज्जो देते थे और प्रकृति के प्रत्येक घटक का कोई न कोई देवता होता है, ऐसा मानते थे।प्रकृति के अनेक देवताओं की कल्पना ने उन्हें बहुदेववादी बना दिया। इन देवताओं में प्रमुख थे-अग्नि,सूर्य,इंद्र,रुद्र ,अश्विनौ, मरुत, यम आदि।
इस तरह से लोगों में मानसिक खलबली मच गई और मस्तिष्क यह सोचकर व्याकुल होने लगा कि आखिर वह परमशक्ति कौन है जो सृष्टि का नियमन क़रती है! उसका क्या स्वरूप है?हम उसका दर्शन कर सकते हैं क्या? इसी मानसिक व्याकुलता ने उपनिषद् के चिंतन का रास्ता तैयार किया।
#क्रमशः.......
✍️ अनुज पण्डित