Tuesday, February 23, 2021

घने जंगल में विराजमान माँ आनन्दी धाम से जुड़ी कहानी अत्यंत रोचक है।

🍂चित्रकूट के बीहड़ में मरवरिया पहाड़ पर विराजमान यह प्रतिमा माँ आनन्दी का है।इसका इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना मैहर की शक्तिपीठ माँ शारदा का। विचित्र आकृति वाली पत्थर की यह प्रतिमा दरअसल सीधी नहीं बल्कि उल्टी स्थिति में है।


 इसके पीछे की कहानी बुजुर्ग जन इस तरह से सुनाते हैं कि बहुत पहले यह प्रतिमा पहाड़ की अत्यधिक ऊँचाई पर स्थापित थी। एक वृद्ध महिला इनके दर्शन करने इतने ऊपर तक चढ़ कर जाती थी तो थक जाती थी लिहाज़ा उसने देवी आनन्दी से विनती की कि हे माता! आप तनिक और नीचे आकर विराजित हो जाइए ताकि मैं आसानी से आपके दर्शन करने आ सकूँ।

 आकाशवाणी द्वारा उस महिला को कहा गया कि तुम आगे-आगे चलो,मैं तुम्हारे पीछे आती रहूँगी किन्तु ध्यान रहे कि जहाँ पर तुम पीछे मुड़कर देख लोगी, मैं वहीं उसी जगह स्थापित हो जाऊँगी। कुछ दूर आने के बाद उत्सुकतावश उस महिला ने पीछे मुड़कर देख ही लिया,अस्तु माता आनन्दी वहीं उसी स्थिति में उल्टा (यानि सिर नीचे,पैर ऊपर)स्थापित हो गयीं। 

क्षेत्रीय लोगों की इतनी आस्था है इन पर कि आये दिन खासकर नवरात्रों में यहाँ भक्तों का सैलाब उमड़ता है, कीर्तन-भजन और भण्डारे का आयोजन होता है। इस क्षेत्र में डकैतों के आतंक के बाद भी भक्तों की आस्था और मान्यता में कोई कमी देखने को नहीं मिलती।  मरवरिया के पहाड़ की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ से पहले ग्रेनाइट, अभ्रक और चूना निकाले जाते थे। 

आनन्दी माता नाम से और भी कई मंदिर देखने-सुनने को मिलते हैं किंतु यह आनन्दी धाम घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों पर स्थापित है। बचपन के दिनों में जब मैं गाँव में रहता था तो दोनों तूर की नवरात्रों में मित्रों की टोली के साथ रात को 2 बजे ही निकल पड़ता था माता को जल चढ़ाने। गाँव की सीमा से बाहर एक तालाब पड़ता था तो वहीं हम सब खूब देर तक नहाते और तब आगे बढ़ते थे।

 तब बचपना था तो समझ के साथ-साथ भय की भी कमी थी। मुझे आज भी याद है जब एक बार रात को 3 बजे जंगल के बीच से होता हुआ अकेले मैं इस विश्वास में मन्दिर तक पहुँच गया कि फला मित्र आगे-आगे जा रहा है। उस समय मोबाइल आदि की पहुँच गाँव तक नहीं हो पायी थी कि कॉल करके मित्र की स्थिति का पता लगा सकता! 

जब मैं मन्दिर पहुँचा तो मन्दिर के पुजारी सो रहे थे।मैंने उन्हें जगाया तो उन्होंने कहा कि तुम इतनी रात को अकेले क्यों आ गए। मैंने कहा मुझे जल चढ़ाना है तो पुजारी जी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। पहले मैं जल चढ़ाता हूँ उसके बाद अन्य लोग। बेचारे रात को तीन बजे लगभग तीन सौ सीढियाँ उतरकर गये नहाने और आकर जल चढाये तब जाकर मेरा नम्बर आया। आज भी जब मैं माता के दर्शन करने जाता हूँ तो पुजारी जी कहते हैं कि यार तुमने मुझे रात को तीन बजे नहाने के लिए मजबूर किया था,मुझे अभी तक याद है।ऐसा कहकर खुश होते हैं।

मैं आज भी सोचता हूँ कि आस्था और विश्वास में कितनी ताकत होती है कि एक बारह साल का बालक बिना भय खाये,घने जंगल के बीच से ,जंगली जीवों और डकैतों से होने वाले खतरे से अनजान रहकर कैसे अपने इष्ट के पास तक सकुशल पहुँच गया! उस समय का जंगल भी काफ़ी हद तक समृद्ध था,हिरन-स्याही,नीलगाय,भालू और वनरोझ आदि का रास्ते पर मिलना सामान्य बात थी। आज जंगल उजड़ चुके हैं, जंगली जीव विलुप्त से हो गए हैं तथा पहाड़ों का कद छोटा होता चला जा रहा है, बहुकीमती पेड़ कटकर ट्रेनों, डग्गों आदि में लदकर शहरों  की ओर भाग रहे हैं।   क्षेत्र की आदिवासी जनता बहुत हद तक अपने रोजगार हेतु इन्हीं जंगलों पर ही निर्भर है। यह चिंता का विषय है कि धीरे-धीरे जंगलों की खूबसूरती पर ग्रहण लग रहा है।

✍️ अनुज पण्डित

Monday, February 22, 2021

ये चित्र बयाँ करते हैं वाल्मीकि-आश्रम की वास्तविक स्थिति

चित्रकूट जिले के लालापुर गाँव में असावर माता का मंदिर है। अमूमन  देवियों की स्थापना पहाड़ की ऊँचाई पर ही  की जाती थी। इसी मंदिर से आगे पहाड़ पर और ऊपर चढ़ने पर आदिकवि वाल्मीकि का मंदिर है। ऐसा माना  जाता है कि वनगमन के समय श्री राम यहीं इसी स्थान पर वाल्मीकि से मिले थे।

             आदिकवि वाल्मीकि की प्रतिमा

 डाकू वाल्मीकि द्वारा साधुओं को बंधक बनाने, ब्रह्मा जी द्वारा वाल्मीकि को उपदेश देने, लक्ष्मण द्वारा सीता को छोड़ने, कुशलव-जन्म एवं उनके द्वारा अश्वमेध का घोड़ा पकड़ने आदि के चित्र पत्थर-सीमेंट से गढ़कर यहाँ रखे गये हैं। कुल मिलाकर स्थान की प्राचीनता और वाल्मीकि की प्रतिमा देखकर  यह कह सकते हैं कि रामायण काल में वाल्मीकि का आश्रम यहीं था! वैसे प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों के एक से अधिक ठिकाने हुआ करते थे इसलिए दावे के साथ यह नहीं कह सकते कि यही वाल्मीकि का मुख्य आश्रम था।

           साधुओं को बंधक बनाते वाल्मीकि

 इसी पहाड़ के नीचे एक नदी बहती है, जिसे क्षेत्रीय लोग वाल्मीकि-नदी कहते हैं।  रामकथा मूलक ग्रन्थों को पढ़ने पर यह मिलता है कि इनका आश्रम तमसा नदी के तट पर था,जहाँ स्नान के लिए गए वाल्मीकि एक बहेलिए द्वारा क्रौंच पक्षी को मार दिए जाने पर शोक से भर जाते हैं और उनका शोक श्लोक रूप में प्रस्फुटित होता है-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समा:।यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी:.काममोहितम्।।

           बहेलिया,क्रौंच,वाल्मीकि एवं भरद्वाज

कहते हैं कि यही श्लोक लौकिक संस्कृत साहित्य का उत्स बना और रामायण की रचना कर वाल्मीकि  लौकिक संस्कृत के आदि कवि कहलाये! 

आधुनिक काव्यशास्त्री और समीक्षक प्रो.रहस विहारी द्विवेदी ने अपने महाकाव्य वाल्मीकिरामीयम् में रामायण के आधार पर वाल्मीकि आश्रम की स्थिति का वर्णन किया है। जब राम भरद्वाज मुनि से वाल्मीकि के आश्रम की स्थिति पूछते हैं तो भरद्वाज कहते हैं कि यहाँ से दश कोस यानि तीस किलोमीटर की दूरी पर गुरु जी का आश्रम है। इस आधार पर प्रो.द्विवेदी ने वाल्मीकि आश्रम की स्थिति ऋषिरसा जो कालांतर में सिरसा नाम से प्रचलित हुआ, स्वीकार किया है। यहाँ टमस/टौंस नदी भी बहती है जो पहले तमसा कहलाती थी ।

                सीता को वन में छोड़ते लक्ष्मण 

चित्रकूट वाला वाल्मीकि आश्रम मुझे इसलिए ठीक लगता है क्योंकि वाल्मीकि ने राम को बताया कि आपके रहने योग्य सुंदर स्थान चित्रकूट है। इसका अर्थ यही हुआ कि उन्होंने अपने नजदीक ही रहने को कहा होगा! चित्रकूट की भौगोलिक परिसीमा उस समय अधिक व्यापक थी।चित्रकूट विंध्यपर्वत शृंखला में आता है और विंध्य पर्वत का क्षेत्र प्रयाग से होता हुआ मिर्जापुर तक लगता है।इस हिसाब से हो सकता है कि राम यहीं सिरसा वाले आश्रम पर ही वाल्मीकि से मिलकर आगे चित्रकूट की ओर बढ़े हों!

 ✍️अनुज पण्डित(स्वतंत्र-लेखक एवं वरिष्ठ शोध-अध्येता)

Saturday, February 20, 2021

प्रयागराज के भरद्वाज पार्क में स्थापित भरद्वाज ऋषि की मूर्ति में खलती है यह कमी!

🍂वनगमन के दौरान सीता और लक्ष्मण  के साथ जब श्रीरामचन्द्र प्रयाग की पावन धरा पर पधारे तब सबसे पहले वे महाकवि वाल्मीकि के शिष्य भरद्वाज ऋषि से मिले। 

उस समय भरद्वाज का आश्रम शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केंद्र था। उनका गुरुकुल एक प्रकार से ऐसा विश्वविद्यालय था,जिसमें समस्त प्रकार की विद्याएँ प्रदान की जाती थीं। ऐसा माना जाता है कि ये प्रयाग के प्रथम निवासी थे । यह भरद्वाज ऋषि का ही प्रताप है कि आज भी प्रयागराज शिक्षा का प्रमुख केंद्र है। देश के विभिन्न स्थानों से लाखों की संख्या में विद्यार्थी यहाँ आकर विद्याध्ययन और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। 

अभी कुछ वर्षों पूर्व उत्तरप्रदेश सरकार ने प्रयागराज के बालसन चौराहे पर स्थित भरद्वाज आश्रम में भरद्वाज ऋषि की एक विशाल और दिव्य मूर्ति की स्थापना करवाया है। यहाँ से गुजरते वक्त प्रायः सबकी नजर  इस अद्भुत् प्रतिमा पर पड़ती ही होगी किन्तु शायद ही किसी की नजरों ने वह पकड़ पाया हो,जो मेरी नजरों ने पकड़ा! 

दरअसल मूर्ति को ध्यान से देखने पर यह बात खटकती है  कि  भरद्वाज ऋषि को रुद्राक्ष की माला और वस्त्र तो पहनाए गये हैं किंतु "यज्ञोपवीत" का ख्याल आख़िर क्यों नहीं आया! 

यज्ञोपवीत यानि जनेऊ जो कि सोलह संस्कारों में एक अनिवार्य संस्कार है, जो भारतीय संस्कृति एवं सनातन में विशेष महत्त्व रखता है, उसी को भूल जाना!वह भी एक प्रसिद्ध ऋषि को पहनाने के लिए!

 मुझे नहीं लगता कि कोई और वजह रही होगी जिसके चलते न पहनाया गया हो! यह निरा लापरवाही है उस मूर्तिकार की जिसने इसे गढ़ा! सच कहूँ तो बिना यज्ञोपवीत के यह मूर्ति असहज और अधूरी सी प्रतीत होती है। शायद शासन और प्रशासन का ध्यान इस ओर खिंचे और इस मूर्ति पर एक जनेऊ पहनाने का कार्य किया जाए! 

 ✍️ अनुज पण्डित

Friday, February 19, 2021

औरंगजेब के चंगुल से कैसे भाग निकले थे वीर शिवाजी?

🍂रोशनआरा अपना प्रेम शिवाजी से प्रकट कर रही थी किन्तु उन्होंने साफ़ कह दिया कि मैं तुम्हें  तभी स्वीकार करुँगा जब तुम्हारा पिता स्वीकृति प्रदान करेगा। 

उसी समय जयसिंह ने हमला बोल दिया। शिवाजी ने उसके मन में हिंदुत्व जगाने का असफ़ल प्रयास किया और इसी असफ़लता के कारण   शिवाजी मुगलों की कुछ शर्तें मानकर संधि करने को विवश हुए। इसी संधि के फलस्वरूप रोशनआरा और मुअज्जम को लौटा दिया गया। 
इसके बाद रघुवीर सिंह की मदद से शिवाजी ने बीजापुर के एक किले पर धावा बोलकर उसे अपने अधीन किया तथा रहमत खान को जिंदा पकड़ लिया परन्तु रहमत खान और क्रूरसिंह ने कुटिल चाल चलकर रघुवीर सिंह को राजद्रोही साबित कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप शिवाजी ने उसे निष्कासित कर दिया था। हालाँकि बाद में पता चला कि वास्तव में राजद्रोही तो क्रूर सिंह है!

जयसिंह की संधि के अनुसार 1666 में शिवाजी औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुए। यद्यपि राधास्वामी के वेश में रघुवीर सिंह ने उन्हें रास्ते पर रोकना चाहा किन्तु वे रुके नहीं। शिवाजी को सामने पाकर औरंगजेब ने उन्हें नजरबंद करवा दिया  और कड़ा पहरा लगवा दिया किन्तु अपनी योजना और रघुवीर सिंह की मदद से शिवाजी वहाँ से भाग निकले। तभी पता चलता है कि राधास्वामी के वेश में स्वयं रघुवीर सिंह ही है, तो शिवाजी ने उससे क्षमा-याचना की।

बाद में शिवाजी सतारा को अपनी राजधानी बनाकर रहने लगे थे और कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण महाराष्ट्र पर शिवाजी का आधिपत्य हो गया था।


#पं_अम्बिकादत्तव्यास_कृत_शिवराजविजयम्     

                                  ✍️ अनुज पण्डित

Wednesday, February 17, 2021

"संस्कृत बोलचाल की जीवित भाषा है"-भ्रांति या सच

🍂संस्कृत का पठन-पाठन मात्र ग्रन्थों तक ही सीमित था और बोलचाल में उसका प्रयोग पुराकाल में भी नहीं होता था-यह एक भ्रान्ति है।

 वास्तव में रामायण और महाभारत काल में भी संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। रामायण में  इल्वस नामक राक्षस ब्राह्मण का वेश धर कर और संस्कृत बोलकर ही ब्राह्मणों को अपने वश में करता था। अशोक वाटिका में हनुमान् जी यह विचार किया था कि माता सीता से किस भाषा में बात की जाए! और अंततः संस्कृत में ही बात की (वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृतम्)। 
पुराने व्याकरणग्रन्थों से भी संस्कृत का प्रचार-प्रसार सिद्ध होता है। सातवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के निरुक्तकार यास्क ने वैदिक संस्कृत से इतर संस्कृत को "भाषा" कहा है,जिससे संस्कृत का बोलचाल की भाषा होना सूचित होता है।चार सौ ईस्वी पूर्व के पाणिनि ने संस्कृत को लौकिक अर्थात् लोकव्यवहार की भाषा माना है। उन्होंने दूर से बुलाने ,प्रणाम और प्रश्नोत्तर करने में कुछ स्वर-सम्बन्धी नियम बताए हैं, जिनसे संस्कृत का प्रचलित भाषा होना प्रमाणित होता है। यास्क और पाणिनि ने संस्कृत की पूर्वी और उत्तरी विशेषताएँ बतलायी हैं, जिनसे यह पता चलता है कि संस्कृत न केवल साहित्यिक भाषा थी अपितु अलग-अलग स्थानों में बोली जाने के कारण इसमें स्थानीय विशेषताएँ भी आयीं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य वर्णों में भी उसका प्रचार था।महाभाष्य में एक सारथि एक वैय्याकरण के साथ भूत शब्द की व्युत्पत्ति पर विवाद करता है। संस्कृत बोलने वाले को शिष्ट/सभ्य कहा जाता था,न बोलने वाले भी समझते थे। संस्कृत नाटकों के निम्नपात्र प्राकृतभाषी होते हुए भी संस्कृत में बोली गयी पंक्तियों का प्रत्युत्तर आसानी से देते हैं।संस्कृत नाटकों से भी प्रमाणित होता है कि नाटकों का मंचन तभी होता रहा होगा जब आमजन संस्कृत क़ई समझ रखते रहे होंगे! यह जरूर है कि पुराकाल में संस्कृत उसी प्रकार शिक्षित एवं सभ्य वर्ग की भाषा थी जैसे आजकल खड़ी बोली! 

साहित्यिक प्रसंगों और राजकार्य में भी संस्कृत का  अधिकतर प्रयोग होता था। प्राचीन चम्पा उपनिवेश (आधुनिक हिन्द- चीन- इंडोनेशिया) में तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक संस्कृत राजभाषा के रूप में व्यवहरित रही। यानि उस समय संस्कृत राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन थी और आज भी दक्षिण के कई ब्राह्मण परिवारों में संस्कृत बोलचाल की भाषा है।इस प्रकार संस्कृत बोलचाल की जीवित भाषा है।

                      ✍️ अनुज पण्डित

Tuesday, February 16, 2021

प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म पर चिन्तन

नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय, प्रयागराज के ज्योतिष, कर्मकाण्ड वास्तु शास्त्र डिप्लोमा एवं संस्कृत विभाग  दिनांक 15/02/2021से 17/02/2021 तक चलने वाले त्रिदिवसीय वासन्तिक महोत्सव के दूसरे दिन आज दिनांक16/02/2021 को पूर्वाह्न 11बजे  विश्वविद्यालय  के" समागम"  शिविर मे मंगलाचरण और सरस्वती पूजन किया गया  तत्पश्चात "प्राचीन भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म " का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपादेयता विषय पर चिन्तन किया गया। कार्यक्रम का प्रारम्भ डाँ.देव नारायण पाठक ने वैदिक मंगलाचरण से किया।कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे स्वामी दिलीप योगिराज ने रामचरितमानस के उत्तर काण्ड के महत्व पर विस्तृत प्रकाश डाला और बताया कि यदि कोई व्यक्ति नित्य रामचरित मानस के उत्तर काण्ड का पाठ करे तो उसमें भारतीय संस्कृति का विकास अपने आप हो जाएगा। 
स्वामी श्यामदास जी ने आधुनिक परिप्रक्ष्य में श्रीमद्भगवद्गीता की उपादेयता पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम का प्रारम्भ वैदिक मंगलाचरण से हुआ।इस अवसर पर  संस्कृत विभागाध्यक्ष डाँ.देव नारायण पाठक,डाँ.सब्यसाची, डाँ.राजीव वर्मा, डाँ.प्रभात कुमार, बलराम,बृजेश,श्री रविमिश्र,श्री संगम लाल तथा अनेक सम्मानित जन विद्यमान थे। अन्त में डाँ.प्रभात कुमार  ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

Monday, February 15, 2021

डॉ.पाठक सर ने बताया स्पर्श-चिकित्सा(touch therapy) का महत्त्व

भारतीय संस्कृति में स्पर्श चिकित्सा ।

        नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय, प्रयागराज, के ज्योतिष,कर्मकाण्ड, वास्तुशास्त्र एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष डाँ.देव नारायण पाठक ने मानव स्पर्श : प्राकृतिक चिकित्सा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में मानव स्पर्श चिकित्सा का बडा महत्व है। प्रचीन भारत में यह हमारी संस्कृति का एक अंग थी।


*मानव स्पर्श (HUMAN TOUCH)* में अद्भुत चिकित्सीय गुण भरे होते है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण *माँ की ममतामयी स्पर्श* है। हमें चाहे कितना भी बड़ा शारीरिक, मानसिक या कोई अन्य आघात लगता है... लेकिन यदि *माँ का प्यार भरा स्पर्श* मिल जाता है, तो उस आघात की तीव्रता बहुत कम रह जाती है।इसलिये *मानव स्पर्श एक प्राकृतिक चिकित्सा* है। इस चिकित्सा के द्वारा मानव

( बहुत से असाध्य रोगों में प्रतिदिन नियमित रूप से प्यार-दुलार के साथ रोगियों की उचित देखभाल *संजीवनी बूटी* की तरह अविश्वसनीय लाभ पहुँचाता है। 


स्पर्श चिकित्सा* का एक अनुपम उदाहरण रामचरितमानस के लंका कांड में राम-रावण युद्ध के दौरान प्रयोग होते हुये तुलसीदासजी महाराज बताते है कि:- *युद्ध मैदान से प्रतिदिन घायलावस्था में लौटने वाले बानर योद्धाओं को, रात में प्रभु राम अपने हाथों से स्पर्श करके, पूरी तरह स्वस्थ कर देते थे।* जिससे सुबह - सवेरे वह वीर - योद्धा पुन: रणक्षेत्र की ओर कूच कर देते थे।

माँ द्वारा नवजात बच्चे की प्रतिदिन कोमल मालिश से शरीर को सुगठित बनाना, पुराने समय में विदाई /मिलन के समय माता - बहनों का आपस में गले लगकर (भेंट करना) रोना, बड़े - बुज़ुर्गों का पैर छूकर अभिवादन करना, अपने से छोटों को सिर पर प्यार भरा हाथ रखकर आशीष देना, आपसी लड़ाई के बाद पुन: एक दूसरे के साथ गले मिलकर झप्पी देना, आदि सब *स्पर्श चिकित्सा (TOUCH THERAPY)* के ही उदाहरण हैं।

Wednesday, February 10, 2021

यहाँ होता है गङ्गा-यमुना-सरस्वती का संगम

🍂इलाहाबाद का नाम काफ़ी बाद में बदला किन्तु यहाँ के भौगोलिक और सामाजिक बदलाव प्रयागराज होने से पहले ही दिखाई देने लगे थे। नाम बदला भी तो इस तरह जिसका शाब्दिक अर्थ अर्थपूर्ण नहीं लगता-प्रयागराज! 

संस्कृत व्याकरण के अनुसार बात करें तो इसका अर्थ होगा-प्रयागों का राजा(प्रयागानां राजा इति प्रयागराज:) । प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कौन-कौन से प्रयाग हैं जिनका राजा यह प्रयाग है? कहीं उत्तराखण्ड राज्य के देवप्रयाग,रुद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग आदि का राजा मानकर तो नहीं इसे प्रयागराज नाम करार दे दिया गया? 


तीर्थराज या तीर्थराजप्रयाग-ये दोनों शब्द समझ में आते हैं क्योंकि प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है। खैर... इस बात की खुशी है कि उत्तरप्रदेश सरकार ने कम से कम इसे इसका प्राचीन और वास्तविक नाम पुनः  दिया क्योंकि इलाहाबाद के पहले 'प्रयाग' ही  था। प्रयाग इसलिए क्योंकि इस धरती पर  अनेक श्रेष्ठ यज्ञ  लगातार सपन्न किये जाते थे। इसके अतिरिक्त इसे संगम,त्रिवेणी आदि नामों से भी जाना जाता है। यहाँ गङ्गा-यमुना दो पवित्र नदियों का संगम है और सरस्वती भीतर ही भीतर बहती हैं, इसलिए इन तीनों के मिलन के कारण इसे त्रिवेणी कहा जाता है। 

सदियों से जनमानस इसे धर्म और आस्था का प्रतीक मानता आया है।इसी आस्था का दूसरा नाम  है-' प्रयागकुम्भ।' कुम्भ अर्थात् घड़ा/कलश जो भारतीय संस्कृति में लोकमंगल का प्रतीक माना जाता है। 

कुम्भ को धार्मिक स्वरूप दिया समुद्रमंथन की कथा ने। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि  समुद्रमंथन से अमृत निकला था ,उसे घड़े में भरकर ले जाते समय अमृत की  बूँदें जिस-जिस स्थान पर छलकीं,उस-उस जगह कुम्भ,अर्द्धकुंभ और माघमेले का आयोजन होने लगा।


बारह वर्षों में कुम्भ,छः माह में अर्द्धकुंभ तथा प्रत्येक साल माघमेले का आयोजन होता है। पूरा एक माह गङ्गा के तट पर कल्पवास करके श्रद्धालुजन पुण्यलाभ अर्जित करते हैं। यह महीना माघमेले का ही है।इस समय गङ्गा और संगम तट की शोभा देखते बनती है।  

                                  ✍️ अनुज पण्डित

Sunday, February 7, 2021

मंगलाचरण क्या है?इसका प्रयोग किस लिए होता है?

🍂किसी भी शुभ कार्य को आरम्भ करने से पहले,यहाँ तक कि ग्रन्थ-लेखन के आदि में भी  मंगलाचरण करना भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है। शास्त्रकारों ने मंगलाचरण के तीन भेद किये हैं-1-नमस्कारात्मक, 2-आशीर्वादात्मक एवं 3-वस्तुनिर्देशात्मक।


नमस्कारात्मक मंगलाचरण में कवि अपने आराध्य देव की वंदना करता है । ज्यादातर संस्कृत ग्रन्थों के नमस्कारात्मक मंगलाचरण में विष्णु(राम), शिव और शक्ति की वंदना ही मिलती है जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि अमुक कवि वैष्णव होगा,शैव होगा या तो शाक्त होगा!

आशीर्वादात्मक मंगलाचरण के माध्यम से कवि स्वयं या सभी के लिए ईश्वर से मंगल की कामना करता है या सबकी रक्षा हेतु प्रार्थना करता है।

वस्तुनिर्देशात्मक के माध्यम से कवि रचे जाने वाले ग्रन्थ की विषयवस्तु के बारे में संकेत प्रदान कर देता है।

मंगलाचरण की उपस्थिति ज्यादातर संस्कृत ग्रन्थों में ही दिखती है!
                               ✍️ अनुज पण्डित

भक्ति और उसके पुत्र

🍂'भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर 'भक्ति' शब्द की निष्पति होती है,जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा करने को 'भ...