Monday, May 31, 2021

उपनिषद्-चर्चा (भाग-4) उपनिषदों की उत्पत्ति और स्वरूप

#उपनिषच्चर्चा_भाग_4
🍂वैदिक ऋषि सिर्फ़ सृष्टि की उत्पत्ति और देवताओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछकर चुप हो जाते थे किंतु उपनिषद्-ऋषियों ने इस विषय पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वेदों में यज्ञ का प्रतिपादन किया गया और मानुष को यह प्रेरणा दी गयी कि यदि जीवन को सुखी,औऱ समृद्ध बनाना है तो वैदिक देवताओं की स्तुति करनी ही होगी,उन्हें प्रसन्न करना होगा क्योंकि विश्व की उत्पत्ति यज्ञ से हुई और यह यज्ञ सभी धर्मों से बड़ा है। इस प्रकार वैदिक धर्म का प्राचीन आख्यान वेद हैं और नवीन आख्यान उपनिषद्। 

जब यज्ञों की प्रधानता बहुत अधिक बढ़ गयी तो सामाजिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन भी नजर आने लगे।                                           ब्राह्मणग्रन्थों ने पुरोहितों और   पुरोहितवाद को बढ़ावा देने का काम किया तो उसके विरुद्ध लोगों ने  अपनी-अपनी राय रखी। इस विरोध के चलते लोग यह सोचने पर मजबूर हुए कि आखिर ये यज्ञ हैं क्या? इनके भीतर कौन सा रहस्य छिपा बैठा है और ये धर्म के प्रतीक कैसे हुए? क्या यज्ञों के द्वारा हम जीवन का चरम प्राप्त कर सकते हैं? 

इस प्रकार जब कर्मकांड को ही जीवन का सार समझा जाने लगा तो लोगों ने विचार करना शुरू किया। हमारे वैदिक आर्य प्रकृति को तवज्जो देते थे और प्रकृति के प्रत्येक घटक का कोई न कोई देवता होता है, ऐसा मानते थे।प्रकृति के अनेक देवताओं की कल्पना ने उन्हें बहुदेववादी बना दिया। इन देवताओं में प्रमुख थे-अग्नि,सूर्य,इंद्र,रुद्र ,अश्विनौ, मरुत, यम आदि।

 इस तरह से लोगों में मानसिक खलबली मच गई और  मस्तिष्क यह सोचकर व्याकुल होने लगा कि आखिर वह परमशक्ति कौन है जो सृष्टि का नियमन क़रती है! उसका क्या स्वरूप है?हम उसका दर्शन कर सकते हैं क्या? इसी मानसिक व्याकुलता ने उपनिषद् के चिंतन का रास्ता तैयार किया।


#क्रमशः.......
                         ✍️ अनुज पण्डित

Sunday, May 30, 2021

उपनिषदों में क्या वर्णित है? इनका उद्देश्य क्या है?

🍂ब्रह्म, जीव और जगत् का बोध प्राप्त करना ही उपनिषदों का मुख्य प्रयोजन है। ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है,इसीलिए उपनिषदों को "अवर" कहकर संबोधित किया गया। स्थूल हैं-जगत् और पदार्थ तथा सूक्ष्म हैं-मन और आत्मा।

समूचे दार्शनिक चिंतन का का मूल स्रोत उपनिषद् ही तो हैं। 
श्रीमद्भगवदगीता,ब्रह्मसूत्र और उपनिषद् को प्रस्थानत्रयी कहा गया है। उपनिषद् रूपी जल की धाराओं में वेदांत दर्शन का अद्वैतवाद प्रमुख है,तभी तो आदि शंकराचार्य ने उपनिषदों पर भाष्य लिखा! शंकराचार्य अद्वैतवेदान्त के प्रतिपादक थे। उपनिषदों का तत्त्वज्ञान धर्म और संस्कृति पर साफ़  परिलक्षित होता है। चाहे सांख्य हो या वेदांत,सभी भारतीय दर्शनों का मूल आधार भारतीय संस्कृति के अक्षय भाण्डार उपनिषद् ही हैं।

वैदिक युग में मनुष्यों ने जो जिज्ञासाएँ कीं उनके उत्तर हमारे दार्शनिक ऋषियों ने दिए इसीलिए ऋषियों की ज्ञानचर्चा का सारतत्त्व हैं उपनिषद्। 

मनुज,दनुज,देवता,पशु-पक्षी,विश्वम्भरा,प्रकृति तथा जड़-चेतन को माध्यम बनाकर रची गयीं प्रेरणादायक कहानियों से भरे पड़े हैं उपनिषद्। इन कहानियों में वेदों की बातों की व्याख्या है। जो बातें वेदों में दुरूह ढंग से कही गयीं, उन्हीं को सरल एवं सुबोध बनाते हैं उपनिषद्। 

प्रकृति के घटक और इनके देवता ही इन कहानियों के पात्र बनाये गए हैं।जैसे- इंद्र,वरुण,अग्नि,रुद्र, सूर्य,नदियाँ,पहाड़,पेड़,समुद्र आदि।

गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्शपरक दृष्टांतों के द्वारा जगत् के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। गुरु-शिष्य के संवाद प्रश्नोत्तर शैली में हैं। शिष्य प्रश्न करता है और गुरु उन प्रश्नों के उत्तरी देता है।

मुख्य कथाओं में कार्तवीर्य की कथा, नचिकेता की कथा,उद्दालक,श्वेतकेतु,सत्यकाम जाबालि एवं रजि की कथा को रखा गया है। इस प्रकार आध्यात्मिक एवं भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं उपनिषद्।


क्रमशः-------------जारी रहेगा।
                      ✍️ अनुज पण्डित

Friday, May 28, 2021

कैसा था उपनिषदों के पहले का जीवन?👇

🍂भारतीय सभ्यता के धरोहर उपनिषदों के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आख़िर ऐसी कौन सी आफ़त आन पड़ी थी कि उपनिषदों को रच डाला गया। इस बात का पता लगाने हेतु आपको ले चलता हूँ वैदिक युग में जहाँ न दुःख था,न अवसाद और न ही मानसिक असंतुष्टि। 


वैदिक काल के लोगों का जीवन अत्यंत खुशहाल,मनोरंजक और चिंतामुक्त था। यूँ कह लीजिए कि वैदिक युग सांसारिक सुखों के उपभोग का युग था। भावनाओं का आधिक्य,भोलापन,निश्चिंतता और स्वभाव में अल्हड़पन उस समय के लोगों का मानो जीवनध्येय था। प्रकृति अपने सभी रंगों से सुसज्जित पूर्ण यौवन पर थी। उस प्रकृति को देखकर लोगों के मन में आनन्द का संचार स्वत: उमड़ने लगता था और लोग खुशी से नाचते-झूमते थे। 

प्रकृति की मनोहारिता को निहारकर अन्तस् में जो आनन्द उमड़ता वही शब्द बनकर प्रस्फुटित होने लगा। इन शब्दों को लोगों ने स्तुति,प्रशंसागीत और काव्यरचनाओं में ढाला। इन गीतों में ईश्वर के प्रति यह प्रार्थना थी कि हम सभी जीव खुशी-खुशी सौ वर्ष तक जियें,हमारा आनन्द कभी क्षीण न होने पाए। इन गीतों के माध्यम से स्वर्ग जाने की इच्छा और वहाँ सुखपूर्वक रहने की कामना करते हुए लोगों ने विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अनेक यज्ञ-अनुष्ठान किये। अनुष्ठान द्वारा वे देवताओं से अपनी खुशहाली एवं सुख-समृद्धि की याचना करते थे। ये देवता कोई और नहीं बल्कि प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों के संवाहक और नियंत्रक ही थे।

जब प्रकृति करवट लेती थी तो विपदाओं का अंबार लग जाता था। इन्हीं विपदाओं से निपटने हेतु लोगों ने प्रकृति के देवताओं को प्रसन्न किया ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे और मानवजीवन खतरे में न आये! 

आज भी वही हो रहा है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और विभिन्न संक्रामक रोगों ने हमें घेर लिया है। आज भी प्रकृति के देवताओं अग्नि,मरुत,पृथ्वी,वरुण आदि का महत्त्व समझना अत्यधिक आवश्यक है। प्रकृति से प्रेम करने की जरूरत है तथा जीवन को प्रकृति के साथ चलाने की जरूरत है। ये गीत और स्तुतियाँ ऋचाओं में तब्दील हो गए और तैयार हो गया दुनिया का सबसे पहला ग्रन्थ वेद।

दुःख,संताप और चिंता से रहित वैदिक युग के लोगों की जीवनशैली लम्बे समय तक अनवरत चलती रही किन्तु आखिर ऐसा कबतक चलता! हमेशा तो एक जैसी स्थिति रहती नहीं! अब लोगों के मन में कुछ प्रश्न उपजने लगे।जैसे- इस व्यवस्थित प्रकृति का संचालक कौन है? सृष्टि का निर्माता कौन है? हम कौन हैं और अंत में यह संसार कहाँ जाएगा? इस तरह के प्रश्नों ने लोगों के दिमाग को झकझोरा तो लोगों ने इनका जवाब पाने के लिए अपने मस्तिष्क पर जोर डाला कुछ लोगों की चिन्तनशैली में व्यापकता आयी। ऐसा करने से वे जीवनचक्र को धीरे-धीरे समझने लगे और यह कल्पना करने लगे कि क्या जीवन में सिर्फ सुख ही सुख है? दुःख का कोई स्थान नहीं? तब उनके मन ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं है। 

जीवन सुख और दुःख दोनों स्थितियों का नाम है। लोगों के मन में जो भी प्रश्न आते उनका जवाब सिर्फ "न" ही आता। बस इसी "न" से शुरुआत हुई उपनिषदों की।

                ✍️ अनुज पण्डित

Tuesday, May 25, 2021

पुत्रमोह के कारण बच्चों की गलतियों को नजरअंदाज न करें वरना हो सकता है यह..👇👇


इतिहास गवाह रहा है कि जो भी पुत्रमोह के पाश में बंधा है ,उसकी औलाद आवारा,अराजक और अनैतिक हो गयी। आज भी पुत्रमोह का बंधन ढीला नहीं हुआ है। महाभारत काल में पुत्रमोह में अंधे हुए धृतराष्ट्र ने अपने ही बच्चों को कुरुक्षेत्र में खड़ा कर दिया। रघुवंशी दशरथ का पुत्रमोह थोड़ा अलग है, उन्होनें पुत्रमोह के चलते अपने प्राण तो त्याग दिए किन्तु उनके पुत्र कुपुत्र नहीं थे। उनके पुत्रों ने अपना नैतिक और चारित्रिक  पतन नहीं होने दिया।

आज तकनीकी युग में भी बच्चों ने अभिभावकों को खूब बुद्धू बनाया है।पढ़ाई के नाम पर मोबाइल और इंटरनेट पर अश्लीलता और नैतिक पतन की ओर ले जाने वाले कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। 

पढ़ाई के नाम पर घर से बाहर रह रहे युवक और युवतियाँ स्वच्छन्दता अपना रहे हैं और घर वालों को लगता है कि मेरा सुपुत्र/सुपुत्री कलेक्टर बनने की फिराक में है। अब के समय में भी कहीं--कहीं राम आदि जैसे सुपुत्र हैं जो समय रहते अपना उचित अनुचित समझने लगते हैं और भविष्य को बेहतर बनाने हेतु तत्पर रहते हैं किन्तु अभिभावकों का यह परम दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों की करतूतों पर नजर बनाए रखें अन्यथा एक बेहतर माता-पिता होने के सौभाग्य से वंचित रह जाएंगे। घर से बाहर बच्चे क्या गुल खिलाते हैं, कैसी संगति करते हैं, इन सब पर अभिभावकों की ताड़ना बहुत आवश्यक है। 

कुछ अच्छा कर गुजरने की उम्र में बच्चे अनैतिक मार्ग चुन लेते हैं, बिना उचित मार्गदर्शन के अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं तथा समाज के लिए अराजक बन जाते हैं। इन सब पक्षों पर गहन चिंतन और देखरेख की जरूरत है। विद्यालयों में शिक्षकों की जिम्मेदारी तब तक ही रहती है जब तक बच्चे विद्यालय में हैं।वहाँ से जाने के बाद क्या-क्या क्रियाकलाप करते हैं, इसकी जिम्मेदारी अभिभावक की है।


पुत्रमोह बड़ा घातक होता है जिसके चलते बच्चों की गलतियों पर नजर नहीं जाती और इस गलतफहमी में रहते हैं कि उनका बच्चा उनका नाम रोशन कर रहा है। "चरित्र का हत्यारा कौन?" इस लेख पर मैंने लिखा था कि यदि अभिभावकों को अपने बच्चों की वास्तविक परख करनी है तो उनकी सोशल प्रोफाइल चेक कर लें। उन्हें पता लग जायेगा कि उनकी संतान को क्या पसन्द है, किस क्षेत्र में वह मन लगाता है और उसकी मनोवृत्ति कैसी है! 

वर्तमान राजनीति में  देश की कई बड़ी पार्टियों ने पुत्रमोह  के चलते अपनी पार्टी को पतन की ओर उन्मुख कर दिया। किसी ने सच ही लिखा है कि-

       "देख दोष न पूत के फिर पाछे पछताय।

       राम नहीं धृतराष्ट्र के घर दुर्योधन आय।"

                ✍️ अनुज पण्डित

Tuesday, May 18, 2021

क्या आप भी भूत-प्रेतों पर यकीन करते हैं?


सदियों से हम और हमारा समाज किस्से-कहानियों में भूत-प्रेतों का जिक्र करता आया है। वास्तविक जीवन में भी लोगों ने भूतों से सम्बंधित अपने अनुभव साझा किए हैं। आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में लोगों का विश्वास इनके विषय में काफ़ी हद तक कम हुआ है किंतु यह सच है कि सभी योनियों की तरह ही प्रेत योनि भी होती है, अंतर यह है कि यह योनि लौकिक न होकर अलौकिक है, स्थूल न होकर सूक्ष्म है। भूतों के विषय में ज्यादा अच्छे से वही बता सकता है जिन्होंने इनका साक्षात्कार और  मुठभेड़ हुई है।


ऐसा माना जाता है कि जिन मनुष्यों की जीते जी कोई विशेष इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती है, जिनके अंतिम संस्कार में कोई कसर रह जाती है या किसी दुर्घटना के तहत जिनकी मृत्यु हो जाती है, वे प्रेत योनि में भटकते हैं। भूत-प्रेतों पर आधारित क़ई फिल्म और सीरियल बनाये जाते हैं, इसका अर्थ यही है कि आज भी लोगों के जेहन में इन्हें लेकर भय व्याप्त है। 

जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रहा था तो अंग्रेजी की क्लास में प्रो. एल.आर.वर्मा सर मशहूर नाटककार विलियम शेक्सपीयर का नाटक "मैकबेथ" पढा रहे थे,जिसमें तीन चुड़ैलों का जिक्र है। जिज्ञासावश मैं पूछ बैठा कि सर! क्या सच में भूत-प्रेत होते हैं? और यदि होते हैं तो ये ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में और रात में ही क्यों दिखाई देते हैं?

मेरे प्रश्न की तारीफ़ करते हुए प्रोफेसर ने कहा कि यह सच है कि प्रेतयोनि होती है। भूतों को भी शांति और सुनसान क्षेत्र पसन्द होते हैं । शहरों की अपेक्षा गाँवों में आबादी कम होती है इसलिए ये गाँवों में ज्यादा दिखाई देते हैं और  सुनसान होने के कारण रात में ही निकलते हैं। खैर ...मुझे यह तर्क जरा कम भाया फिर भी स्वीकृति में मुंडी हिला दी थी।

एक तरफ लोग यह भी कहते हैं कि भय का भूत होता है किंतु मेरी दृष्टि में भूत और कोरोना एक ही किस्म के हैं। जिसका सामना भूत से नहीं हुआ वह विश्वास नहीं करेगा और जो कोरोना की चपेट में नहीं आया वह भी इसे सरकारी नौटंकी कहकर नकार रहा है। कुछ जन भूत और कोरोना का  अनुभव लिए बगैर ही इन्हें स्वीकार कर लेते हैं। मैं भी इन्हीं लोगों में से हूँ। पता नहीं आप में से कितनों को भूत-प्रेत पर यकीन है!

                      ✍️ अनुज पण्डित

Sunday, May 16, 2021

प्रत्येक हिन्दू को जानना चाहिए आदिशंकराचार्य का जीवन और उनके कार्य

वैदिक एवं सनातन संस्कृति को बचाने का वीणा उठाने वाले तथा आचार्य गोविंद भगवत्पाद के शिष्य आदिशंकराचार्य केरल प्रान्त के कलाड़ी नामक स्थान पर जन्मे थे।

"ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" का मूलमंत्र देने वाले साक्षात् भगवान् शंकर के अवतार आदिशंकराचार्य ने जीव और परमात्मा को अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही स्वीकार कर अद्वैतवेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया।

तत्कालीन समाज में विलुप्त तथा विकृत हो चुके वैदिक ज्ञान-विज्ञान का पुनरुत्थान करने के लिए इन्होंने वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक धरातल पर मजबूत और समृद्ध करने के उद्देश्य से उपनिषदों पर भाष्य लिख डाला। वेदों के विषय में गलत धारणा रखने वाले बौद्ध,चार्वाक और जैन मतों का खंडन शास्त्रार्थ के माध्यम से बड़ी सरलता से कर दिया तथा वेद को ईश्वरीय सम्बोधन करार देते हुए देश के कोने-कोने में इसका प्रचार-प्रसार करने का दुष्कर कार्य किया।

 धर्म के नाम पर मर रही लोगों की आस्था को तरोताजा करने के उद्देश्य से देश के चारों कोनों पर चार मठ ज्योति,गोवर्द्धन, शृंगेरी तथा द्वारिका की स्थापना कर दी।इन चारों मठों में शंकराचार्य के पद की परंपरा आज भी संचालित है। 

दुःख होता है यह देखकर कि जिस वैदिक संस्कृति को नई दिशा देने के मात्र आठ वर्ष की आयु में शंकराचार्य संन्यासी बनकर निकल पड़े, उसी को आज की हिन्दू पीढ़ी पीछे छोड़ती जा रही है। प्रत्येक हिन्दू का यह नैतिक कर्त्तव्य बनता है कि अपनी वैदिक और सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के पुरजोर प्रयास करने चाहिए ताकि फिर से किसी शंकर को इसके उत्थान के लिए अवतार न लेना पड़े । 

यह कटु सत्य है कि यदि आदिशंकराचार्य न होते तो हमारी वैदिक संस्कृति कबका लुप्त और मृत हो चुकी होती।

हिंदुत्व और भारतीय सनातन संस्कृति की बात करने वाले तथाकथित हिंदुओं को आदिशंकराचार्य के जीवन,कार्यों और संदेश को तो स्मरण रखना ही चाहिए!

 वेदों,उपनिषदों और स्मृतियों के पन्ने पलटिये,उनपर लिखी बातों को अपनाइए तथा उसके प्रचार-प्रसार हेतु कटिबद्ध रहिये,तब जाकर आदिशंकराचार्य का उद्देश्य पूरा होगा अन्यथा जयंती तो प्रत्येक वर्ष मनाई ही जाती है!

✍️अनुजपण्डित

Friday, May 14, 2021

"पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी"- किसने कहा था और क्या है इसके पीछे की कहानी?आइये जानते हैं!

🍂"पुनि पुनि चंदन पुनि पुनि पानी, सर गें देउता हम का जानी!"- ये पँक्तियाँ तो आप लोगों ने बहुधा सुनी होंगी किन्तु ये पँक्तियाँ किसके मुख से निसृत हुई थीं, यह शायद कम ही लोग जानते होंगे!


ऋषि अगस्त्य के शिष्य थे सुतीक्षण।एक बार जामुन तोड़ने के लिए सुतीक्षण ने भगवान् शालिग्राम को पत्थर की तरह उपयोग करते हुए जामुन पर फेंक कर मारा। जामुन तो गिरी नहीं, उल्टा शालिग्राम की पिंडी गायब हो गयी। बहुत खोजा किन्तु मिली नहीं। तीक्ष्ण मस्तिष्क वाले सुतीक्षण ने विचार किया कि यदि जामुन के फल को शालिग्राम के स्थान पर रख दिया जाए तो गुरु जी को भनक नहीं लगेगी। 

जब पूजा करते समय गुरु जी ने शालिग्राम को रगड़कर धोया तो वह पिघल गयी।गुरु जी ने देखा कि अरे यह तो जामुन है, शालिग्राम कहाँ गए! सुतीक्षण को बुलाकर पूछा तो सुतीक्षण ने जवाब में ये ही पँक्तियाँ कही थीं कि बार-बार पानी से नहलाये जाने और चंदन लगाने से भगवान् की पिंडी सड़ गयी होगी! गुरु जी को क्रोध आया और कहा कि जब तक शालिग्राम की पिंडी नहीं खोज लेते तब तक आश्रम में आना मत।

स्वाभिमानी सुतीक्षण ने कहा कि पिंडी क्या अब तो मैं साक्षात् भगवान् को सशरीर लेकर ही आपके पास आऊँगा। सुतीक्षण गये और चित्रकूट क्षेत्र में अपना आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय चित्रकूट का भूभाग अत्यंत विस्तृत था। आज सुतीक्षण आश्रम मध्यप्रदेश जनपद के अंतर्गत आता है। वनवास काल के दौरान ऋषि सरभंग से विदा लेने के पश्चात् श्रीराम ऋषि सुतीक्षण से मिले थे ।


मध्यप्रदेश के सतना जिले के वीरसिंहपुर से यह स्थान लगभग चौदह मील की दूरी पर है। पिछले साल जब मैं विभिन्न धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर रहा था तो सुतीक्षण आश्रम पर भी जाना हुआ था। आश्रम में ऋषि सुतीक्षण और जानकी-लक्ष्मण सहित प्रभु राम की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। आश्रम की रमणीयता, शांति और सुकून को महसूस कर ऐसा लगता है, मानो यहीं पूरा जीवन व्यतीत कर दें। शायद इसीलिए भगवान् राम चित्रकूट प्रवास के दौरान सबसे अधिक इसी आश्रम में रहे थे। चित्रकूट की सीमा के अंतर्गत सुतीक्षण अंतिम ऋषि थे जिनसे राम मिले थे। 

आश्रम के बाहर एक कुण्ड है जिसके बारे में मान्यता है कि लक्ष्मण जी ने अपने बाण से यहाँ जल निकाला था। यहीं से प्रभु राम  सुतीक्षण ऋषि को साथ लेकर ऋषि अगस्त्य के दर्शनों हेतु आगे बढ़े थे। वनगमन के दौरान प्रभु राम जिन-जिन स्थलों पर रहे,वहाँ जाने पर उनकी मौजूदगी का एहसास आज भी होता है। 


                   ✍️ अनुज पण्डित

Tuesday, May 4, 2021

क्या आप जानते हैं कि किस वजह से पूरा विश्व बीमार हो रहा है!पढिये यहाँ👇

🍂"वेदों की ओर लौटो" कहने का आशय है प्रकृति की ओर लौटो। प्रकृति ही तो है जिसकी स्तुति,वर्णन वेदों की ऋचाएँ करती हैं! दुनिया का सबसे पुराना ग्रन्थ ऋग्वेद प्रकृति की विशेषता,उसके गुणों तथा महत्त्व को बखूबी बयाँ कर रहा है। 


पञ्च महाभूतों से बना यह मानव शरीर स्वयं में एक प्रकृति ही है। जो प्रकृति बाहर है, वही हमारे शरीर के भीतर भी। इन पञ्च महाभूतों का ठीक रहना बहुत जरूरी है क्योंकि इनमें से यदि एक तत्त्व भी गड़बड़ाया तो आप अस्वस्थ और बीमार महसूस करने लगते हैं। इस शरीर को चलायमान और स्वस्थ रखने के लिए जितनी जरूरी शरीर की प्रकृति है, उतनी ही जरूरी है बाहर की प्रकृति।

वैज्ञानिकता और विकास की राह पर सरपट दौड़ रहे मनुष्य को न तो बाहर की प्रकृति की चिंता रही और न ही निज प्रकृति की तो बीमारियाँ, रोग तो पनपेंगे ही! बाहर  और भीतर की प्रकृति इसलिए समान हैं क्योंकि मनुष्य को स्वस्थ और नीरोग रखने के लिए बाहर की प्रकृति से तादाम्य स्थापित करना बहुत आवश्यक है।


अब न तो बाहर की प्रकृति की स्थिति ठीक बची और न ही भीतर की। जंगल उजाड़ दिए गए,वनाधिकारियों के साथ मिलकर जंगल के सौदागर वनसम्पदा को लील गये,पहाड़ों को खोदकर समतल कर दिया गया,नदियों-झरनों का पानी ऐसे सूख गया है जैसे किसी ने अग्निबाण का संधान किया हो,पक्षी और अन्य वन्यजीव मिस्टर इंडिया हो गए हैं। जंगल जाता हूँ तो घनी छाँव को तरस जाता हूँ, नदियों का मीठा पानी पिये कई बरस बीत गए,बेर और मकोई याददाश्त मात्र बनकर रह गयी हैं। 

प्रकृति मानव से कुछ नहीं माँगती, मत लगाइए पेड़,न दीजिये उन्हें पानी,वे भगवान् भरोसे पर्वत पर हर्रा लेंगे किन्तु जब आप कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करते हैं तो उनकी आह निकलती है जो शाप बनकर मानवजाति पर मंडरा रही है। यह तो कहिये हमारे पूर्वज इतने जानकार थे कि उन्होंने सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले और औषधीय गुणों वाले पेड़ों को पूज्य बना दिया ताकि कोई इन्हें क्षति न पहुँचाए किन्तु निर्मम और स्वार्थी मानुष ने कसाई की तरह इन पेड़ों के टुकड़े टुकड़े किये हैं। अब, जब मानव बुरी तरह रोगों से घिर गया है तो उसे शुद्ध हवा और स्वच्छ जलवायु की आश है जो कि कब का क्षीण हो चुकी है।


बाहर की प्रकृति के अलावा भीतर की प्रकृति का भी ध्यान मानव ने नहीं रखा है।सूर्य के साथ जागना और राकापति के साथ सोना शायद ही आज कोई करता हो! बाहर की वायु को शरीर के भीतर प्रविष्ट कराने के लिए प्राणायाम तो करते हैं किंतु शुद्ध वायु बची कहाँ है! मनुष्य ने प्रकृति को जितना रुलाया है, प्रकृति उससे कम ही रुला रही है क्योंकि प्रकृति मानव की तरह निर्मोही नहीं! ये महामारी, रोग,अशांति सब मनुष्य के कर्मों का फल ही तो हैं!

यदि जीवन बचाना है, बीमारियों से पीछा छुड़ाना है तो हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा,उसकी देख-रेख करनी होगी और उसकी उपयोगिता को समझना होगा। इसके लिए हमें वेदों को खंगालना ही होगा जहाँ प्रकृति की महत्ता पन्नों पर छपी है।


               ✍️अनुजपण्डित

Saturday, May 1, 2021

कोरोना से लड़ने में क्या सच में "कपूर" सक्षम है?

देश-विदेश में बढ़ते कोरोना के दुष्परिणामों के कारण "कपूर" के प्रयोग और इसके महत्त्व की बातें लोगों की जुबां पर आने लगी हैं। प्राचीन काल से भारतीय पूजा-पद्धति और आयुर्वेद-चिकित्सा में प्रयोग किये जाने वाले कपूर की वैज्ञानिकता से हमारे पूर्वज बखूबी परिचित थे तभी तो आरती करने के लिए कपूर की अनिवार्यता थी।

आज भी जिस घर में कपूर से आरती की जाती है, उस घर का वातावरण शुद्ध, बैक्टीरियारहित  और स्वास्थ्य के अनुकूल रहता है। भारतीय संस्कृति और भारतीय पूजा-पद्धति में जिन पदार्थों के प्रयोग की बात की जाती है,वे यूँ ही नहीं कह दी गयीं बल्कि इनके पीछे अनेक तरह के फायदे जुड़े हुए हैं। 

यह दुःखद है कि नई पीढ़ी भारतीय मान्यताओं को खोखला समझकर इसकी अवमानना करती है। यदि शिक्षक एवं अभिभावक बच्चों को अपनी संस्कृति एवं पूजा पद्धति की महत्ता बताते हुए उसकी वैज्ञानिकता समझायेंगे तो निश्चितरूप से नई पीढ़ी उसको स्वीकार कर उसका प्रयोग करने से हिचकिचायेगी नहीं।

कपूर का संस्कृतनिष्ठ नाम "कर्पूर" है। इसे और भी नामों से जाना जाता है।जैसे- घनसार,हिमवालुका, सिताभ्र, चन्द्रसंज्ञ आदि। संस्कृत साहित्य एवं ग्रन्थों में शायद ही कोई ऐसा लेखक हो जिसने कर्पूर का जिक्र न किया हो। भगवान् शिव,नारद,हिमालय आदि की समता कर्पूर के वर्ण से अनेकशः की गई है।

कपूर जलाने के फायदों को निम्न बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-


1-बैक्टीरिया तथा कीटाणु नष्ट होते हैं 
2-ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है। 
3-कपूर को पानी में घोलकर पोछा लगाने से चींटी,कीड़े आदि नहीं आते 
4- घर में यदि खुला कपूर रखा है तो शुद्ध वायु का संचार होता है ।
5-सूती कपड़े में कपूर और लौंग को बांधकर जेब में रखें और थोड़ी-थोड़ी देर में सूंघते रहें तो सर्दी,जुकाम, खाँसी, और श्वांस सम्बन्धी समस्याएँ और अन्य संक्रामक रोग दूर हो जाते हैं।

ध्यान रहे,कपूर शुद्ध होना चाहिए,केमिकल वाला नहीं अन्यथा विशेष लाभ नहीं होगा।वैसे भीमसेनी कपूर प्रमाणिक माना गया है और पतंजलि का भी ठीक है।

                       ✍️अनुजपण्डित

आपदा के समय सान्त्वना प्रदान कर रहा "गीता-ज्ञान"

इस समय श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक काफ़ी सान्त्वना प्रदान कर रहे हैं, बड़े से बड़े दुःख को सहन करने की शक्ति दे रहे हैं तथा हर परिस्थिति में  विचलित न होने की सीख दे रहे हैं।


तभी तो कहते हैं कि मनुष्य के जीवन को सुगमता से चलायमान रखने हेतु गीता-ज्ञान आवश्यक है। जीवन जीने की कला तो सिखाती ही है साथ ही  लाभ-हानि,जीवन-मरण और सुख-दुःख की स्थिति में सामान्य रहकर स्थितप्रज्ञ बनने की ओर प्रवृत्त करती है।

शरीर अनित्य है।यह सदा रहने वाला नहीं, जो पैदा होगा उसका मरण निश्चित है और मरे हुए का जन्म लेना निश्चित है। नित्य तो केवल आत्मा है जो हमेशा रहती है, इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन होता ही नहीं, यह न तो मरता है न ही मारता है। तो फिर दुःख और विलाप किस बात का!


सृष्टि का संचालन एक सुनियोजित व्यवस्था के आधार पर होता है। जो चला गया वह चला गया। जो बचेगा उसके जिम्मे व्यवस्थाएँ बचती हैं, यही संसार का नियम है। किसी के जाने पर जो शोक होता है वह मोहवश होता है, स्वार्थवश होता है।
 इतने दिनों तक किसी के साथ जीवन बिताओ और सहसा वह छोड़कर चला जाये तो मोह के कारण शोक उत्पन्न होना इस बात का प्रमाण है कि आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान ही नहीं क्योंकि जिसके जाने पर आप शोक करते हो वह है शरीर और शरीर अनित्य है, इसका नष्ट होना पहले से ही निर्धारित है। 

गीता के उपदेश हैं तो सत्य किन्तु उनके आधार पर स्वयं को मोह से मुक्त कर पाना कठिन है। कठिन इसलिए है क्योंकि अज्ञान और मोह का पर्दा आँखों पर पड़ा है।यदि जीवन के रहते यह पर्दा उठ गया तो आपका चित्त सारे विकारों से रहित होकर प्रसन्न हो जाएगा और आप मोक्ष के अधिकारी बन जायेंगे।

                 ✍️ अनुजपण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...